सोमवार, मई 25, 2009

रूठें कैसे नहीं बचे अब मान मनोव्वल के रिश्ते


समाज में ‘आधुनिकता’ के प्रवेश के साथ जिन नवीन मूल्यों (?) ने अपना स्थान बनाया उन्होंने यों तो समस्त विश्व को एक बाज़ार में रूपान्तरित कर दिया किन्तु भारतीय समाज पर इसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव इसलिए हुआ क्योंकि इस देश का मुख्य आधार {इसका पारिवारिक ताना-बाना व संबन्धों के प्रति एक निष्ठ समर्पण भाव (सामूहिकता व सामासिकता )} ही दरक गया। आज हम जिस आधुनिक समाज मॆं जी रहे हैं, उसमें परिचय तो बहुतेरे हैं, सम्पर्क भी बेशुमार हैं, सम्पर्कों से लाभ लेने की प्रगति भी बहुतेरी ऊपर को है, इन्टरनेट पर नेटवर्किंग का जाल बिछा है, ......... प्रतिदिन फ़ोलोवर्ज़, फ़्रेंडज़, ...या ग्रुप -मेम्बर्ज़ बढ़ते ही जाते हैं...... परन्तु इनमें ‘अपने’ कितने हैं, कितने सच्चे साथी है? अस्तु ! मुद्दा विचारणीय है।


मैंने इस दृष्टि से हिन्दी के चिट्ठों को तलाशा कि सम्बन्धों या रिश्तों को लेकर हिन्दी- चिट्ठाकारों की चिन्ताएँ किस प्रकार की व कितनी हैं। जो परिणाम सामने आए, आप भी उन्हें देखें। यह सामग्री सम्पूर्ण नहीं है, न अन्तिम है। यह गत कुछ समय में आई थोड़ी सामग्री है। मैं बीच में बिना कोई टिप्पणी किए ज्यों का त्यों इसे क्रमवार नीचे प्रस्तुत कर रही हूँ। यह कविता,गज़ल, विचार,संस्मरण, समाचार-विश्लषण आदि रूपों में है।






एक रिश्ता जो ठहर गया: ओम् आर्य

वो पानी नही ठहरा.......

हजार दफा पोंछी आँख
पर
बहती रही
बारिश की नजर मुसलसल
गुबार के काले बादल
बरस कर खाली हो गए
पर सुबकिया थमी नहीं
ना सुबकिया ठहरी और ना वो पानी ठहरा
एक रिश्ता था जो बस ठहर गया था



रिश्ते : जेन्नी शबनम
रिश्तों की भीड़ में,
प्यार गुम हो गया है |
प्यार ढूँढती हूँ ,
बस, रिश्ते हीं हाथ आते हैं |






रिश्ते : निर्झर नीर
लोग अक्सर मुझपे फिकरे कसते हैं
पडा रहता है टूटी खाट मैं
बुन क्यों नही लेता इसे फिर से
कैसे कहूँ क्यों नही बुन लेता ?
सोचता हूँ तो हाथ कांपने लगते है
ये खाट और रिश्ते मुझे एक से लगते हैं !




रिश्ता
: ऋचा शर्मा
उस ठिठुरते रिश्ते पर, कोई और रिश्ता अपने रहमो करम की चादर को तो ढकता है !
लेकिन ..........
फिर भी उस चादर में से बारिश का पानी बूँद बनकर टपकता है !



अनाम सा रिश्ता


अनकहे रिश्ते , और उम्रों का इंतज़ार...: नाम गुम जाएगा

रिश्ते...
जनम के, कर्म के, सोच के, जिस्मों के, दोस्ती के
और बहुत से रिश्ते....
टूट जाने वाले...
टूट सकने वाले...
जिनका होना हम नही मांगते, वो रिश्ते...
जिन्हें चाहते हैं, लेकिन पा नही पाते..., वो रिश्ते...
रिश्ते
अपने होने की कीमत मांगते हैं....
अलग अलग शक्लों मैं....
अब वो चाहे कुछ भी हो....
कभी कभी सालों लंबे इन्तेज़ार की शकल मे....
और अगर वो इन्तेज़ार ख़तम होता लगते हुए भी लंबा खिंचता चला जाए
अपनी अहमियत बताते हैं....
और हमें तड़पाते हैं...
कब ख़त्म होगा ये...
इंतज़ार....
और समाज मे तुम्हे दे पाऊंगा, तुम्हारा रुतबा और तुम्हारा नाम....
और तब तक
अनकहे रिश्ते , और उम्रों का इंतज़ार...
और इस सब के दरम्यान , सिर्फ़ प्यार






