बुधवार, मार्च 07, 2007

कौन रहे नारद पर?

यह भी खूब रही. संजय भाई सुबह सुबह उठे. अपना धनुष उठाये. तरकश कंधे पर लादे. मचान पर चढ़े और दागे धमाक से विचार बाण (अग्नि बाण टाईप): कौन रहे नारद पर? (यह मात्र एक विचार है न कि निर्णय, जो कि अंत में लगे प्रश्न चिन्ह से साफ जाहिर है) , अब विचार का बहाव देखें:


हम सब ने नारद के लिए एक आचारसंहिता तय की थी. कोई भी ऐसा चिट्ठा जो देशद्रोही, साम्प्रदायीक, कामुक, विभस्त लेख छापेगा उसे नारद से हटा दिया जाएगा.
भूतकाल में सेक्स व टोने-टोटको वाले चिट्ठो को नारद से हटा दिया गया था. वहीं लोकमंच को अन्य कारण से अलग श्रेणी में डाला गया है.
मोहल्ला नामक चिट्ठा उद्देश्यपूर्ण तरीके से साम्प्रदायिकता फैलाने की कोशिश कर रहा है. हमारे लिए सभी धर्म समान है. फिर चाहे वह इस्लाम हो या हिन्दू, मगर मोहल्ला पर लगातार हिन्दू विरोधी लेख या शेरो-शायरी छापे जा रहे है. अतः मैं इसे नारद से हटा देने का अनुरोध करता हूँ.
यही बात सार्वजनिक मंच की जगह पिछले दरवाजे से भी कही जा सकती थी. मगर मुझे वह पसन्द नहीं.


यह उदगार यहाँ पुनः इसलिये जाहिर किये जा रहे हैं ताकि आप यह जान लें कि संजय भाई यह विचार पिछले दरवाजे से भी कह सकते थे. मगर वह इन्हें पसन्द नहीं. सो तो हमारे टुन्नू भी देख आये थे इनके ब्लाग की टैग लाईन "संजय बेंगाणी द्वारा कम शब्दों में खरी-खरी बात" .

खैर, खेल शुरु हुआ. हम तो सुबह सुबह ही पढ़ लिये और आदतन चुप चुपाये बैठे रहे, मानो पढ़े ही न हों. मगर बार बार जा जाकर देखते रहे कि क्या चल रहा है. और ऐसा करने वाले हम अकेले नहीं थे. हमारे प्रिय मित्र अविनाश (मोहल्ला वाले) भी यही कर रहे थे. पूरे १६ लोगों का मत पढ़ते रहे, तब जाकर बोले . हम अब भी चुपाये रहे. हम में संयम ज्यादा कहलाया, क्यूँ अविनाश भाई!!

अब संजय सुबह जागेंगे, तब नया अध्याय शुरू होगा. हम आते जाते रहेंगे और जतायेंगे यूँ कि जैसे आये ही न हो. और भी बहुतेरे ऐसे हैं, हम सबको जानते हैं मगर नाम न लेंगे.

तब तक बीच में हमार जगदीश भाई, सीधे साधे प्राणी, राजनिती की कौनो समझ ही नाही, ऐसा कुछ कह गये कि उनके कहे से ज्यादा तो उन्हें समझाने को कहना पड़ा. एक लाईन पर ऐसा माहौल कि पूरा मोहल्ला सर पर उठा लिया.

अच्छा, विवाद की बात चली है तो एक और सही, यह देखो: हंगामा खड़ा करना मकसद नहीं था मगर, खड़ा तो हो ही गया. यह सोच पोस्ट करने के पहले की है जो आपको बाद मे आई.

हँगामा तो प्रमेन्द्र भी नहीं चाहते थे मगर निलिमा के चक्कर में अटक गये और बता बैठे कि उम्र की अन दराजी में इस टाईप की हरकत हो जाती है.

उसी तरीके का मगर चिट्ठाकरों के नाम खुला पत्र मेरे प्रिय शशि सिंग भाई का:

चिट्ठाजगत को लोकमंच की खुली चिट्ठी पोस्ट किये हैं.

और देबू भाई जो पोस्ट किये हैंउस पर तो दंगा तय है ऊ ईश कृपा, जब तक कि सामने वाला धुरविरोधी अपना स्वभाव बदल भक्तिभाव में विरोध करना ही बंद कर दे.काफी तो आपके लिखने के बाद पोस्ट से मिटा ही दिया है.अब शायद पूरी पोस्ट हटा लें, तो न रहेगा बांस और न रहेगी आपकी बांसूरी.

आज न जाने क्यूँ, दुशयन्त कुमार की पंक्तियां याद आ रही हैं:



कभी बस्तियाँ दिल की यूँ भी बसीं
दुकानें खुलीं, कारख़ाने लगे

वहीं ज़र्द पत्तों का कालीन है
गुलों के जहाँ शामियाने लगे....


अब सच मे, शब्द नहीं बंध रहे हैं. बाकि तो नारद बता ही रहा है. बाकी मुझे मालूम है कि मैने सबको छोड़ दिया है फुरसतिया जी के अनोखे अंदाज के लिये लगातार दो दिन लिखने के बाद!! अब सब कहो, हा हा.....मतलब टिप्पणी करके कहो..कि गुरु, सही कहे हो!! :) तब हामरे फुरसतिया सही अंदाज में कहेंगे!!

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3 टिप्‍पणियां:

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