बुधवार, नवंबर 15, 2006

चर्चा में: बोतल में तूफान

अनूप भार्गव जी ने एक बहुत बेहतरीन चिट्ठा शुरु किया है, मेरी पसंद. आज उन्होंने बशीर बद्र साहब के कुछ चुनिंदा शेर पेश किये हैं. पहले उन्होंने निदा फ़ाज़ली साहब के दोहे पेश किये थे. एक दोहा था:

बच्चा बोला देख कर,मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान


मुझे बड़ा पसंद है यह दोहा, फिर आज उन्हीं के समनाम धन्य अनूप शुक्ल 'फुरसतिया' जी हिजड़ो के द्वारा टेक्स वसूली के पटना नगर निगम की पहल पर अपने विचार ले कर आये. बहुत विचारोत्तेजक और बड़े सार्थक प्रश्न उठाता यह लेख, कुछ लम्बा होने के बावजूद भी, एक ही सांस मे पढ़वाने की काबिलियत रखता है:

एक बार जब बैकों में हिजड़े सफल हो गये तो सारे व्यापारी अपने सारे तकादीगीरों को गले लगाकर विदा कर देंगे और हिजड़े किराये पर पाल लेंगे। हिजड़े उसी तरह तकादगीरों के पेट पर लात मारते नजर आयेंगे जैसे आजकल एक कंप्यूटर चार क्लर्कों को विदा कर देता है। हर बड़ी फर्म अपने यहां हिजड़े रखने लगेगी। किसी भी कंपनी की आर्थिक स्थिति आंकने के लिये देखा जायेगा कि उसने वसूली के लिये कितने हिजड़े रखे हैं।

और आगे कहते हैं:

मांग और आपूर्ति के शाश्वत नियम के चलते कुछ दिनों में हिजड़ों की संख्या में कमी आ जायेगी। हिजड़ों की आकर्षक आर्थिक स्थिति देखते हुये तमाम गुंडे-बदमाश चाकू, तमंचे की नोक या फिर कुछ लेकर-देकर डाक्टरों से अपने हिजड़ा होने का प्रमाण पत्र हासिल करके अपनी गुंडागर्दी की गद्दी चेलों को थमाकर हिजड़ागिरी करने लगेंगे। कोई नामीगिरामी कुख्यात गुंडा,माफिया अपने बुढा़पे में हो सकता है कहे- यार अब अपन से यह सब गुंडागर्दी नहीं हो पाती, हाथ-पैर कांपते हैं किसी तरह से हिजड़ा बनवा दो तो बुढ़ापा चैन से कटे। अभी तक जो कमाया वो सब जमानत और थाने में गंवा दिया अब कम से कम बुढा़पे में तो रोटी के ऊपर रोटी खाने को मिले।


इस सार्थक लेख को जरुर पढ़े और बतायें कि आप क्या सोचते हैं.

इसे पढ़ा, तब, निदा फ़ाजली साहब का दोहा फिर से याद आया और याद आया, मंदिर-मस्जिद का विवाद; फिर निकली दिल की गहराइयों से यह मुण्ड़ली:


//१//

बच्चा बोला देख कर,मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान. // निदा फ़ाजली साहब//
इतना बड़ा मकान, टेक्स भी ज्यादा होगा
न भर पाये जो टेक्स, तो हिजड़ा आता होगा
कहत समीर, तुम आधा मंदिर को दे डालो
नेता भी मुँह ताकें, हिजड़ों को घास न डालो.

//२//

हिजड़ों की बारात है, जो सब चुन करके आए
फिर ये ऐसा क्या हुआ कि बाहर से उन्हें बुलाए
बाहर से उन्हें बुलाए कि सब के सब दामाद तुम्हारे
कुछ खुद का नहीं ठिकाना, तुम्हरे का काज संवारे?
अभी संभल जा, अभी नहीं कुछ भी बिगड़ा है
वरना ये बैठेंगे गद्दी पर और कहें कि तू हिजड़ा है.


--समीर लाल 'समीर'


खैर, आगे चलते हैं तो जहाँ रचना जी बचपन की बगिया में टहल टहल कर गीत गा रहीं हैं:

गुम सारे प्यारे मित्र हुए,
पशु-पक्षी मानो चित्र हुए,
मानव मानो कि यंत्र हुए,
रिश्तों के जर्जर तंत्र हुए,
किसको फुर्सत? सब व्यस्त हुए,
सब अपने मे ही मस्त हुए,
बिल्कुल बदला है अब जीवन!
कितना—–



फिर, हमारे रा.च. मिश्र जी को गांव की याद आई, तो कुछ राज की बात भी बता गये कि क्या भेद है, दोगला और दुगला में, देखें और आप भी जानें. अगर आप ग्रमीण पृष्ठभूमि से जुड़े है तो तस्वीर निश्चित एक बार आपको अपने गांव की याद दिला जायेगी.