ये रिश्ते : - ऋतु जैन

ये रिश्ते ,ऐसे हैं जो,
छूटकर भी,छूटते नहीं
कुछ बन्धन ऐसे हैं जो ,
टूटकर भी टूटते नहीं,
तुम को दिल का हाल,बता सकते अगर,
तो यूँ लिखकर बयां करते नहीं,
अपनी ,हर खुशी तेरी आंखों में,
बेवफा,हम ढूँढा करते नहीं।



रिश्ते बस रिश्ते होते हैं : आम आदमी
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
कुछ इक पल के
कुछ दो पल के

कुछ परों से हल्के होते हैं
बरसों के तले चलते-चलते
भारी-भरकम हो जाते हैं

कुछ भारी-भरकम बर्फ़ के-से
बरसों के तले गलते-गलते
हलके-फुलके हो जाते हैं

नाम होते हैं रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं
रिश्ता वह अगर मर जाये भी
बस नाम से जीना होता है

बस नाम से जीना होता है
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं



कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पर : अरुण कुमार

कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पर
कुछ बिना मांगे मिलतें हैं
कुछ हम बनातें हैं।

कुछ रिश्तो में अजीब सी घुटन
साथ रहकर भी कोसो की दूरी

एसा जैसे नदी के दो किनारे
साथ-साथ चलतें हैं, मिलने को तरसते हैं
निभाते हैं एसे सजा हो जैसे

प्यार, विश्वास, ममता नही
खून के रिश्ते बेमानी से लागतें हैं

लेकिन कुछ रिश्ते जीवन में खुशियां भरते हैं

ना खून का रिश्ता, ना भाषा का
ना धर्म एक, ना रीत-रिवाज
फिर भी उनका साथ कितना शुकून देता है

जहां सारे रिश्ते बैमानी लागतें है
वहीं कुछ रिश्ते ..............





रिश्तों की नई दुनिया : अखिलेश्वर पांडेय
कैरियर को नई ऊंचाइयां देने, भागदौड की जिंदगी में लगातार समय की कमी हमारी नयी पीढी की आम समस्या है। खासकर शहरी युवाओं के पास रिश्ते को निभाने के लिए समय का अभाव है। दूर के रिश्तेदारों को कौन कहे बच्चे अपने मां-बाप के साथ भी काफी कम समय बिता पाते हैं। ऐसे में उनकी संवेदनाएं रिश्ते के प्रति खत् होती जाती है। कई बार मां-बाप के पास भी बच्चों के लिए समय होने के कारण बच्चे इंटरनेट को अपना साथी मानने लगते हैं। हर जिज्ञासा, हर समस्या के लिए उनको इंटरनेट से बढिया साथी कोई दूसरा नहीं लगता।

यही वजह है कि सोशल नेटवर्किंग साइट- आरकूट, यू-टयूब, ब्लाग और मेल दोस्ती की पींगे बढाने, किसी समस्या के लिए सलाह-मशविरा करने और आम राय बनाने के लिए न्यू जेनरेशन को सबसे आसान राह नजर आता है। अगर देखा जाये तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है, पर इस सबके बीच न्यू जेनरेशन अपनों से काफी दूर होता जा रहा है। उसे नहीं पता कि उसके घर में क्या हो रहा है, उसके मां-बाप किस समस्या से गुजर रहे हैं, उसके लिए उसके रिश्तेदार क्या धारणा रखते हैं, उसे कभी-कभार अपने सगे संबंधियों का हालचाल भी जानना चाहिए। इसका असर तत्काल भले दिखे पर हमारी निजी जिंदगी पर पडता जरूर है। परिवार एक अमूल् निधि है इसे बचाये बनाये रखना हमारा पुनीत कर्तव् है।



परिवार कहाँ जाएँगे, रिश्ते कहाँ जाएँगे : कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

