गुरुवार, दिसंबर 04, 2008

निर्लज्ज तीन बार हंसाता है....

पिछले कई दिनों से मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों पर ही चिट्ठाकारों का ध्यान केंद्रित रहा. कभी राजनीतिज्ञ, कभी मीडिया तो कभी पकिस्तान हम चिट्ठाकारों के कोपभाजन बने. देश के लिए शहीद हुए पुलिस के अफसर और सेना के जवानों को श्रद्धांजलि दी गई. मोमबती जलाने वालों के ख़िलाफ़ और समर्थन में पोस्ट लिखी गईं.

अब धीरे-धीरे बात आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए कसम च शपथ लेने तक आ पहुँची है. साथ ही समय वैचारिक मतभेदों के ऊपर आने का भी है.

सतीश सक्शेना जी ने पोस्ट लिखी थी, "मय्यत में कन्धा देने को अब्बू तक पास न आयेंगे". इस लेख के जवाब में प्रतिक्रियाएं आई थीं. इन प्रतिक्रियाओं में से कुछ नफ़रत से भरी थीं. वैसे तो सतीश जी उनको प्रकाशित नहीं किया लेकिन उन प्रतिक्रियाओं ने उन्हें जवाब देने पर मजबूर किया.

मजबूरी में उन्होंने जवाब भी लिखा. इन प्रतिक्रियाओं में से एक प्रतिक्रिया उनके पुत्र की उम्र के एक नवजवान की है जिसकी लेखन शैली सतीश जी को बहुत पसंद है.

जवाब देने के बारे में उन्होंने स्पष्टीकरण देते हुए लिखा;

"आप प्रतिक्रियाएं अगर ध्यान से देखें तो इस देश के मुस्लिम बच्चों ने मेरी कभी तारीफ़ नहीं की जिससे मैं उत्साहित होकर यह लेख लिख रहा हूँ !"


वैसे तो उत्साह की जड़ ज्यादातर तारीफ ही होती है. लेकिन सतीश जी के केस में ऐसा नहीं है. उन्होंने ये लेख लिखा क्योंकि उनका मानना है कि;

"यह लेख इस समय की पुकार हैं, और जो मैं समाज को समझाना (सर्व धर्म सद्भाव ) चाहता हूँ, उसी की सफलता में देश की नयी पीढी और आपकी अगली पीढी का स्वर्णिम भविष्य सुनिश्चित होगा !"


सतीश जी का स्पष्टीकरण और आगे बढ़ता है. वे लिखते हैं;

"उग्रवादियों के बारे में मेरी कोई सहानुभूति नही है, यह एक देश के प्रति, नफरत में अंधे पथभ्रष्ट नवयुवक हैं, जिन्होंने कुछ अच्छे वक्ता एवं तथाकथित धर्मगुरुओं का अँधा आदेश मानते हुए निर्दोष बच्चों, स्त्रियों वृद्धों के खिलाफ महज इसलिए हथियार उठा लिए क्योंकि उनके दिलोदिमाग में नफरत और सिर्फ़ नफरत भरी गयी है,"

उनका मानना है कि;

"इनके तथाकथित आकाओं का प्रभामंडल व व्यक्तित्व इतना शक्तिशाली था कि इन युवकों में अपना स्वर्णिम भविष्य तथा अच्छा सोचने समझने की शक्ति आदि सब नष्ट हो गयी !"

अपने प्रभामंडल और व्यक्तित्व को शक्तिशाली बनाने के लिए आकाओं का काफी समय और ज्ञान के साथ-साथ पैसा खर्च होता होगा. शायद इसीलिए उनके चक्कर में इन युवकों की सोचने समझने की शक्ति नष्ट हो जाती होगी.

सतीश जी का लेख स्पष्टीकरण से ही ख़त्म होता है;अपने कार्य को वे भारत माँ की सबसे बड़ी इच्छा बताते हुए वे लिखते हैं;

"क्योंकि मैं बहुमत से सम्बंधित हूँ और अल्पमत के लिए आवाज़ उठाना और उनको अपने समाज के दिल में जगह दिलाने का प्रयत्न करना ही मैं भारत माँ की सबसे बड़ी इच्छा मानता हूँ सो नफरत फैलाने वाले अपनी दूकान चलायें मैं प्यार बांटूंगा देखता हूँ कौन शक्तिशाली है ? नफरत या प्यार ?"

