शनिवार, नवंबर 04, 2006

मध्यान्हचर्चा दिनाकं 4-11-2006

कक्ष में सन्नाटा छाया हुआ हैं, धृतराष्ट्र कॉफि की चुस्कियाँ लेते हुए पेपर-वेट को घुमा रहे है. संजय सामने बैठे लेपटोप पर नजरे गडाए हुए हैं.
धृतराष्ट्र : क्या हुआ संजय मुड ठंडा लग रहा है.
संजय : विकेंड का असर हैं महाराज. देखिये मैदान में दो-चार योद्धा ही कुंजिपट्टल टकटका रहें हैं. अब इनका हाल भी मैं ही सुना दुंगा तो नियमीत चर्चाकार नराज हो जाएंगे.
धृतराष्ट्र : वे भी चर्चा कर लेंगे, फिलहाल तुम तो अपना कर्तव्य निभाओ.
संजय : जैसी आपकी आज्ञा. योद्धा आशीष गुप्ताजी लेकर आए हैं मौत का नाटक, घबराने की आवश्यक्ता नहीं है, यह नाटक कुछ जानवर अपने प्राणो की रक्षा करने के लिए करते हैं. अगर आप नेशनल ज्योग्राफी चेनल देखना पसन्द करते हैं तो यह लेख आपको जरूर पसन्द आएगा.
धृतराष्ट्र : जीने के लिए मौत का नाटक! काफी मजेदार.
धृतराष्ट्र : और यह निराश योद्धा कौन है?
संजय : महाराज, ये सबकी सुख की कामना करने वाले दूर देश से आए मुकेशजी है जो स्वयं दुखी हो गए हैं.
धृतराष्ट्र : क्या दुख है इन्हे.
संजय : महाराज नया कुछ नहीं देश की राजधानी में राष्ट्रभाषा की स्कूल खोजने चले थे. पीढ़ादायक अनुभव रहा, पाँवो में छाले हो गए पर स्कूल न मिलनी थी न मिली.
धृतराष्ट्र : घोर दुर्भाग्य.
संजय : सही कह रहे हैं आप. पर आशाओं ने साथ नहीं छोड़ा हैं, देखिये तुषारजी को जो कभी ना नहीं कहते. बस आशा के गीत गाए जा रहे हैं. हम भी आशा करे हालात सुधरेंगे. हम सुधारेंगे.
धृतराष्ट्र : और यह शहरों के नाम किस आशा में बदले जा रहे है. क्या इससे नागरीकों के लिए शहरी सुविधाएं बढ़ जाएगी.
संजय : यह तो नाम बदलने वाले जाने, पर जोगलिखी पर कुछ नाम बदले शहरों का विवरण दिया गया है. नाम बदलने से शहरों में क्या बदलाव हुए यह खुद ही परख लें.
इधर मन का चान्द पुरे सौन्दर्य के साथ खिला है. डॉ० भावना कुँअर की काव्य चर्चा - दैनिक जागरण में छपी है, तो उन्हे बधाई देते हुए यहीं समाप्त करता हूँ.
आप रविवार का आनन्द ‘भाभीजी का हाथ बटाते’ हुए ले.
धृतराष्ट्र ने घुर कर देखा पर संजय लोग-आउट कर चुके थे.

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1 टिप्पणी:

  1. संजय भाईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईई

    अरे भूल गया क्या कहने वाला था, खैर इंतजार कीजियेगा याद आते ही टिप्पणी प्रेषित के दूँगा।

    जवाब देंहटाएं

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