हमें विशेष यह नहीं लगा कि दोनों वृद्ध अपने आपको किस तरह यहाँ एक दूसरे को सहारा देते हुए लाये होंगे वरन् जिस बात ने हमें चकित किया वह यह थी कि वह स्त्री बड़े ही मातृत्व भाव से उस पुरुष की देखभाल कर रही थी। कमरे में होने के बाद भी वह वृद्ध पुरुष के सिर को लगातार कपड़े से ढाँकती जाती थी, बीच-बीच में बड़े ही दुलार के साथ उसके सिर पर हाथ भी फिरा देती। पुरुष उस समय बड़े ही निरीह भाव से उसको देख लेता और बीच-बीच में अपनी आँखों की नमी को पोंछ भी लेता।
उस महिला का थोड़ी-थोड़ी देर में पानी ले आना, कभी साथ में लिये छोटे से पंखे से हवा करने लगना, कभी बातों के द्वारा उस व्यक्ति को सांत्वना देना और उस व्यक्ति के द्वारा भी बीच-बीच में पानी की बोतल से (जिसमें रखा पानी निश्चय ही गर्म हो चुका होगा) पानी निकाल कर उस महिला को देना, उसके हाथ से पंखा लेकर उसको हवा करने से रोकना, अपनी स्थिति को लेकर उस महिला को भी हिम्मत बँधाना बतला रहा था कि दोनों में किस कदर प्रेम-स्नेह है।




निभें तो सात जन्मों का,अटल विश्वास हैं रिश्ते
: विवेक रंजन श्रीवास्तव
मुलायम दूब पर,
शबनमी अहसास हैं रिश्ते
निभें तो सात जन्मों का,
अटल विश्वास हैं रिश्ते
जिस बरतन में रख्खा हो,
वैसी शक्ल ले पानी
कुछ ऐसा ही,
प्यार का अहसास हैं रिश्ते
कभी सिंदूर चुटकी भर,
कहीं बस काँच की चूड़ी
किसी रिश्ते में धागे सूत के,
इक इकरार हैं रिश्ते
कभी बेवजह रूठें,
कभी खुद ही मना भी लें
नया ही रंग हैं हर बार ,
प्यार का मनुहार हैं रिश्ते
अदालत में
बहुत तोड़ो,
कानूनी दाँव पेंचों से लेकिन
पुरानी
याद के झकोरों में, बसा संसार हैं रिश्ते
किसी को चोट पहुँचे तो ,
किसी को दर्द होता है
लगीं हैं जान की बाजी,
बचाने को महज रिश्ते
हमीं को हम ज्यादा तुम,
समझती हो मेरी हमदम
तुम्हीं बंधन तुम्हीं मुक्ती,
अजब विस्तार हैं रिश्ते
रिश्ते दिल का दर्पण हैं ,
बिना शर्तों समर्पण हैं
खरीदे से नहीं मिलते,
बड़े अनमोल हैं रिश्ते
जो
टूटे तो बिखर जाते हैं,
फूलों के परागों से
पँखुरी पँखुरी सहेजे गये,
सतत व्यवहार हैं रिश्ते



गज़ल : जुनैद मुंकिर

मोहलिक तरीन रिश्ते निभाए हुए थे हम,
बारे गराँ को सर पे उठाए हुए थे हम.


खामोश थी ज़ुबान की अल्फाज़ ख़त्म थे,
लाखों गुबार दिल में दबे हुए थे हम.


ठगता था हम को इश्क, थगाता था खुद को इश्क,
कैसा था एतदाल कि पाए हुए थे हम.


गहराइयों में हुस्न के कुछ और ही मिला,
हक वफ़ा को मौज़ू बनाए हुए थे हम.


उसको भगा दिया कि वोह कच्चा था कान का,
नाकों चने चबा के अघाए हुए थे हम.