उनके इस लेख पर दिनेश राय द्विवेदी जी ने उन्हें बधाई दी. सतीश जी को धारा के विपरीत बहने वाला बताते हुए द्विवेदी जी ने लिखा;

"बधाई सतीश जी, आप के इस लेखन के लिए. धारा के विपरीत बहने वाले साहसी होते हैं. वही समय पर राह भी दिखाते हैं."

मुंबई में हुई आतंकवादी घटनाओं की वजह से बहुत कुछ नया देखने को मिला. देशवासियों का गुस्सा इस बार पहले से बहुत ज्यादा दिखा. लेकिन हिमांशु पाण्डेय जी को इस घटना के बाद पता चला कि;

"निर्लज्ज भी कैसे हास्य के आलंबन हो जाते हैं ?"


हिमांशु जी के अनुसार;

"सुना तो गोपियों के लिए था कि वे लज्जित हो ठिठक जाती हैं और हम हंसने लगते हैं क्योंकि कपड़े तट पर छोड़ कर आने की जड़ता लज्जा में बदल गयी थी,..."


वे आगे लिखते हैं;

"जिस लज्जा से जड़ता का प्रायश्चित हो जाता है यदि उसका अनुभव हो जाय तो ठीक; यदि न होती हो तो हम इसलिए हंसते हैं कि जड़ता दूनी गहरी है. चलिए एक उपाधि इन्हें दे देते हैं - 'निर्लज्जानन्द'."

वैसे उन्हें निर्लज्जों के आनंद से ईर्ष्या भी होती है. वे लिखते हैं;

"निर्लज्ज का आनंद भी कितनी ईर्ष्या की चीज है. अभी तक यही सुन रखा था कि मूर्ख तीन बार हंसते हैं , पर अब उसमें जोड़ना पडेगा कि निर्लज्ज तीन बार हंसाते "

शास्त्री जी को हिमांशु जी के इस आलेख का शीर्षक देखकर ही मज़ा आ गया. शीर्षक देखने के बाद जब उन्होंने लेख पढ़ा तो उनका मज़ा और बढ़ गया. उन्होंने अपनी टिपण्णी में लिखा;

"प्रिय हिमांशु,
आलेख का शीर्षक देख कर ही मजा आ गया.
इन दिनों की घटनाओं के कारण मजूमन कुछ दिखने भी लगा.पढ कर और मजा आ गया.
बहुत सशक्त शब्दों में तुम ने अपनी बात रख दी है.लिखते रहो !!
सस्नेह -- शास्त्री"

जहाँ हिमांशु जी निर्लाज्जानंद की बात करते हैं वहीँ डॉक्टर अनुराग एक आम आदमी की बात करते हुए लिखते हैं;

"वो नही जानता की हवलदार गजेंद्र सिंह दिखने में कैसा था .....वो कभी ताज नही... उसकी हैसियत नही थी पर उसे वो इमारत बहुत अच्छी लगती है .....वो मुंबई की उस रैली में भी नही जा पाया ....किसी शहीद की अन्तिम यात्रा में शामिल नही हो पाया ......... उसके मन में बहुत कुछ है ..बहुत कुछ......"

इस आम आदमी के मनोभावों का जिक्र करते हुए वे लिखते हैं;

"उसके मन में बहुत कुछ है ..बहुत कुछ......स्टेशन आ रहा है...उसका दफ्तर भी...... २ साल के उस नन्हे बच्चे की .तस्वीर उसे अपने बेटे सी लगती है ...अखबार को मोड़कर वो अपने हाथ के ब्रीफकेस में फंसाता है अपनी आँखों को टटोलता है... भीड़ में उतरने की कवायद शुरू हो गयी है ...उसके ब्रीफकेस से .अखबार की हेडलाइन चमकती है " मुंबई स्प्रिट"

आम आदमी के साथ जो कुछ भी हो रहा है उसे प्रत्यक्षा जी आज के समय की देन नहीं मानती. अनुराग जी की इस पोस्ट पर टिपण्णी करते हुए प्रत्यक्षा जी ने लिखा;

"ये सब किसी आदिम समय की देन है .."

इंसान को बदल देता है. कुश को भी बदल दिया. वैसे तो कुश पहले काफ़ी पिलाते हुए लोगों से मिलवाते थे लेकिन आज उन्होंने बिना काफ़ी पिलाए ही चार लोगों से मिलवा दिया.

ये चार लोग हैं; बरसाती मेंढक, चश्माधारी, आंख का अँधा और भोंपू.


