शनिवार, दिसंबर 13, 2008

तालेबंदी,गिरोहबंदी, मंदी और चतुर चतुरानन चोरों की चाँदी

" या निशा सर्वभूतानाम् तस्यां जागर्ति संयमी"




चर्चा के इस मंच पर घणा विमर्श चल रहा है, यह आत्ममन्थन, विवेचना और आत्मपरीक्षण का अवसर जैसा भी हो सकता है ब्लॉग जगत के व्यक्तित्व के लिए| ऐसी स्थितियाँ इतवारी गुफ्तगू के दिन से ऐसे बनीं कि अगले दिन व फिर उस से अगले भी, .... आज तक क्रम चला आ रहा है|

यद्यपि किसी प्रकरण में पता नहीं हम सभी किसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि नहीं या यों ही आरोप प्रत्यारोप और स्पष्टीकरण व अपने को सही सिद्ध करने की जद्दोजहद में लगे हैं- सबके अपने-अपने राम जानें।

आज की तारीख में की जा रही इस चर्चा को आप सिरे से नकारना चाहें तो नकार दीजिये प्रभुओ!, आप प्रभुतासम्पन्न हैं....। और वर्चस्व व सत्ता का खेल भारत में, संसार में, किसी भी ईमानदार कोशिश के साथ कुछ भी कर सकता है। देश के पहरुए जब सोते हैं तो जगाने वालों का हश्र क्या होता है, यह इस देश की जागरुक मानी जाने वाली जमात से तो नहीं छिपा, हाँ सोए हुए पहरुओं के कारण देश की क्या दशा होती है, यह हमने एक बार और, एक बार और सही, देखते देखते अभी अभी २६ नव. को फिर से देखा है। हाँ तो जनाब, इस मार के बाद हमें थोड़ा थोड़ा समझ आने लगा जान पड़ता है कि पहरुओं के सचेत होने की कितनी गंभीर आवश्यकता होती है और सुरक्षा के प्रबंधन में खामियाजे के क्या दनादन स्टेन गनों ( गणों) से निकलते-से परिणाम होते हैंपहरुओं का जागना और सुरक्षा की चाक चौबंदी की आवश्यकता अब भी समझाने की आवश्यकता नहीं है देश में किसी को। साथ ही यह भी समझ आ गया है कि हर व्यक्ति को सचेत होकर पहरुए का दायित्व निभाना होगा व सुरक्षा के इंतजाम भी पुख्ता रखने होंगे|


यह जरूरत केवल देश की सीमाओं और पाकिस्तानी कारस्तानी तक ही सीमित नहीं है| आक्रान्ता हर जगह, हर भेस में हर चीज हथियाने की घात लगाए बैठे हैं,... और हम हैं कि अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित या सचेत बेचारे आम आदमी की सौ असुरक्षाओं की दुहाई को भी जैसे नज़रअंदाज़ करते गलत प्रमाणित करते पाए जाते तथा इस भावना का मखौल उड़ाते हैं या उसकी इस वृत्ति को देश की सेवा में समर्पित होने के तमगे देते हैं व भले-बुरे और ग़लत-सही के पाठ भी पढाते हैं| अब २६ नव. ने जो तमाचा हमें मारा है व सुरक्षा में खामियों का और पहरुओं के जागरूक न होने का जो प्रमाण दिया है, उसके बाद किसी और प्रमाण की जरूरत नहीं है कि क्या करणीय है व क्या अकरणीय, क्या सही क्या गलत|


आप को ऐसा ही एक और प्रमाण अपने ब्लॉग जगत में देखना हो तो आइये ताज़ा-ताज़ा गरमागरम चाय की चुस्की से जीभ आप भी जलाइये, जैसे मेरी अभी अभी जली है। यह भी आपकी स्वायत्तता, स्वतंत्रता,वर्चस्व और लोकतंत्रवादी होने का अधिकार हो सकता है कि ऊँह कर कर हाथ झाड़ चलते बनें, क्योंकि भई, जैसे देश जाए भाड़ में, तैसे ब्लागजगत और साहित्य जाए भाड़ में, कोई हमारी-आपकी ही जिम्मेदारी है कि अस्मत के लुटेरों से दुश्मनी मोल लें या जगह जगह जाकर ख़ुद रखवाली करते फिरें एक- एक चीज की ? नेता लोग तो देश सेवा का मेवा पाने के लिए होते हैं, जानदेवा का तो नामलेवा भी यहाँ नहीं रहने देने का रिवाज और परम्परा है ना !! तो ऐसे हर देश और साहित्य के नेताओं के श्रीचरणों में भारतीय मिट्टी की गरीब जनता की गुहार है कि माईबाप! कौउनों तो घर लूटे लिए जाता है सरकार! कुछ तो सुरक्षा की गारंटी दीजिए, आप तो देश सेवा का व्रत लिए थे| शपथ भी खाई थी भरी संसद में... और आपकी सेवा-सेवा और भला-भला जैसी शब्दावली पर रीझ कर ही हम गरीब जनता ने आपकी अपने आपको सच्चा सेवक प्रमाणित करने और कहने की बात पर विश्वास किया था हुज़ूर! आपके रहमो करम पर चलने वाला यह देश ( लक्षणा में -साहित्य) कभी भी लोग बाग अपनी झोली में भर चुरा ले जाने लगे हैं| ज़रा नज़रे इनायत कीजिए, पकी हिन्दी के भले और हिन्दी की सेवा ( ओह, देश के भले और देश की सेवा) वाले व्यक्तित्व में छेद हुए जाते हैं ----


दायर की जाती पटीशन -

आज एक संदेश मुझे मेरे मेल बॉक्स में मिला


main apne swabhav ke viruddh aaj blogvani kee pravishtiyan dekh raha tha. ek sheershak dekhkar kunwar bechain kee gazal padhne oopar diye link par gaya . kinheen aur sajjan ka blog hai vah.par dee gaee gazal dr. kunwar bechain kee hai----meri anek baar kee padhee,sunee aur uddhrit kee gai.mujhe kaheen unka naam naheen dikha.