सब से मिलन का दिन था, बिछड़ने की थी घडी,
"मुंकिर" थी क़ब्रगाह की छाए हुए थे हम




'मेरे अपनी माँ से बहुत अच्छे संबंध थे। मेरे कुछ कहे बगैर ही वो मेरी हर जरूरत को पूरा कर देती थी। 16 बरस की उम्र तक वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी। बाद में मैंने उनसे कुछ बातें इसलिए शेयर नहीं कि ताकि मेरी बातों से उनकों कोई तकलीफ ना पहुँचे।'

अमूमन हर माँ-बेटी के रिश्ते इतने ही मधुर सामंजस्य से परिपूर्ण होते हैं। अपवादस्वरूप इस रिश्ते में यदि मनमुटाव आता है तो वह सामंजस्य के अभाव नासमझी की वजह से होता है। विशेषज्ञों की माने तो 'जो माँ अपनी बेटी पर गर्व करती है तथा अपनी बातों में अपनी खुशी को दर्शाती भी है। उन माँ-बेटियों के संबंध मधुर होते हैं तथा जो माँ हमेशा अपनी बेटी से लड़ती-झगड़ती है। उनके अपनी बेटियों से संबंध तनावपूर्ण होते हैं।'



एक रिश्ता !!! : मुक्ता

विचारो की उन्मुक्त बयार
और अन्तर्मन का स्वछन्द आकाश
कल्पना करता है एक ऐसे रिश्ते की
जो हो पवित्र प्रेम की तरह,
और हो उसी के रस में सींचा-बसा,
जो हो पावन इस वर्षा जल की तरह,
और हो मासूम एक रात की तरह,
जो हो उन्मुक्त पंछियों की उड़ान की तरह,
और हो कोमल एक पंखुडी की तरह,
एक रिश्ता
जिसकी प्राण-वायु हो अहसास, और पोषक रस हो विश्वास
जिसमे व्यर्थ के आडंबरो की जगह, हो केवल मौन-मुक्त वार्तालाप
और हो एक दूसरे के लेश-मात्र दुःख से, काँप उठने की शिद्दत
केवल प्यार और बस प्यार की चाहत
मैं एक ऐसा ही रिश्ता बनाना चाहती हूँ
अपनी कल्पनाओं को एक नाम देना चाहती हूँ
अन्तर्मन की परिधि में तुझे बांधना चाहती हूँ
अपने विचारो को नए आयाम देना चाहती हूँ





पैसा है तो रिश्ते जोड़ो : अभिषेक आनन्द

कई बार आर्थिक कारण अप्रत्यक्ष रूप से भी रिश्तों को प्रभावित करते है। और इस बात को तो मैंने ख़ुद के साथ अनुभव किया है। कुछ एसे रिश्ते जो मेरे लिए बहुत अहम् थे बस आर्थिक स्थिति के कारण टूट गए। आज भी यद् है जब मुझे बुलाया जा रहा था और मेरे से कहा गया कि अगर तुम नही आए तो शायद सब बिगड़ जाएगा। इसके बाद भी अपनी आर्थिक स्थिति के कारण मै नही जा सका और नतीजा मेरा सबसे अहम् रिश्ता टूट गया।
आज भी लगता है कि अगर मेरी आर्थिक स्थिति सही होती तो सब नही होता। अपने अच्छे समय मे बनाये गए कुछ रिश्तों को बुरे दौर मे बुरी तरह से टूटते हुए देखा है।
मुझे लगता है कि संबध और रिश्तो की विवेचना करते समय इसे भावनात्मक जुडाव और दिल से जुड़ी चीज मन कर आर्थिक कारक को गौण बनाना सही नही है। सम्बन्ध तभी तक स्थाई है जब तक आप उसे हर स्तर से बनाये रखने मे सक्षम है। इसलिए अगली बार जब रिश्तों की पड़ताल करे तो इस कारक को भी जरुर ध्यान मे रखे।