इन चारों से मिलवाने से पहले कुश ने अपनी पोस्ट की शुरुआत बड़े अजीब तरीके से की. उन्होंने लिखा;

"वक़्त पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है.. ये तो सुना था.. लेकिन बेवक़्त कोई गधा ही किसी को अपना बेटा बना ले ये कभी ना देखा ना सुना..."

पढ़कर मुझे फिल्में याद आ गई जिनमें फ़िल्म की शुरुआत से पहले परदे पर आवाज़ आती थी;

मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है
वही होता है जो मंज़ूर-ए-खुदा होता है

उनकी इस पोस्ट पर लिखी हुईं आगे की पंक्तियाँ भी फिल्मों से ही प्रेरित लगीं. उन्होंने उपरोक्त पंक्तियों के बारे में स्पष्टीकरण टाइप दिया. उन्होंने लिखा;

"खैर उपरोक्त पंक्तियो का मेरे इस लेख से कोई लेना देना नही.. किसी घटना, पात्र अथवा जीवित मृत, या शरीर से जीवित और आत्मा से मृत व्यक्ति से भी इसका कोई संबंध नही है.."

ये पढने के बाद जेहन में ये एहसास जम गया कि हम कोई पोस्ट नहीं बल्कि एक फ़िल्म देखने वाले हैं... कुश के ऊपर फिल्मों का असर साफ़ दिखाई दे रहा है. इस असर का कारण शायद उनकी फ़िल्म ब्लागीवुड की शोले है.

खैर, अपनी पोस्ट में बरसाती मेढक के गुणों का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं;

"पर अब ये आएँगे और समझाएँगे की आतंकवादी का कोई धर्म नही होता कोई मज़हब नहीं होता... अरे भईया तो किसने कहा की धर्म या मज़हब होता है, हमे तो पता ही नही चलता अगर आप नही बताते तो..."

आँख के अंधे के गुणों का उल्लेख करते हुए कुश लिखते हैं;

"ये धरती पर ग़लती से आए वो बेचारे है जिनकी आँखे तो है पर वो देख नही सकते.."

कुश का मानना है कि आँख के अंधे ही मान सकते हैं कि;

"आतंकवादी मासूम है.. उन्हे गुमराह किया गया है.."


चश्माधारी के बारे में बताते हुए कुश लिखते हैं;

"इनके पास एक चश्मा होता है ये सबको उसी चश्मे से देखते है.."

आर्थिक विकास के इस दौर में चश्माधारी केवल एक चश्मा रखता है. शायद ग्लोबलाइजेशन से ख़ुद को दूर रखता है. ऐसा केवल 'चश्माधारी' ही कर सकता है.

चौथे व्यक्ति, भोंपू का परिचय देते हुए कुश बताते हैं;

"चुनाव में काम आने वाला भोंपु - जो सिर्फ़ बोलता है सुनता नही है.."


भोंपू के बारे बताते हुए वे आगे लिखते हैं;

"भोंपु ऐसे होते है जो सिर्फ़ सुनाने का काम करते है.. सुनते नही है. ये वही बात सुनाते है जो इनको सुनानी हो.. इनके खुद के कान नही होते.. पर यदि ग़लती से आप ये समझ ले की चलो कोई बात नही कान नही है पर दिल तो होगा बात समझ तो सकते है.. और
बात को इन्हे बताने गये तो ये आपकी बात ही अनसुनी कर देंगे.."

इतना लिखने के बाद कुश को लगा कि भोंपू के बारे में उदाहरण अगर ब्लागजगत से दिया जाय तो पाठकों का भला होगा. इसलिए उन्होंने लिखा;

"जैसे आपने किसी ब्लॉग पर कुछ पढ़ा और आपने कमेन्ट किया तो ये भोंपु देखेंगे यदि आपका कमेंट इनकी विचारधारा से मेल ख़ाता नही होगा तो ये उसे दबा देंगे.. क्योकि
ये नही चाहते की इनकी पॉल दूसरो के सामने खुल जाए.."

