- BLUCK TIGER :देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
- Life through my eyes... : शीना
- जयहिन्द लगे रहो
- कोशी कथा विवेक कुमार के माध्यम से
- महाशक्ति :ये भी नये हैं का?
- गुपचुप: रोशनाई की
- ज़िन्दगी 'Live' (जीने का फ़लसफा) हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका: Live नहीं बाबा Life
- All about Knowledge, Information, Fun, and much more
:अभिषेक जैन - हिंदी साहित्य: बजरिये भाष्कर रोशन
- अर्ज है:अबयज खान
आज दस चिट्ठे नये जुड़े। मजे की बात कि इसमें प्रमेन्द्र का नाम भी है जो काफ़ी दिन से सक्रिय हैं और कहते हैं-खेल खेल में एक साईट बनाई, काफी दिनों बाद पता चला कि उसे ब्लाग कहते है, और उसके बाद किसी ने बताया कि मै चिट्ठाकार बन गया हूँ।
प्रेमन्द्र से मुलाकात करते हुये हिंदी के आदि चिट्ठाकार अमरूद खाते हुये वापस हुये और लेटलतीफ़ी पर चिंतन करते हुये
दस साल बाद इलाहाबाद जा के मज़ा आया। आशा है अगला सफ़र जल्द हो। लेकिन इस लेट लतीफ़ ऊँचाहार एक्स्प्रेस से नहीं। लेट लतीफ़ शब्द की उत्पत्ति के बारे में सोच रहा था, कि लेट शब्द का जन्म होने/उसके स्वीकार्य होने से पहले लेट लतीफ़ों को क्या कहा जाता था? पर शायद कुछ नहीं, समय से आना एक पाश्चात्य, पूँजीवादी गुण है। क्या विचार है आपका इस बारे में?
आपको हिदी में शब्द लपेटने में समस्या होती है तो आप शब्द भंजन कोश की शरण में जाइये।
अबयज खान के अनुसार
वक्त के साथ बहुत कुछ बदल रहा है। अब लड़कियों को ऐसा वर चाहिए जो ''सुंदर, सुशील, और गृहकार्य में दक्ष होना चाहिए''।
चंद्रभूषण बहुत दिन बाद दिखे हैं अपने लिखे के साथ। वे एक लेखक की समस्या से रूबरू करा रहे हैं कि वह अपनी कविताओं को समर्पित किसे करे? लेखक कहता है अपनी दिवंगता पत्नी के नाम करना चाहता है। इस पर चंदू अपना मत रखते हैं-
पत्नी के नाम समर्पण को लेकर मेरा इंस्टैंट रिएक्शन यही था कि ऐसा बिल्कुल मत कीजिए। वजह यह कि कविता की नई ऊर्जा आपमें पत्नी के बजाय कुछ दूसरी जगहों से आई है। किसी और लड़की के प्रति प्रेम को पत्नी की आड़ देना खुजली पैदा करने वाली चीज है। खास कर तब तो और भी जब पत्नी अब इस दुनिया में न हों। प्रकटतः मैंने यही कहा कि संकलन को अगर बाबाजी की पेटी बनाना है तो जरूर इसे पत्नी के नाम समर्पित करें, वरना बिना समर्पण के ही किताब जाने दें।
एक लड़का अपनी प्रेमिका से क्या चाहता है यह अगर आप जानना चाहते हैं तो आप आदर्श राठौर को पढ़ें।
बुश को ईराकी पत्रकार ने जूते मारने का प्रयास किया। दुनिया भर में इसके चर्चा हो रहे हैं। इंटरनेट पर एक खेल भी बन गया। शिवकुमार मिश्र ने इस मुद्दे पर दुनिया भर के तमाम भूतपूर्व और अभूतपूर्व लोगों के बयान जारी किये हैं। ब्लागर उवाच भी हैं। देखिये
इस पर ब्लागरों की प्रतिक्रियायें भी हैं। प्रमोद जी कहते हैं:
एनीवे, ऑल दिस शोज़ व्हाट अ पैथेटिक स्टेट हिन्दी ब्लॉगिंग इज़ स्टिल ए पार्ट ऑफ़.. अपने को रिपीट करने के ख़तरे के बावज़ूद कहने से बच नहीं पा रहा कि हद है.