उधर जवान क्षितिज जी बम्बई में जर्मन साथियों की भीड़ में गाईड नजर आ रहे हैं. अमां यार, थोड़ा टोपी, चश्मा लगाओ और हाथ मे बिस्लरी की बाटल लेकर थोड़ा फारेन वाला लुक लाओ, तब तो रुतबा पड़ेगा, वरना तो आपके बर्लिन विश्वविद्यालय के कार्ड को भी नकली बता कर वसूली कर लेंगे.

अब इसी पोस्ट पर अनुराग भाई ने अपने विचार पोस्टनुमा टिप्पणी के द्वारा व्यक्त कर मारे. जितनी लम्बी क्षितिज की पोस्ट नहीं है, उससे भी कहीं ज्यादा लम्बी यह टिप्पणी है, जो कि अगर पोस्ट के माध्यम से आती तो जरुर विवादित श्रृंखलाओं की माला की सबसे मोटी मोती का मुकाबला करते नजर आती मगर अच्छा है, टिप्पणियों के बीच दबकर रह गई है. इसे यहाँ बता कर मै आम नेताओं की तरह विवाद भड़काने में नहीं लगा हूँ, मगर फर्ज पूरा कर रहा हूँ ताकि कोई विवाद पीर(पहलवान) कहीं हमें ही न धर ले, कि इतना बढ़ियां मसाला और हमें नहीं बताया, कैसी चर्चा करते हो. :) अनुराग जो कहते हैं, उसका एक अंश:

मज़ेदार बात यह है कि इस तरह का देश प्रेम का गीत गाने वाले अकसर वह लोग होते हैं जो कभी भारत से बाहर गये भी नहीं हैं लेकिन संसार के सभी देशों के बारे में अनका ज्ञान ऐसा उच्च कोटि का है कि वहां के इतिहास रचयता भी शर्म से पानी पानी हो जायें. यही है 'मेरा भरत महान, यही है हमारी "महान संस्कृति और सभ्यता" और यही है 'अतिथि देवो भवः'


राग दरबारी को नेट पर लाने का यज्ञ जोर शोर से चल रहा है. हवन और मंत्रों की गुंजार से पूरा हिन्दी ब्लाग जगत गूँज रहा है. गिरिराज जोशी जी भाग ४ लेकर आ गये हैं.

बैठक तक पहुँचने के लिए गलियारे में उतरना पड़ता था। उसके दोनों किनारों पर छप्पर के बेतरतीब ऊबड़-खाबड़ मकान थे। उनके बाहरी चबूतरे बढ़ा लिये गये थे और वे गलियारे पर हावी थे। उन्हें देखकर इस फिलासफी का पता चलता था कि अपनी सीमा के आस-पास जहाँ भी ख़ाली ज़मीन मिले, वहीं आँख बचाकर दो-चार हाथ ज़मीन घेर लेनी चाहिए।

और आगे:-

बुढ़ापा! वैद्यजी के लिए इस शब्द का इस्तेमाल तो सिर्फ़ अरिथमेटिक की मजबूरी के कारण करना पड़ा क्योंकि गिनती में उनकी उमर बासठ साल हो गई थी। पर राजधानियों में रहकर देश-सेवा करने वाले सैंकड़ो महापुरूषों की तरह वे भी उमर के बावजूद बूढ़े नहीं हुए थे और उन्हीं महापुरूषों की तरह वैद्यजी की यह प्रतिज्ञा थी कि हम बुढ़े तभी होंगे जब कि मर जायेंगे और जब तक लोग हमें यक़िन नहीं दिला देंगे कि तुम मर गये हो, तब तक अपने को जीवित ही समझेंगे और देश-सेवा करते रहेंगे।



फिर भाग ५ आयेगा, फिर ६ और धीरे धीरे भाग ३५ के बाद, हम मजा लेंगे पलायन संगीत का. तब तक भाई अनूप शुक्ल 'फुरसतिया' जी अपने प्रोजेक्ट मैनेजर (बकौल जीतू भाई) होने का भरपूर मजा लूट रहे हैं और रोज सुबह सबको तकादी डंडा लिये चमका रहे हैं, कि कहाँ तक टाइप किये? सुनने में आया है कि कई तो अब इस डर से इनविजिबल मिस्टर इंडिया बन कर ही नेट पर आते हैं. :) मुझे तो पूरा विश्वास है कि इस डंडे के चलते और आप सब के सहयोग से मात्र यही नहीं, ऐसे अनेंकों प्रयास मूर्तरुप लेकर हिन्दी को नेट पर सही स्थान दिलाने में एक महत्वपूर्ण एवं एतिहासिक योगदान करेंगे.