इन चारों से मिलवाने के बाद कुश ने ख़ुद को मिलवाया. अपने बारे में उन्होंने लिखा;

"मैं न हिंदू हु न मुस्लिम, मैं एक भारतीय हु और यही मेरा धर्म है, "

कुश की इस पोस्ट को पढ़कर पर ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने अपनी टिपण्णी में लिखा;

"हम तो आजकल वन इन फोर देख रहे हैं। फीड एग्रेगेटर पर जाइये और आप भी उनके
लिंक खोजिये! :-)"

मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले की वजह से दिनेश राय द्विवेदी जी ने एक कविता लिखी थी. "यह शोक का वक्त नहीं क्योंकि हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं," नामक कविता में द्विवेदी जी ने लिखा;

इसे कविता न समझें
यह कविता नहीं,
बयान है युद्ध की घोषणा का
युद्ध में कविता नहीं होती

पाठकों से अपील करते हुए द्विवेदी जी अपनी कविता के अंत में लिखते हैं;

चिपकाया जाय इसे
हर चौराहा, नुक्कड़ पर
मोहल्ला और खंबे पर
हर ब्लॉग पर
हर एक ब्लॉग पर

अपनी इस कविता के बारे में लिखते हुए वे कहते हैं;

"आज इसी तथ्य और भावना के तहत आज तक, टीवी टुडे, इन्डिया टुडे ग्रुप के सभी कर्मचारियों ने एक शपथ लेते हुए आतंकवाद पर विजय तक युद्ध रत रहने की शपथ ली है. आप भी लें यह शपथ!"


वे चाहते हैं कि चिट्ठाकार भी टीवी टूडे के कर्मचारियों की तरह से शपथ लें. शपथ लेते हुए द्विवेदी जी ने बता दिया है कि;

हम ये जंग ज़रूर जीतेंगे.

उनके द्बारा सुझाया गया शपथ ढेर सारे चिट्ठाकारों ने लिया.

वैसे कविता जी ने शंका व्यक्त करते अपनी टिप्पणी में लिखा;

"चार दिन की चाँदनी न सिद्ध हो,ऐसी कामना है."

चलिए, कुछ एक लाईना हो जाए.

राजनीति की रिपोर्टिंग: कर रहे हैं रिपोर्टिंग की राजनीति करने वाले.

काश कि तुम मेरी सेवा में आ गए होते: तो थोड़ा मेवा तुम्हें भी मिलता.

आवाज़ दो हम एक हैं: आवाज़ दे देंगे, और कुछ मत माँगना.

यह हमारा प्रण है: तुम अपना बताओ.

इंतजार और सही: बनाते रहो खता-बही.

क्या नेपाली लड़कियों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है?: ये हम कैसे बताएं?

हिन्दुस्तान नहीं, मुंबई मेरी जान: और दिल्ली?

मुझे सैन्य शिक्षा चाहिए: आज दूकान बंद है.

एक और हल्की-फुल्की पोस्ट: चढ़ गई.

पीएम को पाती...आप भी कुछ जोडें:कैसे जोडें, फेवीकोल नहीं मिल रहा.

पॉँच हज़ार साल पुरानी साडी:शब्दों का सफर कर रही है.

कल अनूप जी ने चिट्ठाचर्चा में लिखा था कि आज चिट्ठाचर्चा मैं करूंगा. मेरी समस्या यह है कि मैं सुबह चर्चा नहीं कर पाता. इस देरी के लिए आपलोगों से क्षमा चाहता हूँ.

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17 टिप्‍पणियां:

  1. जो लोग ज्यादा नयी पीढी को नसीहत देते हैं की तुम ग़लत हो वो श्याद भारत के इतिहास को नहीं देखते । आज नयी पीढी जितने भी टेंशन उठा रही हैं उसकी जिमेदार एक लापरवाह पुरानी पीढी हैं । हम सब जिमेदार हैं इस आंतकवाद के क्युकी हम अपनी नयी पीढी को उनकी सोच को अपरिपक्व मानते हैं । हम आज भी एक ऐसा समाज चाहते हैं जहाँ हम अपने बच्चो को कठपुतली की तरह नचाए । क्या दिया हैं हमने नयी पीढी को डर , आंतकवाद और राजनीती ।

    अगर आज एक २६ साल का युवक/युवती कुछ कहता हैं तो वो अपना भोग हुआ सच कह रहा हैं । हम उस से कुछ सीख भी सकते हैं । लेकिन नहीं वो तो हमारा प्रतिस्पर्धी हैं उसकी बात हमारे लिये एक चुनौती हैं ।

    जब एक पिता की उम्र का व्यक्ति ये कहता हैं "देखता हूँ कौन शक्तिशाली है !" तो लगता हैं की वो होड़ कर रहा हैं ।
    समय हैं की हम अपनी नयी पीढी को सीखने की जगह साथ मिल कर उनसे उनके विचार पूछे और खुले मन से आंतंकवाद और हिंदू मुस्लिम इत्यादि विषयों पार बात करे । जब तक ये आक्रोश हैं नयी पीढी मे तभी तक हम सुरक्षित हैं वरना पुरानी पीढी तो केवल समझोते करती आयी हैं