सुमन्त जी का इस मसले पर कहना है-
ज़ार्ज बुश द्वारा जो कुछ किया गया उसको मुशकिल से ही जायज ठहराया जा सकता है लेकिन जैदी द्वारा की गई हरकत पर मज़ा आनें की बात भी कम ही समझ आती है।
सामान्य व्यक्ति से ऎसी प्रतिक्रियाओं को समझा जा सकता है किन्तु कल रात एन०डी०टी०वी पर इस समाचार को दिखाते हुए वरिष्ठ पत्रकार? और उदघोषक विनोद दुआ की टिप्पड़ीं थी‘हिन्दुस्तान की जनता आज मोमबत्ती लेकर चल रही है अगर कल हाथ में जूता लेकर निकल पड़ी तो?’जैदी और दुआ की मानसिकता में मूलतः क्या अन्तर है?क्या इसे हम सभ्य समाज के निर्माण के लिए आवश्यक कारक तत्व मान सकते हैं?
इस जूते बाजी के लिये क्या जूते के साम्यवादी चरित्र का भी कुछ योगदान है?
समीरलाल अपने मायके जबलपुर में समधी बनने का रिहर्शल करने में जुटे हुये हैं। खबर पहुंचा रहे हैं आपके ताऊ। लेकिन द्विवेदी इस सबसे बेखबर अब्दुल करीम तेलगी द घोटाला किंग को खोज रहे हैं।
कल ज्ञानजी ने शास्त्रीजी से सवाल पूछा था या कहें कि उनको बताया था-
यह तो आपने हास्य के रूप में लिखा है। पर मैं - जो गांव के देसी स्कूल से चला, यह आज भी महसूस करता हूं, कि जिन्दगी की दौड़ का इनीशियल एडवाण्टेज तो नहीं ही मिला था हमें।
यह सूचना शास्त्रीजी के दो लेखों का कारण बनी। पहले भी ज्ञानजी इस बात की तरफ़ इशारा कर चुके हैं कि उनके शुरुआती दिनों में उनको अच्छी शुरुआत का फ़ायदा नहीं मिला।
शायद अपने बचपन में चमक-दमक वाले स्कूलों से वंचित रह गये ज्ञानजी को इसका तगड़ा अफ़सोस है। अब इसका क्या कहें? गोर्की जैसे लोग अपने बचपन के अभावों को अपने विश्वविद्यालय के रूप में रेखांकित करते हैं और ज्ञानजी इसी को इनीशियल एडवाण्टेज न मिलने के रूप में देखते हैं।
वैसे मुझे लगता है कि इनीशियल एडवांण्टेज की बात छोटी दूरी की दौड़ में लागू होती है। चार सौ मीटर की दौड़ में मिल्खा सिंह का ध्यान इधर-उधर हो गया था उसके लिये आज तक अफ़सोस होता है। लेकिन लंबी दूरी के धावक प्रारंभिक फ़ायदे के लिये रोये तब तो हो चुका। अपने देश और दुनिया के तीन चौथाई महापुरुष तो बिना किसी इनीशियल एडवांटेज के शुरू हुये और दुनिया हिला के रख दी।
ज्ञानजी तो देश की सबसे अच्छी नौकरियों में से एक को बजा रहे हैं। मुक्तिबोध जो अभावों में जिये और निपट गये उनको लगता था कि उन्होंने दिया कम लिया ज्यादा।
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया !!
ज्यादा लिया ,और दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश,अरे ,जीवित रह गये तुम!!