मैंने तुंरत खोज ख़बर ली व जो हाल हमारे पहरुओं, सुरक्षाप्रबंधों, हिन्दी - सेवकों और हिन्दी की भलाई के नामलेवाओं का देखा उसे आप भी देखिए| कुँवर बेचैन की इतनी प्रसिद्ध इस ग़ज़ल की सरे आम चोरी का यह नज़ारा हमारी पीठ थपथपाने को बहुत है कि नहीं? लोगबाग वाह वाह करते नहीं अघाते! ये हैं हमारी साहित्य-संस्कृति व समाज के भावी व वर्तमान पहरुए !!


आप लम्बी तान कर सोईये, कहीं आपकी नींद (कुछ घंटे की ज़रा-सी नींद के बाद) उचट गई तो आप कितनों को इसका खामियाजा उठाने की सज़ा दे सकते हैं |


मेरा क्या ?? मुझे तो रात आधी में नींद बर्बाद करके लिखने की बीमारी हैअरे अरे, आप क्यों परेशान होते हैं मेरी इस दशा से, असल में मेरी तो ड्यूटी है -- भई, पहरेदार और रखवाली का काम करने वाले तो चौकीदार सदा से कहे जाते हैं| मैंने तो आज तक अपनी पूरी आचार्य परम्परा से यही सीखा है --

" या निशा सर्वभूतानाम् तस्यां जागर्ति संयमी"

और फिर हम अपनी खामियों को ग़लत सिद्ध करते नहीं थकते और इन आरोपों को सिरे से खारिज करते हैं| हैं न हम वाकई महान ???




उक्त चौर्यकर्म के लिंक को क्लिक करके शायद कई लोग वहाँ तक अब मेरी तरह न पहुँच पाएँ , मैंने उसी आईडी को ब्लागस्पाट में खोजा तो जो पन्ना खुला उसका लिंक है यह|


चित्र -प्रतिकृति
- 1
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दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए रहते हमारे पास तो ये टूटते जरूर अच्छा किया जो आपने सपने चुरा लिए चाहा था एक फूल ने तड़पे उसी के पास हमने खुशी के पाँवों में काँटे चुभा लिए सुख, जैसे बादलों में नहाती हों बिजलियाँ दु



चित्रप्रतिकृति-

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ब्लागवाणी से आंकड़े :
पिछली प्रविष्टी लिखी:
12 Dec, 2008
प्रविष्टियां:
20
पाठक भेजे:
121
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3
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दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए रहते हमारे पास तो ये टूटते जरूर अच्छा किया जो आपने सपने चुरा लिए चाहा था एक फूल ने तड़पे उसी के पास हमने खुशी के पाँवों में काँटे चुभा लिए सुख, जैसे बादलों में नहाती हों बिजलियाँ दु
blog mrjitmohan
12/12/2008 9:09:40 AM
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वो मेरा ही काम करेंगे जब मुझको बदनाम करेंगे अपने ऐब छुपाने को वो मेरे क़िस्से आम करेंगे क्यों अपने सर तोहमत लूं मैं वो होगा जो राम करेंगे दीवारों पर खून छिड़क कर हाक़िम अपना नाम करेंगे हैं जिनके किरदार अधूरे दूने अपने दाम करेंगे अपनी नींदें पूरी करके मे
blog mrjitmohan
12/12/2008 9:09:40 AM
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हर पल मुझको अपना बचपन, याद बहुत आता है कुछ देर को तो मन हंसता है, फिर जाने टूट क्‍यों जाता है क्‍या हो जाता कुदरत को, यदि सच मेरा वो सपना होता चाहत थी जिस बचपन की, काश मेरा वो अपना होता नन्‍हीं सी मुस्‍कान देख जब, पापा का चेहरा खिल जाता उन तोतले शब्‍
blog mrjitmohan
12/12/2008 8:36:16 AM
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ना ज़मीन, ना सितारे, ना चाँद, ना रात चाहिए, दिल मे मेरे, बसने वाला किसी दोस्त का प्यार चाहिए, ना दुआ, ना खुदा, ना हाथों मे कोई तलवार चाहिए, मुसीबत मे किसी एक प्यारे साथी का हाथों मे हाथ चाहिए, कहूँ ना मै कुछ, समझ जाए वो सब कुछ, दिल मे उस के, अपने लिए
blog mrjitmohan
12/12/2008 1:16:43 AM
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मुम्बई को अपना कहने वाले नज़र क्यों नहीं आते हैं ! मुम्बई के दुश्मनों से अब वो क्यों नहीं टकराते हैं !! क्या ताज, ओबेराय, मरीन हाउस, मुम्बई में नहीं हैं ! या फिर मुम्बई के ठेकेदार अपनी मौत से घबराते हैं !! दुसरे प्रान्त का कह कर अपने ही लोगों को मारते
blog mrjitmohan
12/8/2008 8:00:24 AM
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चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया सूखा पुराना जख्म नए को जगह मिली स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया आती न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़िय
blog mrjitmohan
12/3/2008 5:17:34 AM
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अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं खो न सका चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता मैं हो न सका देखा जग ने टोपी बदली तो मन बदला, महिमा बदली पर ध्वजा बदलने से न यहाँ मन-मंदिर की प्रतिमा बदली मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई धो न सका चाहे जिस दल में
blog mrjitmohan
12/3/2008 5:04:17 AM
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जब भी होता है तेरा जिक्र कहीं बातों में लगे जुगनू से चमकते हैं सियाह रातों में खूब हालात के सूरज ने तपाया मुझको चैन पाया है तेरी याद की बरसातों में रूबरू होके हक़ीक़त से मिलाओ आँखें खो ना जाना कहीं जज़्बात की बारातों में झूठ के सर पे कभी ताज सजाकर दे
blog mrjitmohan
12/3/2008 5:04:17 AM
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ये ख़ास दिन है प्रेमियों का, प्यार की बातें करो कुछ तुम कहो कुछ वो कहें, इज़हार की बातें करो जब दो दिलों की धड़कनें इक गीत-सा गाने लगें आँखों में आँखें डाल कर इक़रार की बातें करो ये कीमती-सा हार जो लाए हो वो रख दो कहीं बाहें गले में डाल कर, इस हार की

