चिटठा चर्चा मंच यों तो ब्लॊग्स की चर्चा का मंच है, परन्तु इसका सर्वाधिक सर्जनात्मक उपयोग इसके सामूहिक व सार्वजनिक मंच होने में है। इसे थोडा स्पष्ट करुँ तो यह, कि जैसे गाँवों में सभी के अपने घर व अपने नाते होते हैं, फिर कई ऐसे स्थान भी जिनका उपयोग कोई भी अपनी आवश्यकता या अवसर के लिए कर सकता है, जैसे पाठशालाएँ, धर्मशालाएँ, पूजा के स्थान या बारातघर आदि। ये होते तो यद्यपि सार्वजनिक उपयोग के लिए हैं किंतु फिर भी वैयक्तिक। ये सार्वजनिक हो कर भी सामूहिक और साँझे नहीं होते। यही स्थिति ब्लॉग जगत में ब्लॉग और ब्लॉग संकलकों की है। यदि दृष्टि दौड़ाई जाए तो चर्चा का यह मंच मुझे सर्वाधिक सामूहिक, साँझा व सार्वजनिक प्रतीत होता है। इसकी तुलना केवल गाँव की चौपाल से की जा सकती है। जहाँ किसी भी सार्वजनिक हित की बात के लिए साँझे व सामूहिक प्रयत्न किए जाने की सर्वाधिक संभावनाएँ होती हैं, अवसर होते हैं, उपयोग होता है। इन अर्थों में चिट्ठाचर्चा का यह मंच सामूहिक प्रश्नों, सूचनाओं के आदान-प्रदान निराकरण, हित-अहित, व्यवस्था, पारस्परिकता आदि का केन्द्र के रूप में निर्णायक भूमिका निभाने की प्रबल संभावनाओं से युक्त है। आवश्यक नहीं कि आप सभी इस से सहमत हों किंतु मेरा ऐसा मानना है कि इस मंच का उपयोग यदि केवल सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए किया जाता है तो यह इसकी संभावनाओं को क्षीण करने जैसा हो जाएगा। सूचनापट्ट से कई सौ गुना अधिक बेहतर, सकारात्मक व सार्थक उपयोग इस मंच का होने में ही इसकी सार्थकता है। हम सभी को मिल कर इस रूप में इसकी उपस्थिति व छवि को रूपायित करने के यत्न करने हैं। इसमें चर्चाकारों की बड़ी भूमिका हो सकती है। अस्तु ।
कल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था व अब होली की आहट एक दम मुहाने पर आ पहुँची है। सभी ब्लोगर बन्धु - बाँधवी अवकाश और उत्सव के मूड में हैं। निस्संदेह, चिट्ठों की संख्या का ग्राफ इन दिनों उतरान पर रहेगा। महिला दिवस पर हिन्दी ब्लॉग जगत में भरपूर मंथन हुआ.
आइये इस बार मिलते हैं, महिला दिवस पर हिन्दी ब्लॉगजगत में इस विषय पर कलम चलाने वाले कुछ साथियों से -
माँ है, वो भी
हज़ारों साल का इतिहास बताता है, कि औरतों को एक वस्तु ही समझा गया। मर्दों ने अपनी इच्छाओं के अनुरुप औरत की एक तस्वीर बनाई। और फिर औरत उसी रास्ते पर चल पड़ी। वो रास्ता कौन सा था ? वो रास्ता था, मर्दों को खुश करने का। मर्द जैसा कहता, औरत वही करती। ...... हज़ारों साल से ऐसा ही होता रहा है।.... और आज भी बदकिस्मती कहें, ये जारी है। जो मर्द के बताए रास्ते पर नहीं चलता तो फिर उसके लिए दूसरे रास्ते हैं... उनके पास। .......... मर्दों का सबसे बड़ा हथियार स्त्रियों के खिलाफ..... चरित्र हरण।
औरत के गर्भ में नौ महीने खून चूसने वाला शिशु... जब भी सोचने समझने के काबिल होता है..... सबसे पहले किस पर हमला करता है ? वो औरत ही होती है।
मैं पवित्रता की कसौटी पर पवित्रतम हूँ
क्योंकि मैं तुम्हारे समाज को
अपवित्र होने से बचाती हूँ।
आज का महिला दिवस इन्ही को समर्पित।
मिलिए फैबुलस फाईव ऑफ़ माई होम
ऐ वूमेन विद माइंड
किसी भी चित्रकार ने औरत को एक जिस्म से अधिक कुछ नहीं सोचा था। जिस्म के साथ केवल सोया जा सकता है, अगर औरत को औरत माना जाता तो उसके साथ जागने की बात भी होती। ऐसा किसी पेंटिंग में दिखायी नहीं दिया इमरोज को। अगर औरत के साथ जाग के देखा होता औरत की जिंदगी बदल गई होती। जिंदगी जीने लायक हो जाती। अमृता ने जिस औरत की पेंटिंग करने के लिये कहा था, वह पेंटिंग इमरोज 1966 में बना पाए।
घूघूती बासूती
क्या कोई उस असहाय किशोरी की मनोदशा की कल्पना कर सकता है? कैसे वह तिल तिलकर प्रतिदिन अन्दर ही अन्दर थोड़ा थोड़ा मरती होगी। कैसे वह अगले दिन उनकी कक्षा में जाने का साहस जुटा पाती होगी। जिस अध्यापन को उसने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था उसी में इतनी क्रूरता व गंदगी देख उसके हृदय पर क्या बीतती होगी।
प्रश्न अनेक हैं। क्या छात्राओं के कॉलेज में कुछ अध्यापिकाएँ नहीं होनी चाहिएँ थीं? क्या हमारे प्रदेश में अध्यापिकाओं की कमी है? यदि है तो देश के अन्य भागों से उनकी नियुक्ति करना क्या असंभव था? क्या हमारी बच्चियों को आदमखोरों के हवाले इतनी सुगमता से किया जा सकता है?