जीतेन्द्र चौधरी बुश को मिले आखिरी तोहफ़े की बात करते हुये और भी मसालेदार किस्से सुनाते हैं। आपके लिये उनके पास तोहफ़ा भी है:
मेरा पन्ना पर टिप्पणी करने वालों के लिए एक तोहफा। आप टिप्पणी करिए और अपने ब्लॉग का पता सही सही भरिए, हम आपके ब्लॉग की आखिरी पोस्ट का लिंक यहाँ दिखा देंगे। इससे आपके ब्लॉग को कुछ और पाठक मिलेंगे। है ना सही चीज? तो फिर देर किस बात की है, शुरु हो जाइए। आते रहिए और पढते रहिए, आपका पसन्दीदा ब्लॉग “मेरा पन्ना” ।
मुकेश कुमार तिवारी तार-तार सच बयान करते हैं:
हम,
लपेटते हैं तार-तार सच
और लपेटते ही चले जाते है
जिन्दगी भर
फिर एक दिन बदल जाते हैं
कुकून में
जब,
उनके हाथ चढते हैं तो
पहले उबाले जाते हैं
फिर नोचा जाता हैं सच
और बदल दिया जाता है रेशम में
सजने के लिये उनके बदन पर
एक लाइना
- ब्लागाचार्य के खडाऊं का उपयोग श्रेयस्कर रहता...:सत्यवचन बंधु! किंतु नवीन खड़ाऊं युग्म के लिये समुचित काष्टचयन की प्रक्रिया अभी पूर्ण नहीं हो पायी है
- पंगु बना दिया "अमर-अकबर-एंथोनी" की राजनीति ने : एक्कै सिनेमा में बोल गये बाजपेयीजी
- भूख का विकराल रुप : लास्ट सपर
- स्वर्ग में संवाददाता : कैमरामैन विवेक सिंह के साथ
- लाल कोट और लाल टोपी पहने,ये महाशय :आने वाले हैं
- दही बड़ा तो खाकर देख, खीर ले खीर ले बहुत टेस्टी बनी है : खाते हुये तमतमाना नहीं चाहिये, खाना जल जायेगा
- मजहब बदलो, या फिर देश :चुनाव आप स्वयं करें
- दाल खाने के लिये :कटोरा साथ में लेकर आयें
- पुरु, गोडसे और कसाब समान हैं?:अपना जबाब एस.एस.एस. करें ७६८९५.... पर
- प्यार इतना न दें: कि लफ़ड़ा हो जाये
- लड़की थी वह.. :जिसे कुतिया ने अपने स्तनों के सहारे उसे समेटा हुआ था जैसे उसे दूध पिला रही हो
- कहाँ है अब्दुल करीम तेलगी? उसे बुलाओ : हम उसका मुकदमा लड़ेंगे , बदले में टिकट लेंगे
- ठक ठक...कही भूत तो नही ....(भाग दो ): फ़िर गुणा करो
- असली लिपस्टिक, नकली नेता : लिपिस्टिक के साथ नेता मुफ़्त
- वो जो इस घर के लिये सारी जवानी दे गया: मुझ से लेकर मुझको ही मेरी कहानी दे गया
मेरी पसंद
“..ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया !!
उदरम्भरि अनात्म बन गये
भूतों की शादी में कनात से तन गये
किसी व्यभिचार के बन गये बिस्तर,
दु:खों के दागों को तमगों-सा पहना,
अपने ही ख्यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
जिन्दगी निष्किय बन गयी तलघर
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया !!
ज्यादा लिया ,और दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश,अरे ,जीवित रह गये तुम!!”
मुक्तिबोध
और अंत में
कल विवेक की चिट्ठाचर्चा काफ़ी पसंद की गयी। मजे आ गये।
कल रचनाजी को गिरिराज जोशी याद आये। कविवर गिरिराज ने समीरलाल के शिष्यत्व को स्वीकार करते हुये कवितागीरी बहुत की। पिछले दिनों उनकी बहन की शादी संपन्न हुई। काफ़ी दिन से गुरु-चेला दोनों अनुपस्थित हैं। कुछ दिन पहले तक वे घर जाते समय बताकर जाते थे। गिरिराज ने चर्चा में कविताओं पर खास ध्यान दिया था। उनसे अनुरोध है कि वे फ़िर से आयें और चर्चा का काम शुरू करें।
आज का दिन कुश की चर्चा का है। मैं उनकी तरफ़ से यह चर्चा का काम कर रहा हूं। पता नहीं बालक कब फ़िर से अपना काम करना शुरू करेगा। कुश का स्वभाव है कि वे हर काम नये और अनूठे तरीके से करते हैं। चाहे वह अपना ब्लाग हो, नेस्बी हो या फ़िर काफ़ी विद कुश। नयापन न होने से लगता है बालक का मन उचट जाता है। चर्चा भी हर बार लगभग अलग अंदाज में ही की। उनके चिट्ठाचर्चा से जुड़ने के बाद चर्चा के पाठक काफ़ी बढ़े। उनकी टिप्पणी चर्चा में कई विचारोत्तेजक टिप्पणियां भी आईं जिनसे पाठकों के रुख और हमसे उनकी अपेक्षाओं का अंदाजा लगता है।
चलिये बहुत हुआ। अब आप भी अपने काम से लगिये। कल मिलियेगा शिवकुमार मिश्रजी से। तब तक के लिये शुभकामनायें।
नीचे की तस्वीर लावण्याजी के ब्लाग से
अब तक क्या किया,
जवाब देंहटाएंजीवन क्या जिया !!