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24 टिप्‍पणियां:


  1. आज की यह चर्चा नकारने लायक है या नहीं, यह तो बाद में विचार करके सूचित करेंगे ..
    इन उधारिया तिड़ीमार साहित्यकार महोदय के रुतबे को क्यों ललकार बैठीं, कविता जी ?
    नाम में क्या रखा है ? रचना किसी के नाम से दिखे, क्या फ़र्क़ पड़ता है ?
    आख़िर यह मातृभाषाप्रेमी अपनी अंटी से पैसा लगा कर ...
    इधर उधर से छीन झपट कर हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर रहा है ,या नहीं ?
    आप बेचारे के मूल भावना को नाहक ही आहत कर रही हैं, वह भी बीच बाज़ार ?

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  2. कविता जी सजग पाठक और बहु-सन्दर्भ रखने वाली महनीय चिट्ठाकार हैं.
    कोई भी सजग रचनाधर्मी इस चतुर प्रयास का विरोध करेगा ही.

    मैं डा० अमर कुमार जी से क्या कहूं- यदि हिन्दी मातॄ भाषा है तो अपनी मां की प्रतिष्ठा की वॄद्धि दूसरों के महत्वपूर्ण कार्यों को अपना बनाकर की जा सकती हो, तो माफ़ करें कालान्तर में आपके नाम के साथ मां का भी नाम बदनाम हो जाया करता है.
    मुझे लगता है कि डा० साहब ने यह बात व्यंग में कही है.
    अगर ऐसा है तो क्षमा करेंगे.
    अगर ऐसा नहीं है तो हिन्दी को मातृ भाषा रहने दें, मात्र-भाषा न बनायें.


    पिछली चर्चा में टिप्पणी नहीं की थी- जान-बूझ कर.
    द्रष्टा बना रहा, क्योंकि मैं यह जानता हूं कि वहां जहां करने लायक कुछ न हो, द्रष्टा बनना ही मूल्य का काम है.
    यह अहं भाव भी था मन में कि आरोपी, प्रत्यारोपी (उसे विमर्शकार नाम दे लीजिये, आप की सुविधा) कुछ ही देर बाद आरोप- प्रत्यारोप कर लुप्त हो जायेंगे; बच जाउंगा केवल में, प्रत्येक अनुभव को अपने में संजोये, बच जायेगा द्र्ष्टा केवल .

    कल जैसी ही पोस्ट लिखी जाती रही, वैसी ही चर्चा होती रही, तो मेरे जैसा नवागन्तुक भी इस मन्च से उदासीन हो जायेगा, बड़ी क्षुद्रता का एहसास हुआ मुझे कल की पोस्ट पढ़ कर.

    मैं रचना जी को अपना खुला समर्थन दूंगा, पर एक बात नहीं कहूंगा कि यह कुछ ही चिट्ठों का चर्चा-मंच है.

    आज की पोस्ट के लिये कविता जी को धन्यवाद.

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  3. कविताजी, आपकी चिंता जायज है। जितमोहन झा के ब्लाग पर सारी रचनायें उनकी अपनी नहीं हैं। जितमोहन को यह समझ आनी चाहिये कि उनके जरा से प्रयास और ईमानदारी में कमी से उनका ब्लाग एक संदर्भब्लाग न बनकर चोरी का ब्लाग माना जायेगा। जितमोहन को तुरन्त सभी पोस्टों पर जिस कवि की रचना है उसका नाम लिख देना चाहिये।

    लूज शंटिग वाला लेख ज्यादा चर्चा की मांग करता है। जैसा भुवनजी ने लिखा जिसका अंत यही था कि ये कुछ अलग दुनिया है। जिसका मज़ाक आसानी से उड़ाया जा सकता है और उड़ाया भी गया।

    मेरा यह मानना है कि ब्लाग जगत अभिव्यक्ति का वह मंच है जहां अनन्त संभावनायें हैं। एकदम बचकानी रचनाओं से काम भर की बेहतरीन रचनाओं तक इसकी परास है। अपने सीमित अनुभव से मैं कह सकता हूं कि आज की तारीख में हिंदी साहित्य समाज में कोई रचनाकार ऐसा नहीं है जो शुऐब की खुदा सीरीज जैसी रचनायें लिख रहा हो।

    यह विडम्बना है कि अपना हिंदी समाज किसी भी नयी चीज को सूंघ के खारिज कर देने की काबिलियत रखता है। इसी काबिलियत के चलते तमाम स्वयंभू लोग ब्लागजगत का मूल्यांकन करते हैं। इस माध्यम की अभी तो शुरुआत है। अभी इसके कुछ भी तो मापदंड तय नहीं हुये हैं। समय बतायेगा इसकी भी कहानी!

