थोड़ा परिवर्तन के लिये आज हमने सोचा क्यों ना सिर्फ उन चिट्ठों में झांक कर देखा जाय, जहाँ टिप्पणी और पढ़ने वालों का सूखा पड़ा हो। हालांकि इनमे से कई शायद दूसरे प्रकार में आते हों लेकिन...सबसे पहले दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहन चन्द्र शर्मा की बहादुरी को नमन करते हुए श्रदांजलि स्वरूप ये चंद लाईनें
हमीं जांनिसार हैं हिन्द के, हमीं दिलफिगार हैं हिन्द के
हमें पास महरो-वफा का है, उन्हें जान दे के दिखा दिया
शिवराज गुजर की डायरी में ये व्यंगिका मिली -
अमृता प्रीतम की लिखी एक कविता है, शहर जिसे आप विप्लव में पूरा पढ़ सकते हैं। इसमें वो लिखती हैं -
जातिवाद मिटाने का
अभी-अभी वादा करके
सभा से लोटे नेताजी
कार्यकर्ताओं से बोले
पता करो, उस एरिये मैं
किस जाती का बोलबाला है
उसी हिसाब से रणनीति बनायें
चुनाव का वक्त आने वाला है
जो भी बच्चा इस शहर में जन्मताहमेशा ही चिट्ठाचर्चा में आकर पीठ खुजाने वालों आज बुरा मत मानना क्योंकि आज वर्चुअल मुस्कान का जन्मदिन है, और आपके लिये प्रो फ़ालमैन की ईजाद को मैं दोहरा रहा हूँ - "मैं चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लाने के लिए यह चिन्ह :-) प्रस्तावित करता हूं।"
पूछता कि ये किस बात पर बहस हो रही है?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता।
टीआरपी के चक्कर में पगलाये मीडिया के सामने कुछ लोगों का है एक अनूठा प्रयोग, इसे तत्काल जाकर पढ़िये, क्योंकि ये है बात अप्पन के समाचारों की।
प्रदीप को जब मोबाइल ने काटा और फिर मच्छर ने चाटा तो उनकी लेखनी से बरबस निकल पड़ा -
मोबाइल और उसके उपयोगकर्तआओं की संख्या का आंकडा नये आयाम जोड रहा हैमहेन्द्र ने एक कहानी पढ़ी फिर थोड़ी मेहनत करी, परिणाम सामने हैं हमें टाईप नही करना पड़ा और उनकी मेहनत आपके सामने है -
मच्छरों के उत्पादन की गति को भी पीछे छोड रहा है
मोबाइल और मच्छरों में भी समानता है
मोबाइल जेब में घनघनाता है
मच्छर कान पर भनभनाता है
मोबाइल जेब से आकर कान को चाट जाता है
मच्छर भिनभिनाकर कहीं भी काट जाता है।
किसी भी कार्य को सीखने के लिये पर्याप्त समय देना सबसे जादा जरुरी है और साथ ही पर्याप्त धैर्यता और लगन का होना भी नितांत आवश्यक है. कोई भी कार्य सीखने में हडबडी नही करना चाहिएदेश की राजधानी दिल्ली से महज चंद फासले पर शर्मशार करती एक घटना घटी और इसी का जिक्र किया नीशू ने साथ में एक वाजिब सा सवाल भी उछाला -
कहने को हम शिक्षित है पर हमारे वैचारिक सोच में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। केवल अंकपत्र ही शिक्षा का मानदण्ड नहीं है।परवेज फातिमा सवाल पूछती हैं कि कैसे बने हैं ये दहशत-गर्द -
कहाँ से आये हैं कैसे बने हैं दहशत-गर्द।प्रदीप सिंह लचर और लाचारी पर पुलिसिया सवाल उठाते हुए लिखते हैं -