जीतू भाई का दर्पण देखें, बड़ी सुन्दर फूलों की बगिया सजी है. अरे, जा कहां रहे हैं, यहीं नीचे देख लो चित्र मगर जुगाड़ का क्या करेंगे, उसके लिये तो जाना ही पडेगा, उनके डेली जुगाड़ लिंक पर. इसी तर्ज पर साप्ताहिक स्वादिष्ट पुस्तचिन्ह में देबाशिष जी नुक्ताचीनी की पेशकश कर रहे हैं.


पिछले दिनों का विवादित मुद्दा कोक और पानी, जो न करवाये सो कम, जहां एक तरफ पंकज बैगाणी अपनी टिप्पणी करके घबरा गये और लगे माफी मांगने अपने क्यूट बेबी की छबि को बचाने के लिये. वैसे, बालक सज्जन है, तो किसी ने बुरा ही नहीं माना था, फिर भी माफ सब करने लगे. मगर इसी विवाद के मद्दे नजर झन्नाटेदार लेखनी के बादशाह नीरज दीवान का लेख सरकारी सुस्ती और चहेंतों का पूंजीवाद पढ़ा जाये, बहुत ही जबरदस्त तरीके से रुबरु हो रहे हैं:

जब बिजली निजी कंपनियां दें, पानी निजी कंपनियां दें, नौकरी भी निजी कंपनियां दें, अच्छे स्कूल और अस्पताल निजी कंपनियां चलाएं. बुनियादी सुविधाएं निजी कंपनियां ही दें तो हम सरकार क्यों दें? महज़ इसलिए कि केंद्र में बैठे ये साढ़े सात सौ और राज्यों में बैठे सात हज़ार नेता हमारे जनप्रतिनिधी कहलाएं? ये सुविधाएं सरकारी उड़ाएं और हमें ‘असरकारियों‘ के भरोसे करते जाएं? मोटे चंदे के एवज़ में पूंजीपतियों की खुशामद करते जाएं??



फिर इसी कोला मुद्दे पर अपने विचार लेकर आये देवाशिष जी नुक्ताचीनी पर बोतल में तूफान:

कोला पर रोक लगाने की बात करना गलत नहीं अगर ये उत्पाद वाकई हानिकारक हों, यह साबित करना तो टेड़ी खीर होगी, पर उसी साँस में यह भी तो कहें कि मदिरा, सिगरेट और तंबाखू जैसे उत्पादों पर, जिनके स्वास्थ्य पर होते खराब असर को हमें साबित नहीं करना है, मुक्कमल रोक लगे। अगर यह न हो सके तो फिर दोगलापन सिर्फ सरकार और इन बहुराष्ट्रीय का ही नहीं है, उन संस्थाओं और व्यक्तिओं का भी है जो केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर ही आरोप मढ़ते रहते हैं और अपने गिरहबाँ में झांकते तक नहीं।


ज्ञानी होने की कागार पर खडे लोगों के लिये रोज की तरह आज भी सुखसागर जी नया मसाला लाये है, गंगा की उत्पत्ति. पता नहीं कौन सी किताब हाथ लगी है कि रोज एक से एक आईटम ला रहे हैं और लगता है, अन्नतकाल तक लाते रहेंगे. अरे भईया, किताब का नाम बता दो, खरीद लेंगे भले ब्लैक मे मिले. आपका भी रोज रोज टाइप करने का टंटा मिटे और हम भी जितना बन पडेगा, खुद से पढ़ लेंगे. अरे, भाई, मजाक कर रहा हूँ, आप तो जारी रहो. आपके इस नेक कार्य को नमन करता हूँ: धन्य हैं भाई!! और धन्य है आपकी लगन.

जब महाशक्ति भाई प्रमेन्द्र मिले तो वो गाँधीगिरि की जगह दादागिरि की बात करने लगे, आप भी देखें.