    किसी भी माध्यम का रूप कैसा बनता है यह उससे जुड़े लोग तय करते हैं। इंटरनेट के चलते ब्लाग की तात्कालिकता इसे क्षणभंगुर और कालजयी दोनों बनाती है। छापा माध्यम वालों को अभी इसकी संभावनाओं का अंदाज ही नहीं है। न वे इसे समझना चाहते हैं क्योंकि वे इसे खुली आंखों से देख ही नहीं रहे। सूंघकर नकार रहें हैं।

    आज की चर्चा देखकर बहुत अच्छा लगा। हमारा तीन घंटा बच गया। लेकिन अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखिये। रात-रात भर जागना अच्छी बात नहीं! :)

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  4. चोर तो लगे ही हैं.लगे रहते ही हैं. उनका काम जो है यही.
    पहरेदार जागें या न जागें ,चोर को तो जागते रहना पड़ता है.
    हाँ कवि , या कहें सृजनकर्ता, को भी जागते रहना होता है.
    इस साधना से ही वह सिद्ध बनता है .
    अपने लिए लिए नहीं ,जगत के लिए जागना है उसे......
    सुखिया सब संसार है,खावै और सोवै
    दुखिया दास 'कबीर' है, जागे और रोवै.[कबीर]



    देश के पहरुओं से लेकर आम नागरिक तक की जिम्मेदारियों की ओर
    डॉ. कविता वाचकनवी ने सार्थक संकेत किया है .
    शब्द कर्मियों को भी अपनी भूमिका को ईमानदारी से निभाना है
    और ब्लॉग कर्मी भी मूलतः शब्द कर्मी ही हैं.
    ब्लॉग लेखन को यदि बहुत से लोग गंभीरता से नहीं लेते हैं
    तो इससे हतोत्साहित नहीं हुआ जाना चाहिए.
    बहुत से लोग तो सारे के सारे शब्द कर्म को ही गंभीरता से नहीं लेते.
    इसलिए कोई चौकीदार समझे या मेहतर कहे,
    शब्द कर्मी को अपनी ड्यूटी मुस्तैदी से निभानी ही है.
    कविता जी ने इस तथ्य को अत्यन्त प्रेरक ढंग से कहा है.
    उनकी सजगता को नमन.



    रही बात , सदर्भित ग़ज़ल की.
    तो इसमें संदेह नहीं कि
    ''दो चार बार हम जो कहीं हंस हंसा लिए''
    डॉ.कुंवर बेचैन की रचना है.
    जित मोहन झा ने इसे चुराया है.
    [और संभवतः अन्तिम पंक्तियों में से कवि का नाम
    'कुंवर' भी उड़ा दिया है ].

    जो लोग पहरेदारी कर रहे हैं,उन्हें
    इस प्रकार के चौर्य-कर्मों का पर्दाफाश करना चाहिए.


    काव्य-हरण यों तो सदा से चलता आया है
    पर चोरों को कवि की प्रतिष्ठा मिलने का चलन नहीं है.
    ब्लॉग लेखन में भी नहीं होना चाहिए.


    ब्लॉग-भाषा या ई-भाषा की बात भी यहाँ प्रसंगात की जा सकती है.
    मुझे लगता है, हिन्दी में ब्लॉग्गिंग के माध्यम से
    लिंक-गर्भित ई-भाषा का प्रयोग बढ़ रहा है - अर्थात ख़बर अच्छी है.


    और हाँ, आज की प्रविष्टि का शीर्षक खूब जम रहा है.


    चर्चाकार को अनेकशः बधाई.

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  5. http://sarathi.info/archives/620

    its important to inform the blog community if you any where see the copy of the original
    i have been doing it regularly
    we all need to support this cause and protect besides our work being copied all the works that are being copied

    i hve many times been told that its no use to take any action but i hv found until and unless we have to fight it out

    the reason people are casual in bloging is because for most of them bloging is just a medium to pass time { no questions because its their time and life }

    very few have a " reason /aim " to blog
    bloging can be well used to promote awarenss and now you are doing it
    its a request use simple hindi if you want to reach more people
    i know you ar proficient in your subject but this way you will make your reach limited
    regds for your crusade

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत शानदार चिट्ठाचर्चा है.

    इस चर्चा को किसी भी तरह से नकारने का सवाल मुझे तो नहीं दिखाई देता. जिस मुद्दे को इस चर्चा में उठाया गया है, वह बहुत ही गंभीर है. हम सभी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि लिखना सबके लिए सहज बात नहीं है. ऐसे में कुछ लोगों को लिखने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है.

    लेकिन अगर अपने लिए लेखन में स्थान बनाने की ललक है, तो मेहनत तो करनी पड़ेगी. कोई नहीं कहता कि हम ब्लॉग पर जो कुछ भी डालें वो हमारा अपना हो. लेकिन अगर किसी दूसरे की रचना हम पोस्ट करें तो हमारा कर्तव्य है कि जिसकी रचना है, उसका नाम दें. कुंवर बेचैन जी जैसे प्रसिद्द कवि-शायर की रचना अपने ब्लॉग पर पोस्ट करने के बाद कोई यह कैसे सोच सकता है कि चूंकि उसने कुंवर जी का नाम नहीं लिखा, इसलिए ये पोस्ट करने वाले की रचना मान ली जायेगी.