निर्वस्त्र क्यों हुआ असूर्यपश्या का तन देखो बीच बाजार
क्यों दे न सका तन ढंकने को एक टुकडा वस्त्र उसे
अबला नारी थी बेचारी दानवों ने कर दिया त्रस्त उसे
हिन्दी ब्लोगिंग मे कमेन्ट मे अभद्र होने की परम्परा को निभाया जा रहा हैं । भारतीय संस्कृति की चिंता में दुबले होने वाले अपनी टिप्पणियों में कितने अभद्र हो जाते हैं की यही भूल जाते हैं की लगता हैं की जो वो लिखते हैं वो केवल एक ब्लॉग पोस्ट ही हैं । उनकी नज़र मे भारतीय संस्कृति का मतलब केवल और केवल पुरूष प्रधान समाज की एक व्यवस्था हैं जिस मे अगर नारी प्रश्न भी करे तो वो उपहास की पात्र हैं ।
महिला दिवस , कन्यादान ,दहेज़ और भारतीय सभ्यता
आकांक्षा
इन वीरांगनाओं के अनन्य राष्ट्रप्रेम, अदम्य साहस, अटूट प्रतिबद्धता और उनमें से कइयों का गौरवमयी बलिदान भारतीय इतिहास की एक जीवन्त दास्तां है। हो सकता है उनमें से कइयों को इतिहास ने विस्मृत कर दिया हो, पर लोक चेतना में वे अभी भी मौजूद हैं। ये वीरांगनायें प्रेरणा स्रोत के रूप में राष्ट्रीय चेतना की संवाहक हैं और स्वतंत्रता संग्राम में इनका योगदान अमूल्य एवं अतुलनीय है।
बदले समय में भारतीय महिलाओं में भी स्तन का कैंसर सबसे आम हो गया है। हर 22 वीं महिला को कभी न कभी स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। शहरी महिलाओँ में यह संख्या और भी ज्यादा है।
खुद पहचानें
स्तन कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है- जल्द पहचान।
संक्षेप में जो आप जानना चाहते हैं स्तन कैंसर के बारे में
सिंगमण्ड फ्रॉयड ने कभी कहा था कि स्त्रियां क्या चाहती हैं, यह बहुत बड़ा प्रश्न है और “मैं इसका उत्तर नहीं दे सकता”।
यह एक बड़ी सच्चाई है कि पुरुष या पति यह जानता ही नहीं कि स्त्री (या उसकी पत्नी) उससे किस प्रकार के सहयोग, स्नेह या सम्मान की अपेक्षा करती है। पर यही सच्चाई स्त्रियों के सामने भी प्रश्न चिन्ह के रूप में खड़ी है कि क्या उन्हें पता है कि उन्हें अपने पति से किस तरह का सहयोग चाहिये? हमें पहले अपने आप में यह स्पष्ट होना चाहिये कि हम अपने पति से क्या अपेक्षा रखते हैं। बहुत गहराई में झांक कर देखें तो स्त्रियां भी वह सब पाना चाहती हैं जो पुरुष पाना चाहते हैं – सफलता, शक्ति, धन, हैसियत, प्यार, विवाह, खुशी और संतुष्टि। पुरुष प्रधान समाज में यह सब पाने का अवसर पुरुष को कई बार दिया जाता है, वहीं स्त्रियों के लिये एक या दो अवसर के बाद रास्ते बन्द हो जाते हैं। कहीं कहीं तो अवसर मिलता ही नहीं।
इनकी कैसी साँझ?
इनकी ज़िंदगी में तो
हर वक्त है साँझ का धुँधलका
साँझ का क्यों रहे इन्हें इंतज़ार
क्या करें इस वेला में, यही सवाल लेकर आती है हर शाम
काश इस साँझ में ये भी करें ता-थया
उछलें-कूदें, मचाएँ धमाल
पर कहाँ हैं ये शाम
कोई इनके दिल से पूछे
ये तो चाहती जितनी दूर हो साँझ
उतना ही हो अच्छा
पर बिना शाम गुज़रे
नई सुबह भी तो नहीं आती
इसलिए गुज़ारनी होगी शाम हौसले से
लड़ना होगा अँधेरे से ताकि कदम बढ़े
एक नई सुबह की ओर
अब जानिए कुछ तथ्य
द स्टार डॉट कॉम के अनुसार
10 of the worst countries in the world to be a woman today:
Afghanistan
Democratic Republic of Congo:
Iraq:
Iraq
Nepal
Sudan
अन्य देशों में गुएतमाल , माली, पाकिस्तान,सऊदी अरब,सोमाली आदि हैं
INCOME GAPS
Poverty means pain for both men and women, but throughout the world it's women who suffer the most from lack of income. In these countries, women earn less than 50 per cent of men's incomes:
Benin 48 per cent
Bangladesh 46 per cent
Sierra Leone 45 per cent
Equatorial Guinea 43 per cent
Togo 43 per cent
Eritrea 39 per cent
Cape Verde 36 per cent
Yemen 30 per centSOURCE: UNDP Human Development Report
कविता का मन
गत दिनों एक ऐसे यथार्थ से आँखें फटी रह गईं कि वह बचपन का दृश्य उस दिन से बार बार डरपा रहा है, यादों में उमड़ा आ रहा है। आज के एक भीषण यथार्थ को प्रस्तुत करती कविता के लिए जब मैंने तत्सम्बन्धी वास्तविकताओं के चित्र देखे तो तब से एक हाथ पैर बँधी एक स्त्री का चित्र ठीक उस सूअरी की याद दिलाता है, जिसे जिंदा आग में झोक दिया जाता था और उसके तड़फड़ा कर आग से बाहर उलट/झपट पड़ने की आशंका को दूर करने के लिए चारों और लोग उसे डंडे से ताने आग पर सेंकते रहते, धकेलते रहते। यदि किसी स्त्री को आज के युग में आप ऐसी अवस्था में देखें तो क्या हो मन की स्थिति ? ऐसी ही कष्ट में बेहाल स्त्रियों के चित्र देख मेरे रोंगटे खड़े हो गए, उनकी पीड़ा से त्रस्त हूँ .
चित्र के लिए तो वहीं जाना होगा ( वहाँ पहला चित्र ), किंतु इस पीड़ा को ऋषभदेव जी ने जो शब्द दिए हैं उन्हें मैं अपनी पसंद के रूप में आप को यहीं पढ़वा रही हूँ --
औरतें औरतें नहीं हैं !
-ऋषभ देव शर्मा
वे वीर हैं
मैं वसुंधरा.
उनके-मेरे बीच एक ही सम्बन्ध -
'वीर भोग्या वसुंधरा.'
वे सदा से मुझे जीतते आए हैं
भोगते आए हैं,
उनकी विजयलिप्सा अनादि है
अनंत है
विराट है.
जब वे मुझे नहीं जीत पाते
तो मेरी बेटियों पर निकालते हैं अपनी खीझ
दिखाते हैं अपनी वीरता.
युद्ध कहने को राजनीति है
पर सच में जघन्य अपराध !
अपराध - मेरी बेटियों के खिलाफ
औरतों के खिलाफ !
युद्धों में पहले भी औरतें चुराई जाती थीं
उनके वस्त्र उतारे जाते थे
बाल खींचे जाते थे
अंग काटे जाते थे
शील छीना जाता था ,
आज भी यही सब होता है.
पुरुष तब भी असभ्य था
आज भी असभ्य है,
तब भी राक्षस था
आज भी असुर है.
वह बदलता है हार को जीत में
औरतों पर अत्याचार करके.
सिपाही और फौजी
बन जाते हैं दुर्दांत दस्यु
और रौंद डालते हैं मेरी बेटियों की देह ,
निचोड़ लेते हैं प्राण देह से.
औरते या तो मर जाती हैं
[ लाखों मर रही हैं ]
या बन जाती हैं गूँगी गुलाम
..
वे विजय दर्प में ठहाके लगाते हैं !
वे रौंद रहे हैं रोज मेरी बेटियों को
मेरी आँखों के आगे.
पति की आँखों के आगे
पत्नी के गर्भ में घुसेड़ दी जाती हैं गर्म सलाखें.
माता-पिता की आँखों आगे
कुचल दिए जाते हैं अंकुर कन्याओं के.
एक एक औरत की जंघाओं पर से
फ्लैग मार्च करती गुज़रती है पूरी फौज,
माँ के विवर में ठूँस दिया जाता है बेटे का अंग !
औरतें औरतें हैं
न बेटियाँ हैं, न बहनें;
वे बस औरतें हैं
बेबस औरतें हैं.
दुश्मनों की औरतें !
फौजें जानती हैं
जनरल जानते हैं
सिपाही जानते हैं
औरतें औरतें नहीं होतीं
अस्मत होती हैं किसी जाति की.
औरतें हैं लज्जा
औरतें हैं शील
औरतें हैं अस्मिता
औरते हैं आज़ादी
औरतें गौरव हैं
औरतें स्वाभिमान.
औरतें औरतें नहीं
औरतें देश होती हैं.
औरत होती है जाति
औरत राष्ट्र होती है.
जानते हैं राजनीति के धुरंधर
जानते हैं रावण और दुर्योधन
जानते हैं शुम्भ और निशुम्भ
जानते हैं हिटलर और याहिया
कि औरतें औरतें नहीं हैं,
औरतें देश होती हैं.