ज्यादा लिया ,और दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश,अरे ,जीवित रह गये तुम!!
बिल्कुल सही है -अपुन की भी तो पीडायही है भाई !
लाल कोट और लाल टोपी वाले महाशय की तस्वीर पसँद करने का शुक्रिया अनूप भाई :)
जवाब देंहटाएंऔर हमेशा की भाँति आज भी
काफी बृहद रही चिठ्ठा चर्चा ...
कैसे कर लेते हैँ इतना ?
आपकी जितनी प्रशँशा की जाये कम है!
...और हिन्दी चिठ्ठाकारी
हमेँ तो "पेथेटीक" नहीँ लगती ...
स्वतँत्र अभिव्यक्ति सी लगती है ..
जो चाहे लिखो ..
मालिक की मरजी !
- लावण्या
बढ़िया है.
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें
santa ki tasveer achchi lagi
जवाब देंहटाएंअब तक क्या किया,
जवाब देंहटाएंजीवन क्या जिया !!
ज्यादा लिया ,और दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश,अरे ,जीवित रह गये तुम!!
चर्चा बहुत अच्छी रही। पर तेलगी ने तो मुकदमा लड़ा ही नहीं। जज से पूछा मैं आरोप स्वीकार कर लूँ तो कितनी सजा मिलेगी? जज ने बताया नहीं। उस ने समय लिया और अगली तारीख पर जुर्म क़बूल कर लिया।
जवाब देंहटाएंअब सजा काट रहा है।
अपराध कर के स्वीकार करने की हिम्मत बहुत कम लोगों की होती है।
इस चर्चा के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंकाफी मसाला भर देते है आप.
क्या ऐसा नहीं लगता कि ब्लॉग जगत के महापुरुष ये 'इनीशियल एडवांटेज' प्रसंग छेड़ कर कुछ ज्यादा ही एडवांटेज लेने की जुगत कर रहे हैं ?
सही है - ये इनीशियल एडवांटेज तो नहीं पा सके पर ब्लॉग्गिंग का इमोशनल एडवांटेज तो ले ही रहे हैं .
इत्यलम .
बहुत लाजवाब एवं हमेशा की तरह फुरसतिया स्टाइल की शानदार चर्चा ! घणा आनंद आया !
जवाब देंहटाएंराम राम !
बहुत लाजवाब एवं हमेशा की तरह फुरसतिया स्टाइल की शानदार चर्चा ! घणा आनंद आया !
जवाब देंहटाएंराम राम !
बहुत बढ़िया ..
जवाब देंहटाएंकिसी भी वाद संवाद को अगर हम "पहलवानी और कुश्ती " इत्यादि का नाम देते हैं और उसको एक आम वार्तालाप
जवाब देंहटाएंहटा कर दो या तीन लोगो के बीच मे हो रहे "युद्ध" की तरह परिभाषित कर देते हैं तो चर्चा पे डिस्कशन को शुरू करने वाले और डिस्कशन को आगे ले जाने वाले दोनों को एक भ्रम होता हैं की शायद ये डिस्कशन कर के उन्होने ग़लत किया .
कुश की पोस्ट मे जिसका आप उलेख कर रहे हैं उसमे आए ये दो कमेन्ट पढ़ कर लगा की शायद लोग समझते हैं की डिस्कशन एक बेकार की प्रक्रिया हैं .
''ANYONAASTI '' said... @ December 13, 2008 2:09 PM मजा आगया , धीरू सिंह जी ने अच्छी फुलझरी छोड़ी ! लग रहा है हम सभी जवाबी कीर्तन/ कव्वाली जो रचना जी और कुश पहलवान के बीच होरही है
प्रवीण त्रिवेदी...प्राइमरी का मास्टर said... @ December 13, 2008 5:34 PM
भाई!!! अब बंद भी करो यह चर्चा और शुरू करो नई चिट्ठा चर्चा!!!
हिन्दी के ब्लॉगर तो बहुत हैं लेकिन ब्लॉग के चर्चाकार कितने हैं जो ब्लोगिंग पर सार्थक बहस करना चाहते हैं . मुझे तो हर जगह केवल बहस करने वालो के प्रति एक "हास्यापद " भावः का ही आभास होता हैं . ज्यादातर तो "क्या चर्चा हैं , क्या कविता हैं , क्या लिखा हैं और वाह वाह करके ही इती समझ लेते हैं . कुश ने अपने भावो को मुक्त भाव से व्यक्त किया और हर कमेन्ट का जवाब भी पॉइंट के हिसाब से दिया इसके लिये कुश की जितनी तारीफ की जाए कम हैं
आपकी चर्चा फ़ुरसत से पढना पड़ता है।दिन भर के लिये एनर्जी मिल जाती है।
जवाब देंहटाएंmast charcha chalti rehti hai yahan..