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  2. कविता जी की शंका निर्मूल नहीं है। हम एक आतंकी घटना को कितने दिन याद रखते हैं और सतर्क रहते हैं? लेकिन आतंक से लगातार लड़ने की जरूरत है। इस के प्रति सतर्कता को जीवन में नियमित बनाने की जरूरत है। आतंकवाद के विरुद्ध क्या क्या सतर्कताएँ आम आदमी को दैनिक जीवन में बरतनी चाहिए, उन्हें चीन्हने की जरूरत है और संचार माध्यमों से उन के प्रचार की भी आवश्यकता है।

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  3. सतीश जी को कमेण्ट पब्लिश न करने का पूरा अधिकार है। लेकिन मेरे विचार से अगर वे उनपर कुछ कहना चाहते हैं तो वे कमेण्ट बताने चाहियें - अगर वे अश्लील नहीं हैं तो।
    और अगर अश्लील हैं तो चर्चा के योग्य ही नहीं हैं।
    तुष्टीकरण ऐसा विषय है जो चरम प्रशंसा या नितान्त नफरत की प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकता है। उसकी तैयारी तो पोस्ट लिखते समय ही हो जानी चाहिये! :-)

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  4. कुश ने जिन चश्माधारियों का उल्लेख किया है, सबसे ज्यादा खतरा उन्ही से है इस देश को. कई बार सैकड़ों बार कहा जाने वाला झूठ,सच मालूम पड़ने लगता है.

    आप ने मेरी प्रविष्टि को इस चर्चा में शामिल किया, इसके लिए धन्यवाद.

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  5. देर से सही, पर... सही चर्चा ! पर, अपनी पोस्ट का उल्लेख नहीं किया, वह क्या चर्चा योग्य नहीं है ?

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  6. @ डा. अमर कुमार

    सर, आपकी पोस्ट मैं नहीं देख सका. कल शाम से जितनी पोस्ट आयी थीं, उनमें मुझे आपकी पोस्ट दिखाई नहीं दी.

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  7. कसम च शपथ का दौर अभी जारी ही रहेगा!!!

    जानकारी परक व रोचक चर्चा!!!!

    सतीश जी !! की पोस्ट पर चर्चा और मंथन आगे भी चलते रहना चाहिए!!!

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  8. नहीं.. मित्र, मैं अपनी किसी पोस्ट के पोस्टमार्टम की बात नहीं कर रहा ! आज सुबह ही अपने मेल इनबाक्स में " अढतालीस सौ का फायदा देखिये न आप.... दो सौ का नुक्शान क्यों देखते हैं ?" पढ़ा, शायद उसी रौ में लिख गया ! आपका स्थायी ग्राहक हूँ, भाई !
    मेरा पोस्ट तो तीन बजे सुबह सेंध लगाता है, कल देख लीजियेगा !


    पुनःश्च - मुझे पैर तक सीमित रखें, मैं सर कहे जाने का आदी नहीं हूँ, फिर भी मान का यह पान ग्राह्य है !

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  9. सार्थक चर्चा के लिए आपको साधुवाद।

    आतंक की मीडियाबाजी के ठंडा पड़ते ही हम सब भी अपने-अपने कामों(?)बल्कि रास-रंग में पूर्ववत् लग जाएँगे, यह दुराशा व संभाव्यता पक्की है। नई व कालातिक्रमी कुछ पहलों का प्रस्ताव गत ४-६ दिन से http://hindibharat.blogspot.com/ प्रस्तुत किए जा रहे हैं, आज तो ‘भारत सेवा दल’ का पूरा संविधान व नियमावली तक (२१ पन्ने की सामग्री) प्रस्तुत की गई है। इसमें सभी को अपना समर्थन व्यक्त करते हुए जुड़ना चाहिए व अधिकाधिक प्रचार भी उसका करना चाहिए।

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  10. सार्थक चर्चा के लिए मेरा भी साधुवाद स्वीकार करे ....देश इस वक़्त जिस तरह के माहोल से गुजर रहा है ,मन अजीब सा हो रहा है....कविता जी ठीक कहती है वक़्त के साथ हम सब भी इस हादसे को भूलने लगेगे .ब्लॉग जगत में भी ऐसा प्रतीत होने लगा है...जीवन की आपाधापी में अभी ऐसी की एक कविता तनुश्री जी ने लिखी है......शायद ये दुखद हादसा हम सब के अन्तामन को एक बार फ़िर जिंदा करे .....ओर हम सब आत्मकेंद्रित न होकर इस देश ओर समाज के लिए भी निरंतरता से अपनी इसी उर्जा से सोचे ......