औरत को रौंदो
तो देश रौंदा गया ,
औरत को भोगो
तो देश भोगा गया ,
औरत को नंगा किया
तो देश नंगा होगा,
औरत को काट डाला
तो देश कट गया.
जानते हैं वे
देश नहीं जीते जाते जीत कर भी,
जब तक स्वाभिमान बचा रहे!
इसीलिए
औरत के जननांग पर
फहरा दो विजय की पताका
देश हार जाएगा आप से आप!
इसी कूटनीति में
वीरगति पा रही हैं
मेरी लाखों लाख बेटियाँ
और आकाश में फहर रही हैं
कोटि कोटि विजय पताकाएँ!
इन पताकाओं की जड़ में
दफ़न हैं मासूम सिसकियाँ
बच्चियों की
उनकी माताओं की
उनकी दादियों-नानियों की.
उन सबको सजा मिली
औरत होने की
संस्कृति होने की
सभ्यता होने की.
औरतें औरतें नहीं हैं
औरतें हैं संस्कृति
औरतें हैं सभ्यता
औरतें मनुष्यता हैं
देवत्व की संभावनाएँ हैं औरतें!
औरत को जीतने का अर्थ है
संस्कृति को जीतना
सभ्यता को जीतना,
औरत को हराने का अर्थ है
मनुष्यता को हराना,
औरत को कुचलने का अर्थ है
कुचलना देवत्व की संभावनाओं को,
इसीलिए तो
उनके लिए
औरतें ज़मीनें हैं;
वे ज़मीन जीतने के लिए
औरतों को जीतते हैं!
अनंतिम
आज की चर्चा में प्रयास था कि स्त्री प्रश्नों पर केंद्रित सभी अधिकाधिक प्रविष्टियों को समेकित कर सकूँ, किंतु यह संभव नहीं हुआ। बहुत सी महत्वपूर्ण प्रविष्टियाँ न चाहते हुए भी सम्मिलित करना संभव नहीं हो पाया है। आशा है, इसे अन्यथा न लेते हुए क्षमा करेंगे।
रंगों व नवसस्येष्टि का पर्व देश व आप सभी के जीवन को सपरिवार धन -धान्य, हर्ष व सुखों से सराबोर कर दे।
एक - एक चुटकी गुलाल सभी मित्रों के प्रशस्त भाल पर मेरी ओर से।
आज की चर्चा व प्रस्तुति आप को कैसी लगी, जानने की प्रतीक्षा रहेगी।
फिर मिलेंगे !!!
महिला दिवस के विभिन्न पहलू छुती सारगर्भित चर्चा.. बधाई..
जवाब देंहटाएंhats of to this charcha kavia , lot of hard work -ऋषभ देव शर्मा poems are really very good . one suggestion please you should have included posts which were against the flavor of womans day also
जवाब देंहटाएंएक संग्रहणीय चर्चा के लिए बधाई कविता जी !
जवाब देंहटाएं"चिटठा चर्चा मंच यों तो ब्लॊग्स की चर्चा का मंच है, परन्तु इसका सर्वाधिक सर्जनात्मक उपयोग इसके सामूहिक व सार्वजनिक मंच होने में है। "
जवाब देंहटाएंबढिया चर्चा करने के लिए यह चौपाल बना ही है पर इसमें एक ही चीज़ की कमी है। फुर्सत से फ़ुर्सतियाने का प्रतीक ही नदारद है-हुक्का:)
महिला दिवस को साक्षात इस चर्चा में उताने की अंतिम कडी़ के रूप में डॊ. ऋषभ देव शर्माजी की कविता तो गज़ब ढाती मन को छूने वाली है। इस कविता को हृदयविदारक चित्रों से कविताजी ने संवार कर और भी चिंतनीय बना दिया है। इसी गोत्र का एक गीत फिल्म साधना का याद आता है- औरत ने मर्दों को जनम दिया / मर्दों ने उसे बाज़ार दिया...
एक विचारोत्तेजक चर्चा के लिए पुनः बधाई॥
चर्चा बहुत बढ़िया की है आपने कविता जी ..पर मैं इस के शीर्षक को नहीं समझ पायी कि इस चर्चा को यह शीर्षक क्यों दिया है ?
जवाब देंहटाएं@रंजना जी
जवाब देंहटाएंइसका यह अर्थ है कि आपने चर्चा को देखा तो है पर अभी पूरा इत्मीनान से पढ़ नहीं पाई हैं।
यह पंक्ति इसी चर्चा में आई है। इसी में मिलेगी।
मैंने वो पंकितयां भी पढ़ी है कविता जी ..बस लगा कि पूछ लूँ आपसे कि यह शीर्षक देना क्यों जरुरी लगा शुक्रिया ..होली मुबारक आपको
जवाब देंहटाएंआदरणीय कविता जी आज जल्दी में हूँ इसलिए
जवाब देंहटाएंसिर्फ इतना कहूँगा की शायद वर्ष की सर्वश्रेष्ट चिटठा चर्चा में से एक में इसे रखना चाहूँगा .....दूसरा मेरा मान ना है केवल एक दिन ही नहीं हर दिन स्त्री का होता है .स्त्री ही क्यों इस संसार में रहने वाले हर जीव का ....इसलिए सब लोग इसी उर्जा से लिखे ओर अपने अपने सीमित दायरे में रहकर भी इमानदारी ओर नेक नियति से इस समाज को ओर बेहतर बनाये सभी लिखने वालो का शुक्रिया ....ओर सभी को होली की शुभकामनाये .
चर्चा तो बहुत बढ़िया लगी पर शीर्षक जमा नहीं है ?
जवाब देंहटाएंशीर्षक को देख कुछ झिझक थी; पर चर्चा बहुत सुन्दर लगी। बधाई।
जवाब देंहटाएंकितनी अच्छी पोस्ट दी हैं आपका चुनाव भी अच्छा रहा है। ए वूमेन विद मांइड को तो कल हमारे शहर में एक बड़े सम्मान से नवाजा गया हैं।
जवाब देंहटाएंशानदार चर्चा.
जवाब देंहटाएंआपकी पसंद की कविता बहुत अच्छी लगी.
आपको होली की शुभकामनाएं.
आपका प्रयास सफल रहा है कविता जी ... स्त्री प्रश्नों पर केंद्रित अधिकाधिक प्रविष्टियों को इसमें समेट लिया गया है ... बहुत अच्छा रहा ... होली की ढेर शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंकविता जी...बहुत अच्छी लगी ये चर्चा! अच्छे लेख . अच्छी कवितायेँ पढने को मिली!होली की शुभ कामनाएं सभी को!
जवाब देंहटाएंऔरतों के जननांग पर फहरा दो विजय की पताका ?
जवाब देंहटाएंशीर्षक देखकर मन विषणण हो गया ! सारा सौन्दर्यबोध जाता रहा और मन एक घिनौने अनुभूति से भर उठा ? क्या कोई भी पुरुष ऐसा शीर्षक दे सकता था ? यह भी उतना ही सच है नारियां भी एक ही चश्में से सभी को देखती हैं ! और शायद सोच में बहुत ही कंजर्वेटिव हैं !
"औरत के जननांग पर
जवाब देंहटाएंफहरा दो विजय की पताका
देश हार जाएगा आप से आप!"