रिश्ते : डॉ. अजित गुप्ता
एक दिन उदयपुर से आबूरोड की यात्रा बस से कर रही थी। जनजातीय क्षेत्र प्रारम्भ हुआ और एक बीस वर्षीय जनजातीय युवती मेरे पास आकर बैठ गयी। मेरा मन कहीं भटक रहा था, टूटते रिश्तों को तलाश रहा था। मैं सोच रही थी कि क्या जमाना गया है कि किसी के घर जाने पर मुझे आत्मीय रिश्तों की जगह औपचारिकता मिलती है और सुनने को मिलता है एक सम्बोधन - आण्टी। इस सम्बोधन सेहम एक परिवार नहीं हैका स्पष्ट बोध होता है। मुझे बीता बचपन याद आता, कभी भौजाईजी, कभी काकीजी, कभी ताईजी, कभी बुआजी, कभी जीजीबाई आदि सम्बोधन मेरे दिल को हमेशा दस्तक देते हैं। लेकिन आज मेरे आसपास नहीं थे ये सारे ही। मेरे समीप तो रह गया था शब्द, केवल आण्टी। इन शब्दों के सहारे हमने दिलों में दूरियां बना ली थी।
मैं किसी कार्यक्रम में भाग लेने जा रही थी और मुझे वहाँ क्या बोलना है इस बात का ओर-छोर दिखायी नहीं दे रहा था। इतने में ही झटके के साथ बस रुकी। एक गाँव गया था। नवम्बर का महिना था और उस पहाड़ी क्षेत्र में इस महिने बहुतायत से सीताफल पकते थे। अतः बाहर टोकरे के टोकरे सीताफल बिक रहे थे। मेरे पास बैठी युवती बस से उतरी और हाथ में सीताफल लेकर बस में वापस चढ़ गयी। उसने एक सीताफल तोड़ा और मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली किबुआजी सीताफल खाएंगी’?




शाखाओं के रिश्ते
: मोना परसाई

कभी एक छत के नीचे रहे लोग
मिला करते हैं अब भी कभी-कभी
उसी छत के तले
मजबूरियों की केंचुल से निकल,
दुनियादारी की गर्द में लिपटी
एक दूसरे की आँखों में
अपना अक्स टटोलते हैं
दीवारों की दरारों को
हथेलियों से ढंकते हुए,
छत को बचाए रखने के
ताम-झाम जुटाते हैं
और त्यौहार बीतते-बीतते
यह जानते हुए भी कि
कोई बारिश ढहा देगी
आपस में मिलने के
इस बहाने को भी,
लौट जाते हैं वापस
बोनसाई की डालों पर
लटके आशियानों में।




फूलों वाले रिश्ते...!: डॉ.चन्द्रकुमार जैन


निकल जाए कांटा, काँटे से

फिर भी कभी भूलें हम

फूलों वाले रिश्तों को

काँटों से कभी तौलें हम

शब्दों में मीठापन चाहे

मत घोलें पर याद रहे

अन्तर आहत करने वाली

वाणी कभी बोलें हम


अपना रिश्ता: ज्ञानेश

ये दोस्त का रिश्ता बड़ा ही प्यारा है
जैसे खिला हुआ गुलिस्ता हमारा है
महक फूलों की तरह
चहक चिडियों की तरह
गुजते गुंजन की तरह
यह रिश्ता हमारा है दोस्ती

दोस्ती का रिश्ता बड़ा ही प्यारा है
दुःख दर्द में भी साथ चलना
गेरों के बिच में अपना बनाये रखना
रखना विश्वाश मेरा , हमेसा अपने दिल में
ग़मों के पतझड़ में ख़ुद को बनाये रखना
रखना विश्वाश ख़ुद का ख़ुद को बनाये रखना
अपना ये रिश्ता खुदा से भी प्यारा है
दोस्ती का रिश्ता बड़ा ही प्यारा है
आगन में साथ चलना
राहों में साथ चलना
जिन्दगी के सफर में भी साथ साथ चलना
दूरियां बहुत हों पर दिल के पास रहना
खुशियों से दामन ख़ुद का सजाये रखना
हँसाना और मुस्कुराना और एक साथ रहना
वादा हमेशा मुझसे बस इतना ही करना
बस दोस्ती का रिश्ता अपना बनाये रखना


रिश्तों से क्या कहूँ ? : सिफ़र


ज़र में भी अब अलफाज़ लड़खड़ाते हैं।
खता अब सज़ा बन चुकी है।
हर मोड़, एक-एक नाते, भूली बिसरी हर वो बातें,
चाहत और फिर एक आहट सी।
कि, अब उन्स के दीपक में भी लौ नहीं।
कि, अब बाती से रौशनी कज़ा बन चुकी है।
रिश्तों से क्या कहूँ?