    ऐसा करके वह ब्लॉगर पाठकों को भी छोटा करने की कोशिश करता है. ऐसा शायद यह सोचकर करता है कि पढ़ने वाले बेवकूफ हैं जिन्होंने कभी किसी कवि की रचनाएँ नहीं पढीं होगी और पोस्ट की हुई गजल या कविता पढ़कर सारी वाहवाही 'मुझे' देते हुए निकल लेगा.

    कोई ब्लॉगर अपने ही पाठक को छोटा समझे तो ये कहाँ तक जायज है? अगर ऐसा ही होता रहा तो बाहर के पाठकों के आने की आशा करना बहुत बड़ी मूर्खता होगी. लोग आयेंगे, ऐसी पोस्ट देखकर हँसेंगे और जाकर और लोगों से कहेंगे कि हिन्दी ब्लागिंग में तो चोरी की हुई रचनाएँ पोस्ट की जाती हैं.

    जैसा कि अनूप जी ने लिखा है, यह जितमोहन जी का कर्तव्य है कि उन्होंने जिन कवि-शायरों की गजलें पोस्ट की हैं, उस पोस्ट पर उन कवि-शायरों का नाम दें.

    अगर वांछित 'करेक्टिव मेजर्स' अभी से नहीं लिए गए तो ऐसी स्थिति उपजने की संभावना है जब हिन्दी ब्लागर्स को लोग शंका की निगाह से देखेंगे. हंसी उडायेंगे सो अलग.

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  7. तीन घण्टा बचा नहीं है . चर्चा करिए . ऐसे बहाने कहीं और लगाना :)

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  8. कविताजी को एक चिंतनपरक चर्चा के लिए धन्यवाद।
    >डॉ. अमरजी के कथ्य और तथ्य को समझने के लिए समय लगता है। बहुत दूर के मारक हैं। अनूपजी ने कहा है कि झा जी की रचनाएं अपनी नहीं होती तो यदि वे उस रचनाकार का नाम दे देते तो चोरी का इल्ज़ाम तो नहीं लगता। पर जैसा कि डॉ. शर्माजी ने बताया, जान बुझ कर मक्ते से नाम हटाना ब्लागर की मंशा ज़ाहिर करती है। यह तो आशा की जाती है कि ब्लाग जगत भविष्य न केवल सशक्त माध्यम प्रमाणित होगा बल्कि भावी पीढी के लिए एक धरोहर भी सुरक्षित रहेगा। अभी ‘छापा माध्यम’ वाले इस माध्यम से इसलिए दूर है कि उन्हें अंतरजाल की शक्ति का आभास नहीं हुआ है। ब्लाग जगत के इस शैशव काल में सजग ब्लागरों की आवश्यकता को कविताजी ने सशक्त तरीके से उजागर किया है। अनूपजी, ब्लागरों को एक प्लेटफार्म दे रहे है तो इसका सार्थक उपयोग बहुत दूर और देर तक प्रभाव छोडेगा - ऐसी उम्मीद की जा सकती है। भाषा के स्तर को बनाए रखने और चोर-चितेरों से भी बचाए रखना आज के ब्लागरों की ही ज़िम्मेदारी है। तब तक तो कापीराइट का हथियार प्रयोग में लाया ही जाता रहेगा।
    >If you have to improve the standard of language, you have to make the readers aware of the right choice of words and language. Once the readers get accustomed to the language, you will feel it is simple. Hence one of the primary responsibility of the bloggers is to raise the standard of the language, albeit slowly and introduce the reader with new words[ which may appear difficult initially but would be easy when put in regular use].
    कविताजी को एक बार धन्यवाद कि आपने यहां सोंचने, चिंतन-मनन करने के लिए रात की शम्म जलाए रखने को बाध्य किया।

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  9. यह व्यंग्य है, या वक्रोक्ति..
    इसकी विवेचना बाद में करेंगे, मित्र !
    हिन्दी लेखन को मुक्त रखने के पैरोकारों का संतोष है, यह !
    बड़ी मोटी बात है, रचना चाहे जिनकी हो, जितु ने संग्रह तो कर ही रखा है ..
    तो कुल मिला कर हिन्दी का प्रचार प्रसार ही तो हुआ न ?
    शेक्सपियर की दुहाई देने वालों, क्यों भूलते हो कि,
    नाम में क्या रखा है..
    आप इसे व्यंग्य ही मानिये, पर
    डा. कविता की यह कोशिश हिन्दी के प्रचारकों और
    मात्रभाषा से मातृभाषा का दर्ज़ा दिलाने वाले उत्साहियों को
    भविष्य में हतोत्साहित ही तो करेगी ?
    है न, कविता जी ?

    जवाब देंहटाएं
  10. आज की तारीख में की जा रही इस चर्चा को आप सिरे से नकारना चाहें तो नकार दीजिये प्रभुओ!
    ----------
    नकारने का सवाल ही नहीं। पर यह जरूर है कि हम मुंडेर पर बैठे देख रहे हैं।
    डकैती/छिनैती तो आम भारतीय चरित्र है!

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  11. सबसे पहले टांग-खिचाई !! आपने कहा "आइये ताज़ा-ताज़ा गरमागरम चाय की चुस्की से जीभ आप भी जलाइये, जैसे मेरी अभी अभी जली है।"

    अरे ! जरा ध्यान से चाय पिया करें. कल को मूंह जल गया इसलिये चर्चा नहीं की लाईन हमें पकडाने की तय्यारी तो नहीं है यह??

