बुधवार, नवंबर 01, 2006

मध्यान्ह चिट्ठाचर्चा : दिनांक 1-11-2006

टी-ब्रेक के दौरान कॉफी की चुस्की लेते हुए आधुनिक धृतराष्ट्र ने संजय को लताड़ा,” कल ऑफिस क्यों नहीं आए?”
संजय : जी, बीमार था.
धृतराष्ट्र : शुएब की संगत में कम रहो, स्वस्थ रहोगे.
संजय : जी..
धृतराष्ट्र : अच्छा बताओ आज कौन रणभूमि में अपने कुंजिपटल तोड़ रहा हैं.
संजय : बॉस (इसे महाराज पढ़े) इन दिनो खूब लिखा जाने लगा हैं फिर भी नारदजी का आह्वान करता हूँ तथा आज अब तक क्या कुछ हुआ बताता हूँ.
अरे.. ग़जब हुआ एक समिरलाल नामक योद्धा दो पाटो के बीच फँस गए हैं तथा अपना दर्द सुनाते सुनाते आरक्षण पर तीर ताक रहे हैं.
“हम तो सब कुछ झेल जाने के आदी हैं, बस चिन्ता और इंतजार उस वक्त का है, जब यह
सरकार हमारी खुद की बनाई खुद के घर की छत पर अपनी नीतियाँ थोपेगी और हमारे घर की छत
भी इन पत्थरों और खड्डों से भरी नजर आयेगी और हमें इतना अधिकार भी न होगा कि हम
इन्हें हटा सकें.”
धृतराष्ट्र : स्थिति तो गम्भीर होने वाली हैं, संजय.
संजय : हाँ महाराज, पर यह देखिये निठल्ले तरूण एक मजेदार खिलौने का मजेदार विडीयो लाए हैं. देखें व गुदगुदाएं.
जितेन्द्रचौधरी भी खूब अस्त्र-शस्त्र चला रहे है महाराज, पर साथ ही चिंतित दिख रहे हैं. अब क्या करें इन नेताओ का अच्छे भले शहर का नाम ही बदल दिया मानो यही एक काम बाकी बचा था करने को.
मन हल्का करने के लिए फिल्म डोर भी देख आए तथा यहाँ समीक्षा की है. एक बार पढ़ ले फिर आप भी देखने पर विचार करें.
धृतराष्ट्र : दूसरे योद्धाओं के हाल भी बता दो.
संजय : आज एक और योद्धा भी परेशान हैं, जोगलिखी वाले संजय बेंगाणी हिजड़ों की दादागीरी सहना नहीं चाहते इस पर सबसे राय माँग रहे हैं.
धृतराष्ट्र : हाँ भई इनकी दादागीरी से तो सभी परेशान व लाचार हैं, हमसे भी मोटी रकम ऐंठ चुके हैं.
संजय : बस महाराज मज़दूर कानून के हिसाब से आप मुझसे इतना ही काम करवा सकते हैं, बाकी का हाल फूल-टाइम चर्चाकार बताएगा.
धृतराष्ट्र : अपनी नौकरी की चिंता करो संजय....आगे जारी रखो.
संजय : क्षमा करें महाराज आप भूल रहे हैं मैं आपका यानी सरकारी नोकर हूँ, :) और आरक्षण का लाभ लेकर आया हूँ. गुडबाय.

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5 टिप्‍पणियां:

  1. चिट्ठों की संख्यायें होने लगीं, सीरयल ज़ीटीवी के
    इसीलिये अब होती हैं मध्यांतर की आवश्यकतायें
    अच्छी है परिपाटी, संजय भैया तुम जो बना रहे हो
    मध्यांतर में आकर करते आधे चिट्ठों की चर्चायें

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  2. संजय भाई, दोपहर के चिट्ठों की समीक्षा और चर्चा अच्छी हो रही है। साधूवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. कल कहाँ थे,बिमार थे क्या? अच्छा है, अगली बार ऐसा मत करना. :)

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  4. चिट्ठाचर्चा और टिप्पणियाँ क्यूँ इतनी आवश्यक हैं?अपनी ही कविता की एक पंक्ती याद आ गई।
    "ख्यालों से फूँक.....जज्बों से हर राय की धूल उड़ा दूँ....."
    ना जाने क्यूँ हर किसी की राय मेरी पहचान से महत्वपूर्ण क्यूँ है?
    हाँ मै एक सोच हूँ....शायद टिप्पणियाँ पढ़कर अपने शब्दों की ताकत का अंदाज़ा लगाना चाहती हूँ।
    दूसरों की सोच को अपनी सोच के साथ जोड़ पाने के सामर्थ्य़ को आँकना चाहती हूँ।
    पर तेरी सोच मेरी सोच से ना मिल पाने का अर्थ...किसी भी सोच का मूल्य़ कम होना तो नही!!
    पर शब्द तभी सबसे सुन्दर लगते हैं जब तुम्हारे मूक भावों को कोई शब्द...आवाज़ या पहचान दे दे!!
    जब सोच सोच से मिले एक कड़ी बन जाती है।
    टिप्पणी इस कड़ी की लंबाई आंक सकती हैं। आपके
    टिप्पणियों का बहुत शुक्रिया ।

    जवाब देंहटाएं

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