तबाहियों की ज़बां बोलते हैं दहशत-गर्द।
पता बताते नहीं क्यों ये अपनी मंज़िल का,
लहू ज़मीन का पीते रहे हैं दहशत-गर्द।
डंकन फोर्ब्स का एक शब्दकोश है इग्लिश से हिंदुस्तानी। इसमें पुलिस शब्द का अर्थ दिया है- बंदोबस्त, इंतजाम, रब्त और जब्त। हिंदी के एक शब्द का इस्तेमाल करें तो कह सकते हैं व्यवस्था। अब सवाल है कि क्या अपने देश में पुलिस का इन शब्दों से कोई नाता रह गया है? पुलिस आज अव्यवस्था और बदइंतजामी का पर्याय क्यों बनती जा रही है। भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में बना था। उसका मकसद अंग्रेज शासकों की सेवा करना था। आजादी के छह दशक बाद भी हम इसे बदल नहीं पाए हैं। शायद यह मानकर कि अंग्रेज हों या हिंदुस्तानी शासक तो शासक ही होता है और पुलिस को उसकी सेवा करना ही चाहिए।मंसूर अली ने भार के ऊपर लिखने पर ये भी ध्यान रखा कि पोस्ट के ऊपर ज्यादा भार ना पड़े, लिखते हैं -
अब छोटी चीजे बड़े status का पर्याय बनती जा रही है तो मैरे छोट्पन पर भी आप एतराज़ न करे।मै कद घटाकर [तदानुसार भार घटाकर] उंचाइयां पाने की कोशिश कर रहा हू तो आप मेरे पाँव मत खीचिये।
अतुल जाति-विद्वेष का नंगा और घिनौना खुलासा करते हुए लिखते हैं -
राहत शिविरों में जाति के आधार पर भोजन परोसा जा रहा है। दबंग जाति के लोगों को दाल-भात और सब्जी तथा दलितों को माड़-भात व नमक खाने को दिया जा रहा है।"ऐसा कोई सगा नही जिसको हमने ठगा नही", "भाई ही बना भाई का दुश्मन" इस तरह की बातें अक्सर सुनायी देती हैं और इनके बीच भाई हो तो ऐसा सुनकर एक सुखद ऐहसास होता है -
लुक मिल्स नाम के इस लडक़े ने अपने जुड़वा भाई को बचाने के लिए अपनी पीठ की चमड़ी का एक हिस्सा दान कर दिया है..आशु मौसेरे भाईयों की कहानी कुछ यूँ बयाँ करते हैं -
चोर ने हंसकर दिया जवाब।
जनाब क्या कहते हैं आप
हरगिज़ नहीं करूंगा ऐसा पाप।
लोग बदल गए जमाना बदल गया
लेकिन फिर भी हम अपनी
पुराणी मान्यताओं को मानते हें
अपने मौसेरे भाइयों को
अच्छी तरह पहचानते हैं।
हम भूखों मर सकते हैं
मगर किसी नेता के घर
चोरी नही कर सकते हैं।
इतनी चर्चा करने के बाद एक आदमी के बारे में हम भी इतना जरूर कह सकते हैं कि इस आदमी के पास क्या वाकई में कोई काम नही है? या इसने इतने आदमी बैठाये हैं जो इनके नाम से काम कर रहे हैं। अगर अभी तक नही पहचाने तो बता दूँ हम उड़न तश्तरी यानि समीरजी का जिक्र कर रहे हैं। जितने भी अनजान से नजर आने वाले चिट्ठों में मैं गया उनमें से ९९ प्रतिशत चिट्ठों में इनकी टिप्पणी को पाया। लेकिन उन सभी में हिंदी की प्रोत्साहन की बात करने वाले कई लोग नदारद पाये गये।
नये चिट्ठाकार