    अब आते हैं चर्चा पर -- ताज्जुब की बात है कि जिन चिट्ठाकारों ने अपने आलेख की खुली छूट दे रखी है (उन्मुक्त, रवि रतलामी, शास्त्री) उनकी रचनाओं को कोई हाथ नहीं लगाता. इधर उधर से उठा कर कापीराईट नियमों का उल्लंघन जम कर हो रहा है.

    इसका विरोध होना चाहिये. विरोध सही रीति से किया जाए तो तुरंत असर होता है. रचना सिंह ने सारथी के जिस लेख का उल्लेख किया है उसमें तुरंत असर हुआ था.

    इस चर्चा के लिये आभार! हां गरम चाय पीकर अगली चर्चा के लिये कोई बहाना न बना दीजियेगा !!

    सस्नेह -- शास्त्री

    जवाब देंहटाएं
  12. इस बात से सहमत हूँ कि यह जो ब्लॉग्स पर चोरी करने की नई विधा पनप रही है उसे हतोत्साहित करने की जरूरत है वरना देर-सबेर हमें ही उसके परिणाम भुगतने होंगे

    अभी-अभी NDTV Good Times पर धर्म कर्म में लगे रहने वाले श्री ( एक बार ही श्री लगा रहा हूँ, ज्यादा श्री लगाने से रावण भी नाराज हो जाते हैं :)

    हाँ तो मैं कह रहा था कि श्री....रविशंकर जी से एंकर ने पुछा कि आपने सुदर्शन क्रिया को पेटेंट क्यूँ कराया है, क्या यह आप नहीं चाहते कि इस तरह की यौगिक क्रिया फले पनपे। तब रविशंकर जी का जवाब था कि यह हम भी नहीं चाहते थे कि सुदर्शन क्रिया को पेटेंट करायें, लेकिन जब दूसरे अन्य संस्थानों ने इस को पेटेंट कराने की कोशिश की तब हमारे सामने इसे पेटेंट कराने के सिवा कोई चारा नहीं था।

    उल्लेखनीय है कि सुदर्शन क्रिया आर्ट ऑफ लिविंग के द्वारा ही खोजी (? कितना सच है मैं नहीं जानता ) की एक महत्वपूर्ण यौगिक क्रिया है हर शिविर में और हर नये साधक को सिखाया जाता हैं।

    इस मामले में रविशंकर जी तक को फिक्र है कि कोई उनकी विधि को अपने नाम से पेटेंट न करा ले।

    खैर....आगे-आगे देखते हैं होता है क्या...अभी तो ब्लॉगरों में इस मुद्दे पर सहमति है कि चोरी नहीं होनी चाहिये।

    कल को पता चले कोई कहे थोडा बहुत तो चलता है।

    परसों को कोई कहे .....तो क्या हो गया उनका लिखा अपने ब्लॉग पर छाप दिया तो कौन सा अपराध कर दिया।

    और तरसों कहें कि छाप दिया तो छाप दिया.....जो करना है कर ले :)

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  13. यह रहा (नेट पर भी)उपलब्ध प्रमाण का लिंक व पाठ
    http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A5%8B_%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B9%E0%A4%AE_%E0%A4%9C%E0%A5%8B_%E0%A4%95%E0%A4%AD%E0%A5%80_/_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%81%E0%A4%85%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%9A%E0%A5%88%E0%A4%A8


    रचनाकार: कुँअर बेचैन


    दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए
    सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए

    रहते हमारे पास तो ये टूटते जरूर
    अच्छा किया जो आपने सपने चुरा लिए

    चाहा था एक फूल ने तड़पे उसी के पास
    हमने खुशी के पाँवों में काँटे चुभा लिए

    सुख, जैसे बादलों में नहाती हों बिजलियाँ
    दुख, बिजलियों की आग में बादल नहा लिए

    जब हो सकी न बात तो हमने यही किया
    अपनी गजल के शेर कहीं गुनगुना लिए

    अब भी किसी दराज में मिल जाएँगे तुम्हें
    वो खत जो तुम्हें दे न सके लिख लिखा लिए।

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  14. कविताजी को एक चिंतनपरक चर्चा के लिए धन्यवाद!!!!!

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  15. @ शास्त्री जी, क्षमा करें ;महिलाओं के लिए टाँग-ख़िंचाई जैसे शब्दों के प्रयोग पर मुझे आपत्ति है . वैसे आप चाहें तो मुझे पुराने विचारों का समझकर इग्नोर कर सकते हैं .

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  16. सभी पंचो से गुजारिश है कि इस चर्चा के दरम्यान मेरी ‘ओरिजिनल रचना’ पर गौर फ़रमाने कि ज़हमत उठाएं। मैं साफ कर दूँ कि इसमें चोरी बिलकुल नहीं है, और आपमें से किसी ने ‘नकल मारने पर’ आपत्ति भी नहीं जतायी है-

    (inspired from कुँवर बेचैन जी-)

    चर्चा हुई गरम सी जो ताला लगा लिया
    थी जो जरा सी बात बतंगड़ बना लिए।

    कुछने कहा कि ठीक है यह सुरक्षा जतन
    कुछ गलत कहा जी और मुँह फुला लिए।

    वाचक्नवी ने खोज निकाला ग़जब जवाब
    चोरी हुई ग़जल का मुकम्मल पता लिए।

    अब हाय-हाय करते हुए लोग लौटकर
    बस वाह-वाह कहके समर्थन जता लिए।

    ‘सिद्धार्थ’ बच के रहना हमेशा अनूप से
    जो बाज नहीं आते मुसल्सल मजा लिए।

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  17. दूसरे मिसरे की दूसरी लाइन मे एक अक्षर छूट गया जी- (री-ठेल)