आदरणीय रंजनाजी, महेंद्र मिश्रजी, ज्ञानदत्त पाण्डेयजी तथा अरविंद मिश्र जी ने इस चर्चा के शीर्षक को लेकर कुछ टिप्पणियां दिखीं तो चाहा कि इस संदर्भ में डॊ. ऋषभदेव शर्माजी की उपरोक्त पंक्तियों पर उनका ध्यान दिला दूं। यदि इस कविता को पढ़ कर कोई न सिहर जाय तो वह निश्चय ही संवेदनहीन ही कहलाएगा। मैं तो विशेष रूप से आग्रह करूंगा कि इस कविता को उन चित्रों के साथ पढें जो इससे जुडे़ हैं।
अनुराग जी की ही तरह कहूँगी कि मैं इस चर्चा को समीक्षा का नाम दूँगी और अत्यंत उच्चकोटि की समीक्षा का नाम। बात कोई भी कही जाये लेकिन जब बौद्धिकता और सटीक तरीके से कही जाती है तो मन खुश हो जाता है। कल विविध ब्लॉगों पर हुए मंथन का माखन यहाँ मिला। हर पंक्ति मूल्यवान ...संग्रहणीय..!
जवाब देंहटाएंशीर्षक देख खून खौल उठा लेकिन आगे की प्रविष्टियों ने ठंडा भी कर दिया. होली मकी शुभ कामनाएं.
जवाब देंहटाएं@ अरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंतब तो श्रम सार्थक हुआ। इसी तथाकथित "सौन्दर्यबोध" (सौन्दर्यबोध माय फ़ुट) को तो आईना दिखाना था, चोट पहुँचानी थी।
यदि लिंक पर जा कर सच देखते तो इस पंक्ति के सन्दर्भ को जानने के बाद आपके रौंगटे खड़े हो जाने चाहिए थे जनाब! आप सौन्दर्यबोध का लुत्फ़ लेना चाह्ते हैं!??? वे मारी जा रही हैं सूअरों की तरह!!!कातर क्रन्दन से आपके कलेजे क्यों नहीं फट जाते?
ये सफ़ेद कॊलरवाले चोंचले हमें नहीं आते।
स्त्री के जननांग के साथ ऐसी कुत्सा करने वालों या रुचि रखने वालों को कोसिए, उन की निन्दा करने वालों को नहीं।
स्त्रियाँ शिव लिंग की पूजा करती हैं, वह उनकी भक्ति का केन्द्र है क्योंकि वह संसार की उत्पादक शक्ति का प्रतीक है, फिर शास्त्रीय परम्परा में स्त्री का जननांग तो सबसे बड़ा तीर्थ है, पूजनीय है. उसके प्रति और कोई भाव या और कोई बोध जागता ही क्यों है?
तीर्थ स्थलों को उजाड़ कर उन पर विजय पताका फहराने वालों की यहाँ सुदीर्घ परम्परा रही है, इसे आप अभिधा में लेना चाहें तो भी सच है और लक्षणा में लेना चाहें तो भी सच है।
ऐसे में इस वाक्य के कहने में कौन-सी अश्लील बात हो गई?
वैसे स्त्री के पास अश्लील तो कुछ है ही नहीं, अश्लीलता तो पुरुष की दृष्टि में है। तभी वे ऐसे प्रसंगों को अकुंठ भाव से नहीं लेते।
.. तिस पर यों बिदकना कुछ गले न उतरने वाली बात है।
बहुत कड़वा सच हज़म नहीं होता कविता जी ! कहाँ से लायें इतनी ईमानदारी, बहुत अच्छी चर्चा के लिए बधाई !
जवाब देंहटाएंलोग इस शीर्षक को लेकर नाक-भौं बिचका रहे हैं. लेकिन अगर मैं अपनी कहूं तो जब मैंने यह शीर्षक चिट्ठाजगत के साइडबार में देखा तो न जाने क्यों मुझे लगा कि इस महिला दिवस की सबसे अच्छी पोस्ट पढने जा रहा हूँ मैं. उस वक्त न तो मुझे यह पता था कि यह चिट्ठाचर्चा है और न यह कि आपने इसे लिखा है. इस एक पंक्ति ने स्त्री जाती के समूचे दर्द को अपने में समेट लिया है; पुरुषों के झूठे पुरुषत्व को और समाज के चरित्र को एक आइना दिखा दिया है. बाकी क्या कहूं, आप जैसी कवियित्री से इससे कम की उम्मीद तो थी भी नहीं. बधाई.
जवाब देंहटाएंआपके जैसी स्थिति का सामना मुझे भी करना पड़ा है बचपन में सुवरी और बड़े होकर बहुओं की जली लाशे मैंने भी देखि है ...आपके साथ पहले वाली बात बदल गई, मेरे साथ अब भी है ..मुझे अब भी चीत्कार सुनाई देती है .
जवाब देंहटाएंचर्चा निश्चय ही सार्थक और निरन्तर मूल्य की है, परन्तु शीर्षक पर मन जरूर खिन्न हुआ, क्योंकि यह आपने दिया था । इस शीर्षक के बिना क्या इस चर्चा का मूल्य कम हो जाता?
जवाब देंहटाएंयह भी चिट्ठाजगत का आकर्षण-व्यापार ही तो नही ?
कविता जी के अरविन्द मिश्रा को दिए गए जवाब से पूर्ण सहमति !
जवाब देंहटाएंॠषभ देव शर्मा जी की कविता पढ़ी। पढ़वाने का सारा श्रेय आपको ही जाता है। चित्र भी देखे। जलती स्त्रियों, कुछ अपनी व कुछ पराई की चीखें तो मेरे कानों में तब तक गूँजेंगी जब तक कान रहेंगे। न भी रहेंगे तो भी मन व आत्मा में तो गूँजेगीं ही। शीर्षक के उचित अनुचित में जाने की बजाए यदि स्त्रियों के साथ जो हो रहा है उस पर बहस की जाए तो बेहतर होगा। परन्तु हम तो सदा चिन्तित रहेंगे कि स्त्री का व्यवहार स्त्रियोचित है या नहीं, उसके शब्द, उसकी चीख स्त्रियोचित है या नहीं। शायद जलती स्त्री को जलाने वाला / वाली ( दुख है कि इस शुभ कार्य में स्त्रियाँ भी वैसे ही हिस्सा लेती हैं जैसे डायर के साथ भारतीय मूल के पुलिसकर्मी ) अन्तिम शब्द भी यही कहता होगा कि ' हे स्त्री, इतनी जोर से मत चीख, यह अभद्र ऊँचा स्वर तुझे शोभा नहीं देता। तू तो देवी है, धीरे से चीख! देख तेरा आँचल जल गया है, जरा देह को अपने झुलसे घुटनों से ही ढक ले! उँकड़ू होकर बैठ और स्त्री भाव से जल!'
जवाब देंहटाएंहम्म, बेहद सशक्त रचना पढ़ी। शेष तो लगभग सभी पहले ही पढ़ चुकी थी।
बस एक ही विचार आता है कि यदि प्रकृति से कोई गलती हुई तो वह मनुष्य को बनाने में हुई। शेष जीव किसी को केवल अपने भोजन के लिए मारते हैं। मनुष्य जैसा विकृत मानसिकता का प्राणी और कोई नहीं हो सकता। परपीड़ा के सुख में लिप्त मनुष्य सबसे अधम है। यदि पुरुष दोषी है तो उन्हें जन्म देने की हम भी कुछ सीमा तक दोषी हैं। हममें से एक बहुत बड़ा प्रतिशत अपनी संतान को सही जीवन मूल्य देने में सक्षम होते हुए भी बेटे की माँ कहलाने के दम्भ में खोकर उसे स्त्री के प्रति समानता व उसे भी एक व्यक्ति मान उसका समुचित आदर करना नहीं सिखाता। हम केवल अपने आदर व पुत्र की माँ होने के दम्भ में चूर रह जाती हैं। माना कि हमारी भी शुरू सी इस मानसिकता की ट्रेनिंग हुई होती है परन्तु कभी तो हमें अपनी उस ट्रेनिंग को भूल सुधार लाना ही होगा।
घुघूती बासूती
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकविता जी सन्दर्भ चाहे जो भी हों पर यह शीर्षक देकर आपने चिट्ठाचर्चा को अच्छे टेस्ट में नहीं लिया ! इस दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है पर क्या हम भाषा और शब्द का कोई भी शिष्टाचार न पालें -होली कल है ऐसे घिनौने शीर्षक को लगाकर आप किस नारी विमर्श को दिशा दे रही हैं ! सत्य घिनौना भी हो सकता है पर क्या हमारी परम्परा सत्यम शिवम् सुन्दरम की नहीं रही है ?