अलफाज़ अब भी कोरे कागज़ पर हैं।
नज़रें रूकती नहीं, जाने कौन अब आएगा।
सतरंगी आँचल सा साया तो छूट गया।
कि, आकाश का सूनापन शायद अब छाएगा।
रिश्तों से क्या कहूँ?

रस्म धागों की, धागों में बंध चुकी है।
जिस्म का ज़र दहकता है।
कि , धागों से रिश्ते तो टूट चुके।
आज़ मैं पुकारता हूं, तुम आओगे?
कि, गुज़र जाएगा पल-पल ये,
कि, बहुत सहाएगा हर पल ये।
रिश्तों से क्या कहूँ?

वक्त का जिस्म जल तो गया।
कि, मौका परस्त रूह, है बिखरी कहीं।
हर पत्ते तो मेरी शाखों से टूट गए।
पर उन पत्तों कि काली ज़ुबाँ,
अब सच के दर पर मरती नहीं।
रिश्तों से क्या कहूँ?


क्या आप मानते हैं : विश

'दोस्ती' के पर्वत से ही प्रेरणा के झरने बहकर सफलतारूपी सरोवर में जा मिलते हैं। 'दोस्ती' वह जुगनू है, जिसकी टिमटिमाती रोशनी प्रतिकूलताओं की निशा में उम्मीद की किरण की तरह हमेशा जगमगाती रहती है। 'दोस्ती' उस सुरभि का नाम है जिसका अहसास 'अपनत्व' का अनुभव कराता है। कोई कहे 'दोस्त' हमदर्द होता है परंतु सच्चाई तो यह है कि 'दोस्त' वह गुरूर होता है, जिसके आश्रय में हममें मुसीबतों से लड़ने का साहस जाग जाता है।तो बोलिए... क्या आप बन सकते हैं, ऐसे दोस्त। यदि 'हाँ' तो आज ही के दिन से इसकी शुरुआत कीजिए...



रिश्तों को दागदार करते रिश्ते : गुफ़्तगू
मुझे आज भी वो दिन याद है जब मेरी माँ मुझे डराने के लिएकहा करती की घर से बाहर मत जा बाबा उठा कर ले जाएगा। समय के काल चक्र ने आज उस बाबा को अपराध का नामदे दिया है आज कहा जाता है की समय पर घर पर आजाया करो अपराध और अपराधी दिन पर दिन बढ़ रहे है ।लेकिन लड़कियों के लिए तो अपराधी आज घर में ही बैठे है ।मेरी इसी बात से पहलु निकलता है की अपराधी वही है जोअपने ही रिश्ते को दागदार कर रहे है।




रिश्ते : दो स्थितियाँ :कविता वाचक्नवी

(1)

रूठें कैसे नहीं बचे अब
मान मनोव्वल के रिश्ते
अलगे-से चुपचाप चल रहे
ये पल दो पल के रिश्ते .


कभी गाँठ से बंध जाते हैं
कभी गाँठ बन जाते हैं
कब छाया कब चीरहरण, हो
जाते आँचल के रिश्ते


आते हैं सूरज बन, सूने
में चह-चह भर जाते हैं
आँज अँधेरा भरते आँखें
छल-छल ये छल के रिश्ते


कच्चे धागों के बंधन तो
जनम-जनम पक्के निकले
बड़ी रीतियाँ जुगत रचाईं
टूटे साँकल कल के रिश्ते


एक सफेदी की चादर ने
सारे रंगों को निगला
आज अमंगल और अपशकुन
कल के मंगल के रिश्ते


(2)





रँगी परातों से चिह्नित कर
चलते पायल-से रिश्ते
हँसी -ठिठोली की अनुगूँजें
भरते, कलकल-से रिश्ते


पसली के अंतिम कोने तक
कभी कहकहे भर देते
दिन-रातों की आँख-मिचौनी
हैं ये चंचल-से रिश्ते



उमस घुटन की वेला आती
धरती जब अकुलाती है
घन-अंजन आँखों से चुपचुप
बरसें बादल -से रिश्ते



पलकों में भर देने वाली
उंगली पर रह जाते हैं
बैठ अलक काली नजरों का
जल हैं, काजल -से रिश्ते