    कुछ ने कहा कि ठीक है यह सुरक्षा जतन
    कुछ ने गलत कहा जी और मुँह फुला लिए।

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  18. सही ख़बर मय सबूत के .....पर पाकिस्तान मानता नही.....
    कविता जी के स्टिंग ओपरेशन की जय ......इधर तहलका वाले भी पकिस्तान पहुँच गए है.... ...पर बेचारा भला आदमी .उठायी भी तो इत्ते बड़े कवि की .......सोचिये किसी आम आदमी की उठाता .....तो.....हमने ब्लॉग जगत में भी ऐसे लोग देखे है.....जो कुछ खास वाक्यों को उठा लेते है ....किस्सों को उठा लेते है....हमारी नज़्म ओर शेर तो खैर ऑरकुट पर उठाई गयी , पूजा की तरह जब हमने उनसे पूछा भाई "इतला तो दे देते ....
    अब बतायो आपका लिखा ब्लॉग ...कितनी पोस्ट लिखी ....कोई कब उठाकर कहाँ डाले ....इसका कॉपीराईट जैसी कोई चीज़ तो होती नही..... बड़े लफडे है भाई .....

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  19. कविता जी के चोर-पकड़ कारनामे पर पूरे हिंदी ब्लौग-जगत को शुक्रगुजार होना चाहिये...अभी कुछ दिनों पहले ही एक सज्ज्न ने श्री पंकज सुबीर जी की जाने कितने ही पोस्टों को कापी-पेस्ट कर अपने ब्लौग पर लगाया हुआ था...

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  20. सर्वप्रथम तो सच्चे हृदय से मैं आप सभी साथियों की आभारी हूँ कि आपने ऐसे कार्य की भर्त्स्ना की, जो वास्तव में निन्दनीय ही था, है, रहेगा।

    दूसरा आभार अनूप जी को कि इस बार शनिवार का उनका दिन मैंने अपने सोमवार से अदल-बदल कर लिया,बिना उनकी अनुमति के। उसका एक कारण यह भी था कि मेरी पहली चर्चा के समय से ही अनूप जी ने मुझे शनि,रवि व सोम में से कोई भी दिन चर्चा करने का अधिकार व विकल्प दिया था और मेरी इच्छा, सुविधा व निर्णय पर छोड़ दिया था। पुन: धन्यवाद। इस बार आपको एक SMS करके मैंने यह छूट ले ली।

    सभी के सम्मुख प्रमाण की पुष्टि हो जाने के बाद अब सम्भवत: इस चर्चा में
    http://chitthacharcha.blogspot.com/2008/12/blog-post_07.html#comments

    मेरे ब्लॊग्स के कॊपी प्रोटेक्टेड होने को दोष के रूप में निरूपित करने वाले सभी तर्कों(भले ही मुख्य चर्चा या टिप्पणियों में आए) का समुचित समाधान हो गया होगा कि क्यों किसी लेखक को अपनी सामग्री सार्वजनिक अध्ययन के लिए रख देने के बाद भी कम-से कम उसकी सुरक्षा का भी बन्दोबस्त स्वयं करने की चिन्ता रहती है। और इसी सुरक्षाभावना के कारण उसे कॊपी प्रोटेक्टेड का विकल्प चुनना पड़ता है। यह भी जोड़ दूँ कि भाषा या साहित्य या देश की सेवा उसकी रक्षा करने के लिए किए गए किसी भी उपाय के करने से बाधित नहीं होती,बल्कि सुरक्षा ही वास्तविक सेवा है- जब चोर उचक्कों और नराधमों को रोकने वाला कोई न हो,व्यवस्था लचर हो,सब अपनी-अपनी या/व स्व की साधना में लगे हों, घातक लोग ताक लगाए बैठे हों,सीमाएँ खुली हों। ऐसे में प्रत्येक को सुरक्षा की दृष्टि से सचेत व समर्थ होने के साथ-साथ समुचित उपाय करने ही चाहिएँ... और वही उस कॊपी प्रोटेक्टेड का मूल थे ( हैं भी व रहेंगे भी.

    अनुराग जी, रचना जी, ऋषभदेव जी,पंकज जी,अमर जी, दीपक भारतदीप जी आदि कितने ही नाम हैं। नाम और भी हैं। स्वयं मैंने नेट पर एक गज़लकार महिला व कई अन्य लोगों की रचनाओं की चोरी के प्रमाण व पते उन तक पहुँचाए। ये सब लोग भुक्तभोगी हैं और इनमें से किसी को भी अपनी या अपने ब्लॊग पर लगी किसी भी रचना की सुरक्षा के लिए चिन्तित होने व उसके बचाव का प्रबन्ध करने का पूरा अधिकार है। जब तक हम कबीर,तुलसी,निराला या प्रसाद व महादेवी नहीं बन जाते कि कोई भी चीन्ह ले एक-एक शब्द कि भई यह तो उनके शब्द हैं। अपने ऐसा हो सकने का कोई गुमान और मुगालता मुझे नहीं है। दूसरों किसी को हो तो उनका मैं कुछ नहीं कर-कह सकती।