जवाब देंहटाएंआप साहित्य की होकर सौन्दर्यबोध को माय फ़ुट कह रही हैं -कौन इसका अनुमोदन करेगा !
आप लोग अरण्य रोदन करती रहिये -भारतीय मनीषा ने उसे ही अंगीकार किया है जो सत्य है किन्तु सुन्दर है -यही प्रेय है और यही हमारे लिए श्रेय है ! हम नारी को सौन्दर्य की देवी भी मानते हैं और जननी भी -और उस रूप में बह पूज्य है !
किमाधिकम आप हिन्दी की विदुषी हैं आपसे क्षमां याचना के साथ यह कह रहा हूँ !
मुझे मालूम है कि अधिकाँश हिन्दी के साहित्यकार कितने सीमित परिधि में चिंतन मनन करते हुए रह जाते हैं ! कितने कम हैं जो हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की परम्परा जी रहे हैं !
आप कहिये जो कुछ कहना हो मगर मैं इस शीर्षक को कुत्सित और अश्लील ही मानूंगा !
इट वाज इन बैड टेस्ट माम !
अब आ पहुंचे हैं नारी की खूबसूरत टांगो तक ......
नारी-नितम्बों तक आ पहुँची सौन्दर्य यात्रा !
ये दो शीर्षक अरविन्द जी के ब्लॉग से हैं । अब ये शील या अश्लील किस परिधि मे आते हैं । अरविन्द जी अपने ब्लॉग पर कहते हैं की "ये वे जैवीय जानकारियाँ हैं जो मुझे पढ़ते वक्त लगीं कि मैं इन्हे दूसरों तक भी पह्चाऊँ बस यही हेतु है" अपने ब्लॉग पर एक कमेन्ट मे और यहाँ वो कविता को बता रहे हैं की इट्स इन बाद तसते । कविता और घुघूती जी ने अपने कमेन्ट मे सब साफ़ साफ़ कह दिया पर क्युकी अरविन्द जी के मुह का स्वाद ख़राब हो गया था सो मैने ये लिंक खोज कर यहाँ दिये हैं । आज की चर्चा एक बहुत ही अच्छी चर्चा हैं और मुझे फकर हैं कि हमारे बीच एक इतनी काबिल महिला ब्लॉगर हैं
सच्चाई से मुह मोडने वालों को आईना दिखाने का काम किया है। बधाई।
जवाब देंहटाएंइस चर्चा के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएं@ रचना जी,
जवाब देंहटाएंलिंक्स के लिए धन्यवाद।
वस्तुत: जब तक वासना बढ़ाने व उसके निमित्त इन शब्दों का प्रयोग होता है, तब तक कोई आपत्ति नहीं, जब तक सांकेतिक अश्लीलता के तहत यह सब स्वयं किया जाता है, तब तक भी सब जायज है, पर कोई इनकी इस मनोवृत्ति पर आघात करने के लिए इन शब्दों का प्रयोग करे तो उसे शिक्षा देने व मर्यादा और साहित्य पढ़ाने का वसर नहीं चूकते।
अत: इन सब आपत्तियों की परवाह करना मुझे आवश्यक नहीं लगता। किसी को अच्छा लगता है बुरा - यह मेरे विवेक को विचलित नहीं करता न कर सकता। जिसे जो समझना है समझे। मैंने ऐसा लिखा है और डंके की चोट पर लिखा है। जिसका जो जी चाहे पढ़े, न चाहे- न पढ़े।
सत्य और यथार्थ इनसे डिगा नहीं करता।
बहुत बढ़िया चर्चा रही।
जवाब देंहटाएंकई महीनों के बाद मैने चिट्ठाचर्चा के लगभग सभी चिट्ठे पूरे पढ़े और अधिकांश पर लम्बी टिप्पणियां भी की।
धन्यवाद कविता जी।
Bahut hee achchhee charchaa hai kavitaji,
जवाब देंहटाएंpar kash hamare paas itane bure mudde na hote,
Man bahut dukhee ho jataa hai.
mahila divas koi festival nahee hai, ki holi, dewaali kee tarah badhaaeeyaa kah dee jaay, khush ho liyaa jaay.
mahilaa divas stri kee kabhee na haarne waalee jijivisha kaa naam hai, khoon aur aanshuo se likhe itihaas kee daastaan. aur sirf agar kuch positive hai, to vo hai "Hope", jo sab kuchh khtam hone par bhee bachee rahatee hai.
best regards
क्या बात है हिमांशुजी और अरविंद जी, आप शीर्षक से ही इतना चकरा गए कि कविता ही पढना भूल गए। किंडरगार्डन से निकले और परिपक्वता का प्रमाण दीजिए। शीर्षक से तो आपको इस चर्चा की गम्भीरता का पता चलना ही चाहिए था। खैर, चलिए नीचे उतरिये और इस चर्चा के पैरों तक पहुंचिए और कविता पढ़ डालिए। शायद आपकी मानसिक धुंध छंट जाएगी और आप इस चर्चा के पैर चूमने लगेंगे। फिर भी यदि आप विचलित नहीं हुए तो मजबूरन कहना पडेगा - आप की समझ को ‘माइ फुट’।
जवाब देंहटाएंपिछले दोतीन महीनों में चिट्ठाचर्चा नित नये आयाम लेकर आ रही है. यह बहुत ही खुशी की बात है. इतना ही नहीं चर्चा को महज दसबीस आलेखों की सूची के रूप में न देकर आजकल लगभग हर चर्चा एक तकनीकी-विश्लेषण का रूप ले रहा है. यह एक प्रशंसनीय बात है एवं उत्सुक पाठक को विविधता से भरी सामग्री प्रदान करती है.
जवाब देंहटाएंइस परंपरा में आज आप ने एक अच्छा और चिंतनीय आलेख प्रस्तुत किया है. आप ने कहा
"आज की चर्चा में प्रयास था कि स्त्री प्रश्नों पर केंद्रित सभी अधिकाधिक प्रविष्टियों को समेकित कर सकूँ, किंतु यह संभव नहीं हुआ।"
इसके बावजूद आप ने जो छापा है वह अपने आप में काफी जानकारीपरक एवं चितन को प्रेरित करने वाला आलेख है.
उम्मीद है कि सारे चिट्ठाकार इस तरह का वैविध्य जारी रखेंगे.
हां, आलेख का ले-आऊट गडबडा गया है. तकनीकी रुचि वाले किसी व्यक्ति को इन बातों को सही कर देना चाहिये जिससे पठनीयता बढ जाये.
सस्नेह -- शास्त्री
पोस्ट के असहज कर देने वाले शीर्षक से मेरी असहमति दर्ज़ करें कृपया! धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंकविता जी आप की चर्चा और सभी टिप्पणियां पढीं.