कभी तोड़ देते अपनापन
कभी लिपट कर रोते हैं
कभी पकड़ से दूर सरकते
जाते, पाग -से रिश्ते



सम्बन्ध या रिश्ते की सर्वाधिक स्वत:संपूर्ण अर्थवत्ता मानवीय सरोकारों के साथ जुड कर आती है, और सबसे संकुचित या संकीर्ण भंगिमा स्त्री-पुरुष के आकर्षणजन्य संबंधों की भावभूमि पर से गुजरते हुए. इन कसौटियों पर आप स्वयं सामग्री का आकलन कर सकते हैं . इसे क्या कहा जाए कि रिश्ते के नाम पर बहुधा संबंधों की उसी कोटि की सामग्री का बाहुल्य दिखाई देता है, जिन संबंधों में अभी रस - परिपाक वाली स्थिति का लेश होना तो दूर, प्रेम भी पूरा पनपा नहीं होता. ऐसा नहीं है कि उन विषयों पर लिखा नहीं जा रहा होगा, वस्तुत: वह प्राप्त इसलिए भी न हुआ होगा कि उसे `रिश्ता' या `रिश्ते' शब्द द्वारा परिभाषित न किया गया हो. कारण कई हो सकते हैं, मेरी क्षमता व समय की भी अपनी सीमाएँ कारक हो सकती हैं, सामग्री की कालावधि भी . अस्तु, जो भी हो. आज बिना अधिक प्रस्तावना या उपसंहार के आप सामग्री का आनंद लें व लेखकों को तो अपनी प्रतिक्रिया दें ही, चर्चा पर भी आपकी राय महत्वपूर्ण हैं, इसे अवश्य स्मरण रखें.

आपका सप्ताह आह्लादकारी हो, प्रगतिदायी हो। शुभकामनाएँ.

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22 टिप्‍पणियां:

  1. आज तो टाइटल देना होगा.. ’रिश्ते ही रिश्ते’

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  2. रिश्तों को बयान करती एक ही मंच पर..............मेरे हिसाब से ये एक दस्तावेज़ है.......... हर किसी में अपने अपने अंदाज़ में रिश्तों को बयान किया है, रिश्तों को निभाया है............. लाजवाब है यह पोस्ट..शुक्रिया आपका

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  3. काफी महत्वपूर्ण चिट्ठों की चर्चा । एक ही विषय पर केन्द्रित सारगर्भित चर्चा । धन्यवाद ।

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  4. विषयाधारित चर्चा एक अच्छा प्रयोग है, और उम्मीद है कि इस विधा में होने वाली चर्चाओं की संख्या बढेगी.

    आज आप ने जो विषय उठाया है उसका मूल कारण बहुत ही सटीक तरीके से आप ने रख दिया है:

    "क्योंकि इस देश का मुख्य आधार {इसका पारिवारिक ताना-बाना व संबन्धों के प्रति एक निष्ठ समर्पण भाव (सामूहिकता व सामासिकता)} ही दरक गया।"

    आगे भी इस तरह के विचारोन्मुखी चर्चाओं का इंतजार रहेगा!!

    सस्नेह -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

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  5. वाह !! सुखद अहसास देते हैं सारे रिश्‍ते .. उसे शब्‍दों में बखूबी उतारा है इन रचनाकारों ने .. इन्‍हें संग्रहित करने के लिए धन्‍यवाद।

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  6. कविता जी आप इतनी लम्बी-लम्बी (निसंदेह सारगर्भित) चर्चा कैसे लिख देती हैं.
    इतनी सुंदर कविताओं से परिचय के लिए आभार.

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  7. एक-से-एक बढ़कर रचनाओं के परिचय के लिये शुक्रिया कविता जी...
    बेमिसाल चर्चा

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  8. बड़ा जबरदस्त कवरेज रहा जी. मजा आ गया. आभार इस बेहतरीन चर्चा के लिए.