    सर्वश्री
    ----
    अमरकुमार जी,हिमांशु जी,अनूप जी,ॠषभ जी,रचनाजी,शिवकुमार जी,विवेक जी,चन्द्रमौलेश्वर जी,ज्ञानदत्त जी,शास्त्री जी,सतीश जी,प्रवीण जी,सिद्धार्थ जी,डॊ.अनुराग जी और गौतम जी के प्रति पुन: कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ।

    @ रचना जी
    सभी की अपनी अपनी लेखन शैली व भाषा होती है,उसे उसी में निर्बाध लिखने की स्वतंत्रता रहने दी जानी चाहिए। कई चीजें व्यक्ति सौ बार के उपदेश से भी नहीं सीखता। वैसे भी हम तो बूढ़े तोते हैं, अब क्या बदलेंगे? हाँ इतना मैं जानती-समझती हूँ कि भाषा के उपयोग के क्षेत्र व प्रयोक्तावर्ग के कई रूप व भिन्नताएँ होती हैं। इसलिए बोलचाल की भाषा का प्रयोग बोलचाल में करती हूँ और साहित्य की भाषा का प्रयोग साहित्य में। हिन्दी के लगातार मरते जा रहे शब्दों का प्रयोग करके ही हम अपने भाषासमाज को उनसे परिचित करा सकते हैं व साथ ही उन्हें अर्थगम्य भी।

    @ विवेक जी
    आपकी आपत्ति पूरी तरह जायज है। मैं भी सहमत हूँ।
    परन्तु लगता है कि शास्त्री जी ने उसका प्रयोग मुहावरे में किया है। जैसे कोई किसी के बहाने बनाने पर कहे कि नाच न जाने आँगन टेढ़ा। तो हर बार वहाँ उसका अर्थ नाचने से या आँगन से ही नहीं लिया जाता। इस आधार पर शास्त्री जी को‘बेनेफ़िट ऒफ़ डाऊट’ देते हुए ‘बेल’ दी जाती है।

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  21. "विवेक सिंह said... @ December 13, 2008 6:29 PM

    @ शास्त्री जी, क्षमा करें ;महिलाओं के लिए टाँग-ख़िंचाई जैसे शब्दों के प्रयोग पर मुझे आपत्ति है . वैसे आप चाहें तो मुझे पुराने विचारों का समझकर इग्नोर कर सकते हैं"


    प्रिय विवेक, जहां तक मेरी जानकारी है "टांग खिचाई" पुरुष-स्त्री दोनों के लिये एक समान प्रयुक्त होता है. यदि मेरी सोच गलत है तो कृपया विवेक -- या हिन्दी का कोई ज्ञाता -- मदद करें!!

    सस्नेह -- शास्त्री

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  22. मुझे 'बेचारे' झाजी से थेड़ी सहानुभूति हो रही है। कितना ही जोर से कहें वे इतने प्रसिद्ध रचनाकार की रचना को तो अपना कह नहीं सकते थे.;न ही प्रमाणित करने की स्थिति में हैं। एडसेंस भी अब है नहीं कि कानी कौड़ी कमाई होगी। मतलब बुरे बने हाथ जलाए बेबात।

    पर नाराजगी की कीमत पर भी मेरी सहमति डा अमर वाली लाइन से है। और खासतौर तब जब इन दृष्‍टांतों का इस्‍तेमाल तालाबंदी जैसे बेमजा उपकरणोंके समर्थन में होने लगे। हिन्‍द युग्‍म के मामले में जब ये बहस उठी थी तब ही प्रमाणित किया गया था कि तालाबंदी केवल वैध चर्चाकारों को ही हतोत्‍साहित करती है चौर्यकर्म वालों के मामले में बेअसर है... ओपेरा पर काम नहीं करती, स्क्रिप्‍ट आफ कर लें तो किसी ब्राउजर पर काम नहीं करती...मतलब ताला चोर के लिए नहंी शरीफ को बिराने भर का औजार है।

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  23. ऊपर की (ज्ञान दत्त जी की) एक टिपण्णी से विरोध है कि " डकैती/छिनैती तो आम भारतीय चरित्र है! "
    यह सरासर अपमान है हम भारतवासियों का. यदि उनकी कोई आप-बीती हो तो बात अलग है पर इस प्रकार से सामाजिक रूप से कहना सामने वाले पर ग़लत असर डालता है.
    चिट्ठा-चोरी को रोकने के लिए शास्त्री जी, रचना जी और कविता जी तीनों ने बहुत ही सराहनीय कार्य किया है.
    आप जैसे जागरूक लोग हों तो यह एक अच्छी बात है.
    एक चीज़ पर किसी ने कुछ भी नहीं कहा या लिखा है वह है चिट्ठा-चोर वास्तव में चिट्ठा चोर है या उसे कॉपीराइट का ज्ञान नहीं.
    किसी की भी सरे-आम छिछालेदर कर देना आसान है पर उसके पहले उस व्यक्ति से एक ई-मेल के जरिये बात कर लेना चाहिए. यदि वह जानबूझकर चोरी कर रहा हो तो फ़िर उसके ब्लॉग या वेबसाईट प्रदाता से मिलकर उसके विरुद्ध तत्काल कारवाई होनी ही चाहिए.

    @ मसिजीवी जी इत्ता काहे बोल गए भाई !! :)

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  24. डकैती / छिनैती तो आम भारतीय चरित्र है...
    सही हो सकता है...
    तभी, ख़ास भारतीय चरित्र उसपर पोस्ट लिखा करते हैं !
    क्योंकि बाकी देशों में सत्यवादी राजा हरिश्चँद्र चरित्र ही हुआ करते हैं !

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