जवाब देंहटाएंपरन्तु मेरी 'छोटी सी 'निरीह बुद्धि इस शीर्षक के तर्क को गले उतार नहीं पाई.
आप को मेरे मत से फरक नहीं पड़ेगा यह मैं जानती हूँ लेकिन अगर यही शीर्षक इन्हीं तर्कों के साथ अगर किसी पुरुष ब्लॉगर ने दिया होता क्या तब भी आप और आप के समर्थक उसे सहर्ष स्वीकारते ?
मुझे अपना मत देना था सो चुप नहीं न बैठ सकी .अगर इस का कोई और शीर्षक भी रखा जाता तब भी आप का सन्देश सब तक पहुँचता ही..हाल ही में एक बडे लेखक ने हिंदी के बारे में हिंद युग्म की बैठक में ऐसा कुछ कहा था..और अब आप ने भी यह साबित कर दिया सिर्फ कुछ कताबें लिखने और साहित्य के मंच तक पहुँचने से कोई बड़ा नहीं हो जाता.बहुत से 'तथाकथित बडे'लोगों की सोच पर विपरीत असर भी पड़ जाता है...
अगर इस मत से कोई मुझे केजी क्या नर्सरी कक्षा का बच्चा भी समझे --चलिए अनपढ़ समझ लिजीये.कोई बात नहीं..
जवाब देंहटाएंसच कहूँ तो 'दी गयी कविता की पंक्तियाँ पढ़ कर मन विचलित जरुर होता है मगर शीर्षक पढ़ कर इस चर्चा को शीर्षक देने वाला संवेदनहीन लगा.
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा सचमुच सार्थक और विचारोत्तेजक रही.
जवाब देंहटाएंचर्चा पर चर्चा ने भी इसकी सटीकता को ही प्रमाणित किया है.
इस सफलता के लिए चर्चाकार को बधाई!
चर्चा के चौपाल - धर्म का स्मरण कराते हुए
'सहभागिता' के तत्व की ओर ठीक ही ध्यान दिलाया गया है.
कभी-कभार सूचनाओं का खिलवाड़ अच्छा लग सकता है ,
लेकिन माध्यम की सामाजिक सार्थकता
तो वैचारिक उद्वेलन उत्पन्न करने में है.
अतः इस प्रकार की चर्चा स्वागतेय है.
यह तेवर बना रहे !
सच ही , स्त्री के साथ सोना भर काफी नहीं.
स्त्री के साथ जागना सीखना चाहिए.
स्त्री की चिन्तनशीलता को नकार कर
कभी पूर्ण सत्य का साक्षात्कार
संभव नहीं - न कवि के लिए, न कलाकार के.
न, संस्कृति का संरक्षण अकेला पुरुष नहीं कर सकता.
हाँ, वह आचार संहिताएँ और फतवे ज़रूर जारी कर सकता है.
असल जिम्मेदारी तो स्त्री ही को उठानी होती है.
[अपवाद सदा रहे हैं.]
लोकतंत्र और मानवाधिकारों की दुहाई के बीच
आज भी
स्त्री जातक को अवसरों की असमानता का दंश
झेलना पड़ रहा है. इस तथ्य को बार बार रेखांकित करने की ज़रुरत है.
इस चर्चा में विश्व महिला दिवस विषयक लेखन के बहाने
उक्त सत्य का दिग्दर्शन भी निहित है.
स्त्री जातक के रूप में जन्मने के लिए
अच्छे और बुरे देशों की सूची
आँख खोलने वाली है.
काश , जन्म का देश चुनना हमारे हाथ में होता.
[वैसे मेरे देस में तो आज भी स्त्री यही प्रार्थना करती है -
अगले जन्म में स्त्री न बनना पड़े !]
स्त्री होने की यातना को
शूकरी के शिकार की भयावह स्मृति के सहारे
जिस तरह यहाँ साकार किया गया है,उससे
चर्चाकार की संवेदनशीलता का भी पता चलता है.
कांगो की औरतें संभवतः
आग की लपटों में भूनी जा रही शूकरियों से भी
अधिक भयानक नरक जी रही हैं.
यह नरक उन्हें मिला है पुरुषों की राज्यलिप्सा के परिणाम में :
वह अमानुषिक राज्यलिप्सा जो
सदा से अपनी जय - पराजय का इतिहास
औरतों के जननांग पर फहराती अपनी विजय - पताकाओं
के रूप में अंकित करती आई है.
यह अभिव्यक्ति निरर्थक होती यदि
पाठकों की संवेदना को न झकझोर पाती,
या किसी सहृदय की सौन्दर्यदृष्टि को आहत न करती.
धिक्कार है उस सौन्दर्यबोध को जो सृष्टि के इस
पुरुषजनित विद्रूप पर विचलित-विगलित नहीं होता !
और हाँ , श्लील - अश्लील का द्वंद्व
कितना गैर - मौजूँ है
होली के अवसर पर इसे
अलग से बताने की ज़रुरत नहीं होनी चाहिए!
होली की नवरंगी शुभ कामनाओं सहित -
ऋ.
ई-मेल से प्राप्त सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की टिप्पणी!
जवाब देंहटाएं__________________________________________________
चर्चा बेहद जोरदार और प्रासंगिक है। स्त्री विमर्श से जुड़े चिठ्ठों का संकलन बेमिसाल है। आपको कोटिशः बधाई।
ऋषभ देव शर्मा जी की कविता तो जैसे नारी समाज की दुस्सह पीड़ा को हमारे कलेजे में लावा बनाकर उड़ेल देती है। मै मानता हूँ कि इस कविता में जिस यातना का वर्णन किया गया है वह किसी सभ्य समाज में घटित नहीं हो सकती। यदि समाज वास्तव में सभ्य है तो स्त्री के प्रति ऐसी कुत्सा होती भी नहीं है। यह अपकृत्य तो किसी राक्षसी या जंगली जीवन में ही घटित होता होगा। इसीलिए मैं इस दुराचार/अत्याचार को स्त्री बनाम पुरुष का मसला कहने के बजाय एक पाशविक समूह में शक्तिशाली द्वारा कमजोर के विरुद्ध किये जाने वाले नाजायज बलप्रयोग की संज्ञा देना चाहूंगा। इसलिए मेरा मानना है कि इस बर्बर कृत्य को पूरी पुरुष जाति के साथ जोड़ देने की अधीरता ठीक नहीं है।
आखिर इस कविता के भीतर स्त्री जाति के प्रति जो सम्वेदना उड़ेली गयी है वह भी तो एक पुरुष ने ही किया है। यहाँ सबने इसका मुक्तकंठ से जयगान किया है तो उसमें भी पुरुषों की संख्या अधिक ही है। किसी भी विवेकशील व्यक्ति द्वारा इस गलत बात को सही ठहराने का प्रयास नहीं किया जा सकता। किन्तु शीर्षक में जिस बात का उद्घोष किया गया है उसको पढ़कर सहसा समूची पुरुष जाति कठघरे में खड़ी दिखने लगती है। कविता के भीतर इसके सन्दर्भ तक जाने से पहले यह वाक्य कलेजे में गर्म सलाख की भाँति प्रवेश करता महसूस होता है जो मन में एक सामान्य अपराध बोध का भाव सा उत्पन्न करता है।
डॉ. अरविन्द ने अपनी आपत्ति चाहे जिस भाव से दर्ज की हो लेकिन शीर्षक के रूप में यह लांछित करता भाव किसी भी पुरुष को शर्मसार कर सकता है भले ही उसकी भावनाएं ऋषभदेव जी जैसी ही क्यों न हो।
--
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
मित्रो,
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा पर आई प्रतिक्रियाएँ आपके स्नेह,सान्निध्य का पता देती हैं। यह आवश्यक नहीं कि सब प्रशंसा ही करें, सराहें ही। न ही किसी विचार, अनुभूति, प्रश्नाकुलता या सम्वेदना को सराहना-मात्र के लिए शब्दबद्ध किया जाता है। शब्दबीज तो बोए ही इसलिए जाते हैं कि उन बीजों से और और विस्तार हो। ये शब्द किसी को स्थितियों के प्रति विद्रोह के लिए उकसा सकते हैं, किसी को विचलित करते हैं, किसी को स्थितियों पर सोचने को विवश करें, या झकझोरते-कचोटते भी हैं तो शब्द का प्रयोग उद्देश्यपूर्ण सिद्ध होता है।
आज प्राप्त आपकी प्रतिक्रियाओं ने स्वयं मेरे मन को बहुत मार्मिकता से छुआ।
सामाजिक प्रश्नों पर मतभेद होना बुरा नहीं है, यह हमारी वैचारिकता तो प्रमाणित करता ही है,अपनी अपनी प्रतिबद्धताएँ भी प्रकट करता है, और उस से भी बढ़कर हमें हमारे अन्तर्मन के सामने दर्पण रखने की आवश्यकता भी बताता है।
इस प्रविष्टि की आपकी टिप्पणियों द्वारा मुझे अत्यधिक हर्ष इसलिए भी हुआ कि इसने कई आत्मीयों व मित्रों से सम्वाद का अवसर उपस्थित किया, जैसे कह रहे हों कि हम तुम्हारे साथ हैं। यह बड़ा बल व सुख देता है।
रही लक्ष्य व उसकी पूर्ति की बात तो वैचारिक उद्वेलन पैदा करने में सफल होना ही उसकी सफलता है, अत: यह पुरस्कार बहुत है, और यह मिल चुका। आभारी हूँ!!