मनीष भाई अपनी पचमढ़ी यात्रा वृतांत को अगला अंजाम देते हुये बता रहे हैं, पचमढ़ी, डचेश फॉल और नीचे गिरते पत्थर

अटपटी उलझी लताएँ
डालियो को खींच खाएँ
पेरों को पकड़ें अचानक
प्राण को कस लें कपाएँ
साँप सी काली लताएँ
लताओं के बने जंगल
नींद में डूबे हुए से
डूबते अनमने जंगल


--भवानी प्रसाद मिश्र जी


गीत कलश पर राकेश भाई से सुनें एक अनुपम गीत:

दिवास्वप्न पानी में उठते हुए बुलबुलों से क्षण
भंगुररागिनियों में बन्धा नहीं है,अंधड़ भरी हवाओं का सुर
चौपालों के दीपक बनते नहीं सूर्य कितना भी चाहे
काक न पाता कोयल का स्वर चीख चीख कर कितना गाये........


भाई नितिन हिन्दुस्तानी को आप सब हृदय से धन्यवाद दें क्योंकि अगर आपका बच्चा आपकी बात नहीं मानता तो वो मनवा कर रहेंगे, बड़े सारे नुस्खे लाये हैं इस तकलीफ के; हमारे तो काम का अब रहा नही ये, हमारे लड़के तो खुद नुस्खा तलाश रहे हैं कि अगर आपके पिता आपकी बात नहीं मानते वाला, वैसा कुछ हो, तो मेरे लड़कों के हित में छापें, मैं आपके ब्लाग का लिंक उन तक भिजवा दूँगा:

बच्चो के साथ उनकी उम्र के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए, कई माता-पिता बच्चों के साथ दोस्तों या हमउम्र की तरह बातें करने लगते जिससे बच्चों को लगने लगता हे कि ये तो हमारे जैसे ही हे. बच्चे इस समय दिमागी रुप से तैयार हो रहे होते है तो छोटी - छोटी बातें भी उनके दिमाग में घर कर जाती है, जिससे बदलना आगे जाकर बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिये बच्चो के साथ वक्त और हालात देखकर व्यवहार करें. प्यार के साथ साथ वक्त आने पर डांट फटकार या गुस्से का भी इज़हार करें.


वैसे, यह नितिन हिन्दुस्तानी का हिन्दी ब्लाग, बहुत से नुस्खे लाते रहता है, कभी मुड़ बनाने के लिये तो कभी याददाश्त बढ़ाने के लिये. पढ़ियेगा, जरुर.


शुएब भाई तकनिकी समस्याओं से जुझते हुए अपने नये चिट्ठे की स्थापना कर रहे हैं और जीतू भाई की मदद को ध्न्यवाद ज्ञापित करते हुये और मदद मांग रहे हैं. अमित बाबू तो किसी भी तकनिकी मदद को हमेशा तत्पर रहते हैं ,सो यहाँ भी टिप्पणी के माध्यम से मदद हाजिर थी. तुरंत ही खबर मिली कि हमारे शिष्य गिरिराज भी ऐसा ही कुछ प्रयास कर रहे हैं और अमित बाबू उन्हें भी पूरा योगदान दे रहे हैं. इस तरह की मददगारी की उपलब्धता हिन्दी चिट्ठाकारी की एक विशेष उपलब्धी है, जहां जीतू भाई और अमित भाई जैसे साथी हर वक्त सबको किसी भी तकनिकी समस्या का समाधान के लिये हाजिर मिलते हैं. आप सबका साधुवाद.


उन्मुक्त जी छुटपुट पर देखें कैसे सब कुछ संभव है और मिडिया युग से सुनें गुजरे हफ्ते के टी.वी. समाचार.

वहीं जगदीश भाई आईना पर जनता की विशेष फरमाईश पर फिर लायें है एक बेहतरीन पुरानी कतरन.

हालत यह थी कि बस स्टाप पर खड़े यात्री जेठमलानी की तरह कितने ही सवाल क्यों न करें मगर मजाल है जो उन्हें जवाब मिल जाये। बस पर कभी रूट नम्बर और गंतव्य स्थान सरकारी नीतियों की तरह स्पष्ट नहीं होता। इसलिये जैसे देश का पता नहीं चलता कि वह कहां जा रहा है उसी प्रकार बस का भी पता नहीं चलता कि वह कहां जा रही है।


वो इसके पूर्व भी इसी तरह की एक बेबाक कतरन पेश कर चुके हैं कि चुनने को क्या है जिसने इसकी पुनः मांग खड़ी कर दी. आशा है, आगे भी वो पुरानी कतरनों के भंडार से मोती चुनचुन कर लाते रहेंगे और साथ ही नई गाथा भी जारी रहेगी.