जवाब देंहटाएंsahi main maza aa jaata hai......phadne ke baad ek nayi taazgi ka ehsaas hota hai....
ओ मेरे आह्लादकारी मन,
जवाब देंहटाएंओ मेरे घनेर घोरपंथी मन,
ओ मेरे कमेंटधारी चितवन,
ओ मेरे चिलकित तिलकुट नयन..
जीवन क्या जिया,
मूंगफली कहंवा लिया,
टैक्स कहंवा दिया,
बस-टैक्सी टहलते रहे,
दिल्ली-देहरादून बहलते रहे,
मर गया देश, हम महकते रहे..
ओ मेरे विश्वासघाती मन,
ओ मेरे घनघोर घराती मन,
ओ मेरे चलित्रपापी मन,
ओ मेरे मोहल्लादार सकुराती जतन..
जीवन क्या जिया, अय-हय,
मुट्ठी में क्या लिया, मन को क्या दिया..
आदि-आदि, इत्यादि
जवाब देंहटाएंअच्छी याद दिलायी..
कुश.. कहाँ हो भाई कुश.. लौट कर आ जाओ भाई कुश !
कोई तुमको कुछ भी नहीं कहेगा..
रचना जी भी नहीं !
'मैं' गिनना छोड़कर जरा यहाँ उपस्थित ' हम ' को भी गिनों, भाई !
आज मैं लेट लतीफ हो गया- उस शब्द की उत्पत्ति के कारण नहीं बल्कि अंतरजाल से न कनेक्ट होने के कारण। उस शब्द की उत्पत्ति के पहले लॆट होने का सवाल ही नहीं था, क्योंकि समय की ही धारणा नहीं थी - तो लेट कैसे होते?
जवाब देंहटाएं>ज्ञानजी तो लम्बी रेस के घोडे हैं - इनिशियल डिसअड्वान्टेज की चिंता क्यों!
जिन लोगों को इनीशियल एडवाण्टेज नहीं मिला उन्हें अब कुछ क्षतिपूर्ति की जारही हो तो उनमें हमारा भी नाम लिखा जाय . भई हमने भी तो छटी कक्षा में जाकर A B C D सीखी थी :)
जवाब देंहटाएंरचना जी ने मेरे मुँह की बात छीन ली . दरअसल मैं भी इसी विचार वाला हूँ कि यहाँ पर वाह वाह से आगे बढा जाय . जैसे कल की चर्चा में मुझे अनुराग जी का सकारात्मक रुख विशेष प्रशंसनीय लगा . हालाँकि रचना जी का कल यह कहना कि टिप्पणी की जरूरत नहीं थी मेरी सोच के विपरीत था .
आज हमारी भी चर्चा हो गई और हम भी चर्चित चिट्ठाकार बन गये :)
जवाब देंहटाएंनये नवेले चिट्ठाकार के रूप में हमारा लिंक ठीक से नही लगा है। आपने आज चर्चा की बहुत अच्छा लगा।
ताकनीकि और मानवीय भूल के कारण इस ब्लाग लेख आ गया, सबसे ज्यादा अचरज यूँ हुआ कि मूल ब्लाग से ज्यादा टिप्पणी इस ब्लाग पर मिली।
ज्ञान जी ने "इनिशियल एडवंटेज" नाम से जिस चीज की चर्चा की है उसे वे ही लोग जानते हैं जिन को यह नहीं मिल पाया. बाकी लोगों के लिये यह सिर्फ अजूबा भर है -- खास कर जब वे देखते हैं कि इन चीजों के न मिलने के बावजूद 1950 की पीढी कहां पहुंच गई है.
जवाब देंहटाएंचर्चा के लिये आभार
सस्नेह -- शास्त्री
चिट्ठा चर्चा में 'अंधेर में' को पढ़ना अच्छा लगा...धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंचर्चा बहुत अच्छी रही!!!!
जवाब देंहटाएंहमेशा की भाँति बृहद रही चिठ्ठा चर्चा !!!!
भाई अनूप जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार
सार्थक चर्चा के
लिए लिए बधाई
आपका
विजय
जबलपुर