मेरी चर्चा पर टिप्पणी न करने का अपना निश्चय अनूप जी ने फिर दोहराया है।
सिद्धार्थ जी स्वयं यदि पत्र लिख सकते हैं तो उन्हें यहाँ लिखने में क्या संकोच है?
मित्रो, मेरी ओर से आभार स्वीकारें। होली मंगलमय हो।
स्नेह बनाए रखें।
कविता जी आज की चर्चा निश्चित तौर पर इस साल की सबसे बेहतरीन चर्चा है और हम में से कई सहेज के रखेगे/रखेगीं। इस चर्चा में छुपी संवेदनाएं , चित्कार कानों के पर्दे फ़ाड़ रही है। अनूप जी ने ठीक कहा कि शीर्षक गर्म सलाख की तरह सीने में उतर जाता है पर शीर्षक एकदम सटीक है इस से बेहतर शीर्षक इस चर्चा के लिए कोई और हो ही नहीं सकता था। घुघूती जी के कमेंट से एकदम सहमत्।
जवाब देंहटाएंऋषभ जी के आभारी है कि उन्हों ने न सिर्फ़ स्त्री के दर्द को पहचाना बल्कि उसे इतनी मार्मिक कविता के रुप में ढाला। ये कविता खुद अपने आप में एक तलवार है जो न जाने कितने लोगों की आत्मा को कचौटेगी। एक बार फ़िर आप का आभार इस चर्चा के लिए और होली की शुभकामनाएं । वैसे इस चर्चा को पढ़ने के बाद होली मनाने क मन तो नही रहा
I am really surprised with how thoughtful this article is.
जवाब देंहटाएं"बचपन में खेलते खेलते या खाते-खाते, या कई बार सोते में ही (मुख्य तो यही क्रम होता है, उस उम्र में) एक आवाज, बल्कि आवाज़ भी क्या चीत्कार सुनाई पड़ा करती थी, यह चीत्कार इतनी भयंकर व इतनी तीखी होने के साथ साथ इतनी दीर्घकालिक होती कि कई बार उस चीखने वाले/वाली से ही घृणा से भर जाता मन। उस चीख /चीत्कार की खोज में दौड़ते एक दिन पाया कि .... की बस्ती के कुछ लोग एक सूअर/ सूअरी को पकड़ने के लिए धड़े व दल में उस मोहल्ले से इस मोहल्ले तक की घेरेबंदी वाली दौड़ लगा रहे हैं और हमें घृणित प्रतीत होने वाला वह प्राणी भाग भाग कर बेहाल दुरावस्था में है| हर बार अंत में वह पकडा जाता /जाती। अंत उसका यही होता कि उस बिरादरी के लोगों के यहाँ होने जा रहे आयोजन के लिए उसे जिंदा जला कर भूना जाता। वह पूरी प्रक्रिया तो जान ने का कभी दुस्साहस नहीं हो पाया किंतु उसके चारों पैर बाँध कर उसे अग्नि के हवाले किए जाते तक देखा। भीषण दृश्य होता था। हवा में दुर्गन्ध व चीत्कारें। कई कई रात डर व पीड़ा में कांपते गुजरते। बचपन बीता, घर छूटा और वह चीत्कार व दृश्य भी।"
I am extremely shocked at this kind of harassment. It's very heart touching.
Good luck ma'am.
यह चर्चा कई मायने में उल्लेखनीय है।
जवाब देंहटाएं१.सबसे पहले तो इस बात के लिये कि कविताजी ग्लोबल से लोकल हुईं इस चर्चा के बहाने। :) कविता्जी की चर्चा में हिंदी से अलग भाषाओं की चर्चा पढ़ना अच्छा लगता है लेकिन यह भी लगता है कि कुछ तो चिट्ठों की चर्चा हो भाई। इस लिहाज से यह चर्चा बहुत अच्छी लगी।
२.कविताजी ने जो लिखा -चर्चा का यह मंच मुझे सर्वाधिक सामूहिक, साँझा व सार्वजनिक प्रतीत होता है। इसकी तुलना केवल गाँव की चौपाल से की जा सकती है। जहाँ किसी भी सार्वजनिक हित की बात के लिए साँझे व सामूहिक प्रयत्न किए जाने की सर्वाधिक संभावनाएँ होती हैं, अवसर होते हैं, उपयोग होता है। इन अर्थों में चिट्ठाचर्चा का यह मंच सामूहिक प्रश्नों, सूचनाओं के आदान-प्रदान निराकरण, हित-अहित, व्यवस्था, पारस्परिकता आदि का केन्द्र के रूप में निर्णायक भूमिका निभाने की प्रबल संभावनाओं से युक्त है। इस सलाह ने एक बार फ़िर से यह सोचने को बाध्य किया है कि कैसे इस मंच का और बेहतर उपयोग किया जा सकता है।
३. चिट्ठों की चर्चा अच्छी लगी। महिला दिवस के अवसर पर लिखे कुछ अच्छे लेखों का संकलन हो गया।
४. इस चर्चा के बहाने शर्माजी की मार्मिक और संवेदनशील और स्तब्ध कर देने वाली कविता पढ़ने को मिली जो शायद काफ़ी दिन तक बेपढ़ी रह जाती। शर्माजी को इस कविता के लिये बधाई! कविता जी को यह कविता पढ़वाने का शुक्रिया।
५.शीर्षक पर बहुत बाते हुईं। सबके अपने मत हैं। शीर्षक पहली नजर में चौंकाने वाला लगता है लेकिन कविता, जो कि चर्चाकार की पसन्द है , पढ़ने के बाद ऐसा कुछ नहीं लगता। अश्लील और जबरदस्ती ध्यानाकर्षण का प्रयास तो कतई नहीं जैसा कि कुछ लोगों ने समझा और कहा। शर्माजी की कविता को केन्द्र में रखकर कविताजी ने चर्चा की तो पंक्तियां उनको उसकी क्रेद्रीय महत्व की /रेखांकित करने लायक लगी वह उन्होंने शीर्षक रूप में लिया। यह उनका खुद का गढ़ा हुआ शीर्षक नहीं है। अपनी एक पसंदीदा कविता की जो पंक्तियां उनको सबसे जरूरी और रेखांकित करने लायक लगीं वह उन्होंने की। उनकी पसंद से नाइतफ़ाकी रखना अगर पाठक का अधिकार है तो एक चर्चाकार की हैसियत से अपनी चर्चा का शीर्षक रखना उनका अधिकार है।
६.इसी क्रम में रमानाथ अवस्थीजी की कविता भी याद आ रही है- मेरी कविता के अर्थ अनेकों हैं/तुमसे जो लग जाये लगा लेना। इस लिहाज से शीर्षक से जिसको जो मंतव्य समझ में आया उसने लगाया। अपनी बात कहने के लिये हर कोई स्वतंत्र है।
७. कविताजी की इस बात के लिये खास तौर पर तारीफ़ करना चाहूंगा कि उन्होंने जो सही समझा वह लिखा और उसके पक्ष में तर्क रखे। जो शीर्षक उन्होंने रखा वह शायद स्थितियों को तल्खी से महसूस करने की क्षमता के कारण रहा। कविता पढ़कर स्तब्ध रह जाने के बावजूद अगर शायद अगर मैं इसकी चर्चा करता तो शायद मेरी चर्चा के सूत्र या शीर्षक इस भाव के आसपास होते
औरतें औरतें हैं
न बेटियाँ हैं, न बहनें;
वे बस औरतें हैं
बेबस औरतें हैं.