अनुप जी ने लास्ट टाईम कहा था कि हमें भी नये चिट्ठाकार के लिंक देने चाहिये और वो लिंक मैं इस बार भी नही दे रहा हूँ। लेकिन कुछ कहना जरूर चाहूँगा, अनुपजी या अन्य चर्चाकार जिन नये चिट्ठों के लिंक देते हैं, कितने लोग उन्हें देखने जाते हैं? शायद गिनती के ही। मैने कई चिट्ठों मे जाकर देखा है गिनती के ही लोगों को प्रोत्साहित करते हुए पाया है। नये चिट्ठेकारों को भी समझना चाहिये कि ताली दो हाथों से बजती है कह नही सकता कि उनमें से कितने लोग उन साथी चिट्ठेकारों की चिट्ठे में गये ये देखने के लिये कि कौन भला मानुस स्वागत की बात कह के गया है।
शास्त्रीजी की टिप्पणी के अंत में लगा "१० टिप्पणियों के प्रोत्साहन का टैग" बरबस मुझे महाभारत के युद्ध में कही युधिष्ठिर की बात याद दिलाता है, जब उन्होंने चिल्लाकर कहा था - "अश्वत्थामा मारा गया" लेकिन उसके बाद के शब्द इतने धीमे कहे गये थे कि शायद ही कोई सुन पाया। चिट्ठेकार १० टिप्पणियाँ तो कर रहे हैं लेकिन उन्हीं १०-११ चिट्ठों में जिनमें वो अक्सर और शुरु से करते आये हैं और खुद शास्त्री जी भी अपवाद नही हैं। नये चिट्ठों को और हिन्दी को जरूर प्रोत्साहित करो लेकिन ध्यान रहे कहीं हिंदी का वो ही हाल ना हो जाये जो ओलंपिक में अक्सर भारत का हुआ करता है।
एक दूजे के लिये
1. जांबाज इंस्पेक्टर एमसी शर्मा नहीं रहे किसी ने सही कहा है शहीदों की उम्र कम होती है पर जिंदगी बड़ी
2. ये हैं खरा और तीखा सच पहले से ही बंटे समाज को बांटने की तैयारी
चिट्ठेकार महेन About Me में कुछ यूँ लिखते हैं -
ग़लत हैं वे जो कहते हैं कि परमानन्द मुक्ति से ही मिलता है। कील लगने के कुछ दिनों बाद जो खुजास होती है, उसमें भी परमानन्द होता है। शिशु के कुनमुनाते होठों में भी परमानन्द होता है और भोर में बाल सुखाती पड़ोस के शर्मा जी की आयुष्मती को आँखभर देख लेने में भी परमानन्द ढूँढा जा सकता है। परमानन्द तो परनिन्दा में भी होता है और परसाई की बात मानें तो परमानन्द उसे कहते हैं जब भक्त ईश्वर को ठग लेता है। ईश्वरीय सत्ता ने इस धरा पर हमें जो उपकरण दिये हैं उनमें से किसी में भी परमानन्द मिल सकता है। मुझे यह परमानन्द पीले पन्नों के काले-काले अक्षरों को बाँचने में बाकी चीज़ों की अपेक्षा ज़्यादा मिलता है।
3. रिश्तों की टोकरी जिसमें नही के बराबर है भार
4. न जाने क्यों पीता हूँ पीते ही मोबाइल और मचछर दोनों भिनभिनाते से लगते हैं
5. आम आदमी का एकालाप
6. आतंकवाद की आग पर राजनीतिक रोटियों की सिकाई और उसके बाद परोसी दबगों को दाल-भात-सब्जी, दलितों को माड़-नमक-भात
7. मैक्स का नया विज्ञापन - मूँछ नहीं तो पूछ नहीं
8. प्रधानमंत्री मनोनीत सिंह का राष्ट्र के नाम संदेश विरोधी पार्टी की लापरवाही से खुदा गुम है
9. शीर्षक में ही तो सब कुछ है मसलन ज़िंदगी है कागजों के घर-सी
10. चित्र पहेली :आईये कुछ खाने पीने की बात हो जाए हम्म पेचीदा पहेली है, गुस्से से न सुलझेगी
11. माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं लेकिन इसमें इतना खुदगर्ज क्या होना
12. सर्चने का नजरिया बदला और गणित में घुसी सुनहरा अनुपात और चित्रकारी
13. बह री हवा,तू जाना तख्त हजारे फिर आना पीकर एक कप चाय
14. एक टीवी न्यूज चैनल के कान्फरेंस हाल से दिखाया गया आपके मंदिर में कचरा
15. सुख का भूगोल अभी तक पीट रहे अतिथि देवो भव का ढोल
16. अपनी दादी के लिए जिनके बिना मेरा मन सूखा पत्ता
अगले शनिवार को फिर हाजिर होंगे तब तक टिप्पणी कर ब्लोग में डाल
वाह, खुजलाहट मिटाने को बहुत है इस चर्चा मेँ।
जवाब देंहटाएंघणी मेहनत करी है आपने।
मुझे लगता है कि अब हिन्दी चिट्ठे उस क्रिटिकल मास को पा चुके हैं, जब किसी नए चिट्ठे को सस्टेन करने के लिए टिप्पणियों की दरकार होती थी. अब जब नित्य दो दर्जन से ज्यादा चिट्ठे आ रहे हैं और इनकी संख्या में एक्सपोनेंशियल वृद्धि हो ही रही है, तो ऐसे में वही चिट्ठे चलेंगे जो निरंतर, प्रोफ़ेशनल अंदाज में बढ़िया सारगर्भित सामग्री देंगे - विषय चाहे जो हो. ऐसे चिट्ठों को पाठक भी मिलेंगे और जाहिर है ढेरों टिप्पणियाँ भी. विशिष्ट थीम वाले चिट्ठों के खास, विशिष्ट पाठक ही रहेंगे ये भी तय है.
जवाब देंहटाएंचिट्ठाकारों का वर्गीकरण गौर करने लायक है। वैसे इस विषय में शोध की अभी काफी गुंजाइश है :)
जवाब देंहटाएंएकलाइना की जुगलबंदी तो काबिले तारीफ है।
अच्छे मौलिक विचार ......आभार !
जवाब देंहटाएंशानदार चर्चा ! चिठ्ठेकारों के प्रकार जान कर बहुत
जवाब देंहटाएंज्ञान प्राप्त हुवा ! धन्यवाद !
अब हम क्या कहें जी, आप का कहा बहुत है। पर रवि रतलामी जी की टिप्पणी महत्वपूर्ण है।
जवाब देंहटाएंरविरतलामी से पूरी तरह सहमत और अपनी कल की पोस्ट मे इसी बात को लिखा भी जिसका जिक्र तरुण ने आज किया हैं .
जवाब देंहटाएंhttp://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2008/09/blog-post_19.html
तरुण को धन्यवाद जिनको हमारा ब्लॉग पढ़ने का समय मिला .
ha ha ha.......... sahi hai.
जवाब देंहटाएंएक दूजे के लिए ..हमेशा की तरह बहुत अच्छा ..और वर्गीकरण सोचने लायक है :)
जवाब देंहटाएंअब वर्ग- भेद, वर्ग अन्तराल, फिर वर्ण(नो-नो वर्ग)संकर आदि के मुकद्दमें दर्ज कराने के लिए अदालतों के नाम- पते कौन बताएगा? अगली कड़ी में अनूप जी शायद और प्रकाश डालें कि कल को किसी ने आरोप तय पाये हम पर तो ब्लॊगिए किस अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं?
जवाब देंहटाएंहम तो इसी लिए किसी गैंग(वार)में किसी वार को नहीं पड़ते।
आज की चर्चा वाकई काबिल ए तारीफ़ है.. पूर्णतया सहमत हू आपसे.. आपने ब्लॉग जगत में हो रही हलचल के बारे में बहुत बढ़िया विचार रखे है.. उमीद है किसी को इस से कुछ सीख मिले..