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  11. अब हम आतंक की बात छोड कर अन्य विषयों पर चर्चा कर रहे हैं। यही प्रमाण है कि आदमी किसी भी घटना से उबर कर आगे बढता है। इसे एक ईश्वरीय देन ही कहा जाएगा कि हम भुल जाते हैं वर्ना यदि हर घटना याद रही तो आदमी पागल हो जाय।
    >रचनाजी ने जो बात उठाई है उसे ही तो जनरेशन गैप कहते हैं।

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  12. विषय प्रधान उत्तम चर्चा का धन्यवाद। मात्र ‘लिंक-सूची’ देने के बजाय आपने कुछ चुनिन्दा झलकियाँ देकर इसे अधिक पठनीय बना दिया। चर्चा तो इसी को कहेंगे। अलग-अलग लोगों ने इस काम को बाँटकर इसमें अलग-अलग रंग भर दिया है। यह बहुत अच्छा हो रहा है। सबको बधाई।

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  13. सार्थक और विस्तृत चर्चा के लिए शुक्रिया । आप देऱ से लिख पाते हैं और हम देर रात ही देख पाते हैं।
    चिट्ठाचर्चा का गेटअप भी शानदार लग रहा है। किसे धन्यवाद दें ?

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  14. अच्छा है। कल देखे आज टिपिया रहे हैं। हर जगह देर से पहुंचने की आदत बन गयी है। :)

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  15. अन्य कि तुलना में कम पोस्टों कि चर्चा हुयी मगर जिसकी भी हुयी उसका पोस्टमार्टम हो गया..
    बहुत बढिया सर.. :)

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  16. चर्चाकारो को जो ज़िम्मेदारी दी गयी है उसका बखूबी निर्वाह होते देखकर खुशी होती है.. जो सोच कर एक पाठक चिट्ठा चर्चा पर आता है उसे यदि वो मिले तो मैं उसे सार्थक चर्चा कहूँगा.. मेरे विषय में तो आज ऐसा ही है..

    रचना जी ने बिल्कुल ठीक कहा है.. नयी पीढ़ी की समझदारी की तुलना उनकी उम्र से नही की जा सकती.. नाज़ुक विषयो पर उनके साथ यदि बात की जाए तभी समस्या का उचित समाधान मिल सकता है.. पुरानी पीढ़ी का अनुभव और नयी पीढ़ी का जोश यदि एक हो जाए तभी क्रांति आ सकती है..

    पांडे जी से भी सहमत हू यदि सतीश जी के ब्लॉग पर आई टिप्‍पणी अश्लील नही है तो उन्हे अवश्य प्रकाशित करनी चाहिए.. परंतु केवल विचारधारा से मेल खाती टिप्‍पणी प्रकाशित नही करना तो ठीक नही है..

    बाकी शिव कुमार जी को बधाई.. उनकी इस चर्चा के लिए

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  17. एक स्कूल में एक बच्चा कई सालो से पढ़ रहा था सुबह स्कूल जाता दोस्तों के साथ खेलता वापस आ जाता सब कुछ ठीक था एक दिन देश के दूसरे हिस्से में सवर्णों ने दलितों के घर में आग लगा दी ,स्कूल चल रहा था क्लास भी सतीश अंकल ने वहां पहुंचकर उस बच्चे को गोद में उठा लिया ओर जोर जोर से चिल्लाने लगे "कोई इस बच्चे को परेशान नही करेगा ,कोई इसके साथ ग़लत व्यवहार नही करेगा ये दलित है तो क्या हुआ मै इसके साथ हूँ .तुम इसे परेशान करते हो मै इसके साथ हूँ उस दोपहर जब सतीश अंकल अपने प्यार की दूकान दूसरे स्कूल में बांटने चले गये,उसके बाद कोई बच्चा उस बच्चे के साथ नही खेला
    पता नही सतीश अंकल को कोई नही समझता ?इस कलियुग में देवता की कद्र किसे है ?आप लगे रहिये सतीश अंकल

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