दुश्मनों की औरतें !
लेकिन कविताजी ने जो शीर्षक रखा वह शायद एक स्त्री के तौर पर एक आक्रोश को भी ध्वनित करने का प्रयास है। यहां शीर्षक में स्त्री का असहाय विलाप नहीं है। बर्बरता की भर्त्सना है। इस लिहाज से मुझे कि कविता जी की शीर्षक न कहीं से अश्लील लगा न जबरियन सनसनीखेज बनने का प्रयास!
८. अरविंदजी की टिप्पणियां मजेदार लगीं। लेकिन हम यह तय नहीं कर पाये कि इन टिप्पणियों को कैसे लें? ये टिप्पणियां बड़ी गम्भीर टाइप की हैं और वे पहले लिख चुके हैं- मैं ठहरा विज्ञान का सेवक ,साहित्य की मेरी समझ अधकचरी है और ज्ञान पल्लवग्राही विज्ञान के सेवक को विज्ञानेतर अखाड़े में तर्क पूर्ण बात कहने का प्रयास देखकर बड़ा अच्छा लगा।
९.कविताजी, हम टिप्पणी कर ही रहे थे तब तक आपकी शिकायती टिप्पणी आ धमकी। आपको ई त मालूम होना चाहिये कि हैदराबाद जित्ते कम्प्यूटर यहां कानपुर में तेज नहीं चकते। सिद्धार्थजी भी जब दो बार टिपियाने में असफ़ल रहे तब उन्होंने मेल से टिप्पणी भेजी और फ़ोन करके अनुरोध किया कि इसे प्रकाशित किया जाये। अब बताइये आपके इस सवाल का क्या मतलब रह गया?-सिद्धार्थ जी स्वयं यदि पत्र लिख सकते हैं तो उन्हें यहाँ लिखने में क्या संकोच है? आप अपने मन से निस्संकोच निष्कर्ष निकाल लीं कि सिद्धार्थ संकोच कर रहे हैं टिपियाने में! ई त अच्छी बात नहीं है जी। एक तो बेचारा टिपियाने में पसीने-पसीने हो गया दूसरा आपके इस डायलाग ने पानी-पानी कर दिया होगा। बहुत नाइन्साफ़ी है ये जी! :)
पुन: एक बार फ़िर शानदार चर्चा चर्चा के लिये कविता जी को बधाई और सुधी पाठकों/ टिप्पणीकर्ताओं धन्यवाद!
Anawarat shriddha ka karan hai nari
जवाब देंहटाएंmujhe inake shakti par kadapi sandeh naheen
पोस्ट का शीर्षक पढते ही दिमाग हिल गया...बाकि चर्चा अच्छी रही
जवाब देंहटाएंएक एक बात से इत्तेफाक, दंरिदें हैं ये सब, ये देख कर इतना ही कह सकता हूँ, स्त्रियाँ शायद जानवरों के बीच ज्यादा महफूज रहें।
जवाब देंहटाएंचर्चा के शीर्षक पर अल्पना की बात से सहमत, अव्वल तो मैं अपनी किसी पोस्ट के लिये ऐसा शीर्षक नही रख पाता, लेकिन अगर रख दिया होता भले ही मेरे इरादे कितने नेक ही क्यों ना होते अब तक तो मेरी पोस्ट समेत मेरे विचारों पर बमबारी हो चुकी होती।
असहमति सिर्फ शीर्षक से है, कटेंट से नही। बावजूद इसके कि इस तरह की रिपोर्ट पहले ही पढ़ चुके हैं, उन चित्रों (महिला, पुरूष और बच्चों) से भयावह चित्र देख चुके हैं, ऋषभदेव की कविता झकझोर जाती है। इक्सवीं शताब्दी में भी कहीं इस विश्व में एक बबर्र समाज रहता है।
लेकिन इसमें भी कोई दो राय नही शीर्षक की वजह से ही चर्चा की ज्यादा चर्चा हुई, साथ ही मुझे लगता है कि आगे अगर कोई पुरूष इस तरह के शीर्षक रखता है तो महज शीर्षक को लेकर उसका विरोध करना बेमानी ना हो जाये। इतना जरूर है कि अपने लिखे को कोई नाम देने (शीर्षक) का पूरा अधिकार उसके लेखक (चर्चाकार, ब्लोगर) को है, उससे हम सहमत या असहमत हो सकते हैं।
विद्वानों ने अपनी राय दे ही दी है -आक्षेप महज शीर्षक पर ही है चर्चा की उत्कृष्ठता अपनी जगह है ! ऋषभ की कविता तो खैर लाजवाब है पर क्या वह एक परिप्रेक्ष्य विशेष में अतियथार्थ का वर्णन तो नहीं !
जवाब देंहटाएंहोली का अवसर था और ऐसे शीर्षक से बचना था ! कोई भी अति कुत्सित और उज्जड पुरुष भी ऐसे शीर्षक को कम से कम होली के अवसर पर देने को सोच भी नहीं सकता था ! और अगर किसी ने दिया भी होता तो .....मैं उसकी कल्पना से भी काँप उठता हूँ -यहाँ की महिला सक्रियकें (एक्टिविस्ट ) सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जातीं ! यह पुरुष ही है जो शायद अधिक क्षमाशील भी है !
सी एम् प्रसाद जी आपके आक्रोश के प्रति मेरे मन में न जाने क्यूं ढेर सा नेह ही उमड़ आया है -कितने मासूम हैं आप ! साथ रहते हैं सब नीर क्षीर विवेक हो ही जयेगा !
अल्पना जी .तरुण जी सिद्धार्थ जी सभी ने मन की बात कही .जाहिर हैं सामान सोच के लोग मिलते हैं तो अनिर्वचनीय आनंद मिलता है !
चलिए आप सभी को होली की रंगारंग शुभकामनाएं ! गिले शिकवे दूर कीजिये हम तो गले लगने को तैयार बैठे हैं ! क्या आप हैं ?