बुधवार, मार्च 07, 2007

मध्यान्हचर्चा दिनांक : 07-03-2006

कक्ष में कदम रखते हुए संजय ने देखा धृतराष्ट्र कुछ खिन्न से लग रहे थे. चपरासी आया और उनकी ठंडी हो गई कोफी को बदल गया.

संजय : आप कोफी का आनन्द ले महाराज, प्रसन्नता की बात है, चिट्ठा दंगल में आज गहमा-गहमी ठंडी पड़ गई है.
धृतराष्ट्र : हम्म्म, ठीक है तुम संजाल का संचार करो.

संजय : महाराज, कल का दंगल अब शांत होने को है, जोगलिखी से कल छोड़े गए तीर पर अपनी प्रतिक्रिया दी है. वहीं जगदीशजी ने कल रणभूमि से हटने के प्रस्ताव रखा था, आज फिर डटे नजर आ रहे है, यह कहते हुए की अपनी बात कहने का सबको अधिकार है, अतः हवाओं को मत रोको.
धृतराष्ट्र : कौन रोक सकता है, भाई. खुब हवा बहाओ, खाओ.
संजय : ऐसा ही कुछ, नीलिमाजी का मानना है, उन्हे वाद-सवांद करने की आज़ादी चाहिए, क्योंकि भेजा शोर करता है.

धृतराष्ट्र : खूब करो संवाद, हम है ना सुनने को...
संजय : “बाजारवाला”, गालियाँ खा कर साधूवाद दे रहे है तो निठ्ठले तरूण मन की भड़ास निकाल लेने की सलाह दे डाली. नेक सलाह को मानते हुए अब ई-स्वामीजी पत्रकारों पर अपनी भड़ास निकाल रहे है.

धृतराष्ट्र : इस शोर शराबे से निकलो अब.
संजय : जी महाराज, आगे सुनिलजी अपने वे किस्से सुना रहे है, जो अब तक कह न सके थे. बचपन से लेकर बुढ़ा....तक के किस्से.
किस्सा गुरनामजी का भी मजेदार है, कोलेज में आखरी होली खेलते हुए पूछ बैठे, क्या आप सुन्दर है? अगर हाँ तो, मुझे ईश्क हो खुदा.

धृतराष्ट्र : बहुत खूब.
संजय : यह औजार भी खूब है, रविजी बता रहे है हिन्दी लिखने के नए साधन ‘राइट क’ के बारे में.
अब आप छायाचित्रकार की तस्वीर को देखते हुए कोफी का आनन्द लें, मैं होता हूँ लोग-आउट.

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2 टिप्‍पणियां:

  1. चलिये, यह भी अच्छा करते हैं कि बीच बीच में आ जाते हैं, वरना तो धृतराष्ट्र तो भूल ही जायें कि कोई चिट्ठाजगत भी है. :)

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  2. इस अंदाज पर भी मैं फिदा हूँ…।

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