शनिवार, अगस्त 22, 2009

एक चर्चा कमीने के पहले की

(अब शीर्षक लग गया है, पहले नहीं था)
हाँ तो आर्यपुत्र जी सुबह पाँच बजे का एक अलार्म, और साढ़े पाँच का दूसरा अलार्म (दो क्यों? दो फ़ोन हैं भई) लगा के सो गए।

सुबह जब अलार्म बजा तो सबसे पहले ये ध्यान आया कि आज तो छुट्टी का दिन है। चुनाँचे दोनो अलार्म एक एक कर के बंद किए गए और महरी के आने पर साढ़े आठ बजे आर्यपुत्र उठे। उसके बाद ध्यान आया कि बाल कटवाने हैं (सिर के) तो बाल कटवाने चले गए - बीस रुपल्ली में बाल कटवा के वापस आए तो प्राणायाम, आसन आदि सुकार्य करते करते साढ़े ग्यारह बजे कंप्यूटर का दरवाज़ा खोला गया।

खोलते ही फुरसतिया का पत्र दिखा, कि आर्यपुत्र, ध्यान रहे, आज चिट्ठा चर्चा करनी है! तब जा के ध्यान आया कि दो दो अलार्म क्यों लगा के रखे थे!

कोई बात नहीं यह सोचते हुए कि अभी लंदन में साढ़े पाँच ही बजे हैं, आर्यपुत्र ने चिट्ठा चर्चा आरंभ की। आप यह मान के चलें कि आर्यपुत्र लंदन में बैठे चिट्ठा चर्चा कर रहे हैं।

सबसे पहले तो कल के लेखों का एक सरसरी तौर पर जायज़ा लिया जाए -

http://chitthajagat.in/?dinank=2009-08-21 अह्हा - देखो देखो, ५९५ लेख! एक दिन में! अल्ला तौबा!

खैर अब पाँच परिच्छेद लिख दिए हैं और आगे न बढ़े तो इत्ती मेहनत भी बरबाद जाएगी।

वैसे अपने राहुल गाँधी बढ़े घैंट निकले। कहते हैं कांग्रेस के अंदर गुट होना गलत नहीं - बशर्ते सारे गुट मुझे फ़र्शिया सलाम रोज दो बार करें। अच्छा है, ऐसा करने से चमचागीरों में होड़ बनी रहती है। मनमोहन अंकल भी तो यही कहते हैं न कि होड़ होगी तो माल बढ़िया और सस्ता मिलेगा। लेकिन नौगचिया न्यूज़ वाले चचा से हमारी दरख्वास्त है कि हमारे चूहे पर गणेश लला को न बिठाया करें।

आज प्रातःकाल खाँसी की वजह से गरारे कर कर के थक गया। भार्या जी का यह कहना था कि तुलसी का काढ़ा पियो सब सही हो जाएगा। बिल्लोरे मुकुल भी यही राग अलाप रहे हैं, हाँ, लेख के बगल में प्याला या तो लाल वाइन का है या अजवाइन के काढ़े का - देख कर समझ नहीं आ रहा है।

आर्यपुत्र दिन भर बैंकों के कंप्यूटरों के लिए तंत्रांश लिखते हैं। अब खबर यह छपी कि रिज़र्व बैंक वालों ने कहा है दूसरे एटीएम से कोई पाँच बार तो निकाल ले लेकिन छठी बार पैसे लगेंगे। बहुत बुरा भला कहा हमने। क्या मनुस्मृति में लिखा नहीं था कि कहीं से भी पैसे निकालो, कोई रोक नहीं? अब किसने कित्ती बार पैसे निकाले - कहाँ से - यह सब हिसाब रखने के लिए अपने को बहुत कुछ लिखना पड़ेगा। लेकिन मंदी के दौर में किसी भी बहाने नौकरी बनी रहे, काम मिलता रहे, वही अच्छा है।

वाचस्पति जी यह फैसला नहीं कर पा रहे कि किसके घर के सामने ज़मीन लें - अपना तो कहना है वहीं लें जहाँ बिक रही हो। और मेहरबानी करके आप भी अपने चूहे से गणेश जी को हटा देवें!

बूटा सिंह जी के स्वीटी बेटे की गोलाई देख के ही पता चलता है कि भैया कितने सीधे और ईमानदार होंगे। जो खिलाता गया, बस खाते रहे। बचपन से ही।

एक छोटी सी ब्रेक लेनी पड़ेगी क्योंकि अभी अपने कमीने को देखने जाना है। मतलब फ़िलम, इंसान नहीं, उसके लिए तो रोज़ शीशा देखना ही काफ़ी है।
तो आता हूँ देख दाख के, और फिर जारी रखेंगे चर्चा, साथ में एक फ़िल्म समीक्षा भी मुफ़्त।

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7 टिप्‍पणियां:

  1. तीन दिन से अंतरजाल से बिछुडे़ हुए थे...तो एक-एक करके चर्चाओं का अवलोकन करेंगे।

    ग्रीनविच मेरिडियन टाइम के हिसाब से आर्यपुत्र कार्य नहीं करते...वे आर्यवर्त के समय के हिसाब से कार्य करते हैं और अगर समय पर नहीं करें तो कहा जाता है - जो सोया सो खोया॥ मैं जाग रहा हूं, इसलिए पहली टिप्पणी दे रहा हूं।:)

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  2. आलोक जी एक नया मोबाइल आया है
    जो यह भी बतलाएगा कि मुझे पांच बजे
    मालिक को उठाने का कार्य क्‍यों दिया है
    जैसे आज चिट्ठाचर्चा करनी है
    आज सब्‍जी लानी है
    आज केश कतरवाने हैं
    या सबसे बड़ी खूबी
    आप सोते रहें
    आज आपको सिर्फ सोना है
    आराम से मुंह ढककर सोना है।

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  3. आर्य जब आप जागें तभी सवेरा होता है :)

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  4. कमीने का इंतज़ार रहेगा (फिल्म की समीक्षा का)

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  5. आर्यपुत्र कनाडा से लिखते तो फिल्म के चार घंटे का मार्जिन भी निकल आता. :)

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  6. कनाडा वाली बात सही कही आपने समीर जी! वैसे अगला हिस्सा भी छाप दिया है - http://chitthacharcha.blogspot.com/2009/08/blog-post_22.html

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