आज किंचित कारणों से मध्यान चर्चा बड़ी देर से नारद पर दिखी और तब तक हम इसका काफी हिस्सा लिख चुके थे तो दो बार स्म्मलित पोस्टों को अपनी इच्छा अनुसार नजर अंदाज कर दें या दो बार पढ़े, अब हमारे पास इसे मिटाने वाला यंत्र भी नही है. अब हमें इजाजत, चलते है. आप पढ़ते रहें चिट्ठे और देखते रहें चिट्ठा चर्चा.

देर से प्राप्त जानकारी:

यह चार चिट्ठे एकदम चलते चलते दिखे:

रचनाकार रवि भाई की बैंक लोन- डॉ कान्ति प्रकाश त्यागी और सुनील जी ने इस बार विशेष आग्रह पर अपने चित्र को कोई शीर्षक नहीं दिया है और आपसे पूछा है कि आप बतायें, क्या उचित शीर्षक होना चाहिये इस चित्र का.

चाचा नेहरु के जन्म दिवस पर बिहारी बाबू का खत और शैलेष भारतवासी का प्रेम पुष्प .


आज की टिप्पणी:
राकेश खंडेलवाल says जीतू भाई के दर्पण पर November 14th, 2006 at 6:36 pm

जितने सुन्दर हैं फूल, भाव भी उतने सुन्दर लिखे हुएचिट्ठों की दीवारों पर बन ये भित्तिचित्र हैं टँगे हुएऐसे ही महके भाषा की सुरभित हो हो कर फुलवाड़ीहम सब ही अपने मन में हैं ऐसी अभिलाषा रखे हुए

अनुराग श्रीवास्तव Says: मुझे भी कुछ कहना है परNovember 14th, 2006 at 9:57 am

रचना जी,
लालच दे रही हैं आप! अच्छी अच्छी बातें गिना कर! लेकिन एक महा कष्ट वाली बात तो आपने बताई ही नहीं - मुआ होमवर्क बहुत परेशान करता था!
रचनायें बच्चों की ही तरह मासूम और प्यारी हैं. बधाई!


आज की तस्वीर:

जीतू भाई के दर्पण से:

हिन्दी चिट्ठाकारी भी तो एक तरह की बगिया है, जहाँ तरह तरह सुगंधित फूल है।


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5 टिप्‍पणियां:

  1. वैसे तो चिट्ठाचर्चा से जुड़े होने के कारण इसकी हर
    पोस्ट को अच्छी और कुछ को बहुत अच्छी मानना सहज बात है और लगता है कि हमारा अधिकार भी है लेकिन दिन-प्रतिदिन होती चर्चाऒं और मध्यान्ह चर्चा के स्तर को देखकर ऐसा नहीं लगता कि हमारे साथी किसी भी पेशेवर, पूर्णकालिक लेखक से कम अच्छा और पठनीय लिख रहे हैं. अभी सबेरे-सबेरे जब यह पढ़ रहा हूं तो यही भावना हावी है. बहुत अच्छा लेख, बहुत अच्छी प्रस्तुति. ऐसे बिंदास, रोचक लेखन की तो नजरें उतारने का रिवाज है.
    लेकिन हम केवल तारीफ़ कर पा रहे हैं अभी.

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  2. बहुत ही सुन्दर समीक्षा की है , सब कुछ तो जीवंत सा उतार दिया आपने समीर जी और हाँ हिजडों पर व्यंग कविता के रुप मे पसन्द आया। कनाडा मे हिजडे क्या करते हैं।

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  3. अतिउत्तम. और कोई शब्द नहीं है, प्रशंसा के लिए.
    आज भाभीजी से अपनी नजर उतरवा लेना.

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  4. यही तो!!!

    लालाजी इसीलिए बुधवार की सुबह खुशनुमा होती है। :)

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  5. बहुत अच्छी चर्चा की है समीर जी, मुझे लगता है, इस चर्चा मे शामिल चिट्ठों की संख्या, चर्चा का आकार और सहज वर्णन भी अभी तक की गयी सभी चर्चाओ से बढ़्कर है।
    प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद।

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