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  9. बेनामीमई 26, 2009 1:46 am

    काफी मेहनत व लगन से किया आपने ये काम। शुक्रिया स्‍वीकार करें।

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  10. वाह, क्या बात है ?
    अभी भिनसारे दिखा यह चर्चा, पढ़ने की सामग्री से मालामाल है यह चर्चा !
    ग़र ज़ुग़ाली लेकर पढ़ी जाये, तो ?
    आनन्द की कल्पना सिहरा देती है, क्या बात है ?
    धारावाहिक पढ़ी जायेगी,हृदयँगम करने योग्य,
    बुकमार्क कर लिया है.. अरर..रर. र.
    पृष्ठाँकित कर लिया है, डा.क. जी !

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  11. भौतिक जगत में टूट रहे हैं और वर्चुअल जगत में परवान चढ़ रहे हैं रिश्ते।
    शायद इस लिये कि आभासी जगत में कमिटमेण्ट कम हैं!

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  12. वाकई बेहद विस्तृत चर्चा..आपकी मेहनत को प्रणाम.

    रामराम.

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  13. ओम आर्य जी की कविता बेहद खूबसूरत है .....निर्झर जी की मुझे गुलज़ार की "यार जुलाहे" की याद दिलाती है ...ऋचा कम शब्दों में बड़ी बात कह गयी है ....
    अखिलेश्वर जी की चिंता के ये सोसिआल साइट्स परिवार की इम्पोर्टेंस कम करेगी..नहीं लगता ..परिवार का विघटन होने की शुरुआत तकरीबन २० -२५ साल पहले से हो चुकी है ...कम्पूटर क्रान्ति को महज़ कुछ साल ...ये सब सिर्फ व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर है ....
    मोना परसाई हमेशा की तरह बेमिसाल है.....

    कुल मिलकर अपने एक ख़ास अंदाज में कविता जी फिर नजर आयी . .वैसे भी उनके अधिकतर चिटठा चर्चा करने के अंदाज का मै फैन हूँ ....

    अंत में उनकी ही पंक्तियों के साथ इस चर्चा के प्रारूप पर बधाई देते हुए .....

    कभी तोड़ देते अपनापन
    कभी लिपट कर रोते हैं
    कभी पकड़ से दूर सरकते
    जाते, पागल -से रिश्ते

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  14. itni khubsurti se samete gaye rishte...kyaa likhoon ..aabhaar

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  15. शुक्रिया
    बधाई
    विचारोन्मुखी चर्चाओं का इंतजार रहेगा!!

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  16. अरे! इतनी महत्वपूर्ण चर्चा फिसल ही जाती यदि इस चर्चा का लिंक आज की चर्चा के ऊपर न दिया होगा। रिश्ते कितने मुलायम होते हैं इसका अहसास तो विवेक रंजन श्रीवास्तव जी की इन पंक्तियों में उजागर है---
    मुलायम दूब पर
    शबनमी अहसास हैं रिश्ते
    और ऐसे मुलायमी रिश्तों को किसी की नज़र लग गई तो कविताजी की कविता कहती ही है........
    कभी गाँठ से बंध जाते हैं
    कभी गाँठ बन जाते हैं
    कब छाया कब चीरहरण, हो
    जाते आँचल के रिश्ते
    बहुत सार्थक चर्चा जो कदाचित अथक प्रयासों से तैयार की गई होगी, पर इसे देखने से चूक ही जाता। शुक्ला जी का आभार कि उन्होंने इसका लिंक देकर अनुग्रहित किया। कविताजी तो हमेशा ही सार्थक चर्चा करती रही है, उनके इस परिश्रम को प्रणाम॥

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  17. अत्यंत सारगर्भित, सुचिंतित और विचारोत्तेजक चर्चा के लिए अभिनन्दन!
    शीर्ष पंक्ति से संबंधित दो स्थितियों की रचनाएँ मर्मस्पर्शी हैं.

    और हाँ , चलते-चलते ....

    केसर चन्दन लीप दें
    संबंधों की भींत |
    चलो निभाते ही चलें
    अभिवादन की रीत ||

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  18. चिट्ठा चर्चा नित नए रूप ग्रहण कर रही है। वैसे ही रोचकता के आयाम भी बढ़ रहे हैं।

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  19. महत्वपूर्ण चिट्ठों की चर्चा । एक ही विषय पर केन्द्रित सारगर्भित चर्चा । धन्यवाद ।

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  20. अरे बहुत खूब

    लेकिन कविता के मामले में अपन तो निरे मूढ हैं जी।

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