जवाब देंहटाएं:-)
जवाब देंहटाएंकाफी मेहनत की है झलक दिख रही है आज के चिट्ठे में। बधाई हो।
जवाब देंहटाएं"तीसरे प्रकार में वो आते हैं, जिनकी प्राथमिकता खुबसूरत पीठ को खुजाने की रहती है।"......सही कहा......
जवाब देंहटाएंओर देश के शहीद इंसपेक्टर शर्मा को लाखो नमन ...
.
जवाब देंहटाएंलैऽ ऽ.. भल्ल !
छोरे तरूण क मतबल तौ ये है कि..
चिट्ठाकारी के लिये एक अदद पीठ का होना ज़रूरी है..
पीठ दिखाये बिना कोई नाइसिल ना छिड़कने का...
पीठ खूबसूरत और चिकनी हो तो... अय हय, क्या कहने हैं
खुज़लाने का अनिर्वचनीय सुख मिला करता है..
वही तो... ? अब निकल लो अमर कुमार यहाँ से...
कितना भी ईश्टाइल से साइडपोज़ दे लेयो... तेरी पीठ में वो बात न आवेगी !
तरूण भाई, इसके अपवाद भी हैं,
जैसे प्रोफ़ाइल इमेज़ समीरलाल ’ गब्बर सिंह ’ वाली हो तो भी बात बन जाती है !
अब तो वह पोस्ट के साथ ही नाना प्रकार के उलट-पुलट पोज़ देने लगे हैं !
चिट्ठागढ़ में रह कर, अब उनकी उपेक्षा न करें ।
इतनी बेहतरीन चर्चा और इतनी सारी चर्चा-कोई और काम नहीं है क्या?? हा हा!!!
जवाब देंहटाएंचिट्ठाकारों के प्रकार का एनालिसिस धांसू है, जिओ!!!
बाकी तो खैर अनूप जी बतायेंगे ही!! :)
@रवि जी, बिल्कुल सहमत. ओलंपिक का उदाहरण देके मैने यही कहने की कोशिश की लेकिन शायद मुझे लगता है नये लोगों को थोड़ा वक्त देना चाहिये ये समझने में। बाद में नये हों या पुराने ये बात सभी चिट्ठों में लागू होती है। इसीलिये ये तय है कि आने वाले चिट्ठों में पड़ने वाली टिप्पणियों का प्रतिशत कम होता जायेगा।
जवाब देंहटाएंआप सभी लोगों को आभार ईस्मायली के साथ :)
जवाब देंहटाएंवाकई बेहतरीन चर्चा. खास तौर पर चिट्ठाकारों का वर्गीकरण शानदार है. रविरतलामी जी ने भी एकदम सही कहा.
जवाब देंहटाएंरोचक और मार्गदर्शक...।
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा करी। इसी बहाने मैंने चिट्ठाकारों के वर्गीकरण वाला निठल्ला लेख दुबारा पढ़ा। मीडिया से जुड़े और कोमल मन ब्लागर के बारे में साल भर पहले कही बात अभी भी सच है। नये चिट्ठाकारों का प्रोत्साहन होते रहने चाहिये। नये लोग जो आते हैं वे कोई बबुआ नहीं होते। उनमें से कई धुरन्धर लिख्खाड़ होते हैं। कई बार तो पुराने ब्लागर अपने नये ब्लाग बनाते हैं। लेकिन जो नया ब्लाग लिखना शुरू करते हैं वे चाहे जिस उम्र के हों, चाहे जित्ते बड़े लिख्खाड़ हों लेकिन नये माध्यम में आने पर यदि उनको पढ़कर और प्रतिक्रिया देकर उत्साह बढ़ाया जायेगा तो वे भी नियमित लिखेंगे और हो सकता है शर्मा-शर्मी, देखा-देखी आपके ब्लाग पर भी आयें।
जवाब देंहटाएंआपका वर्गीकरण बहुत अच्छा लगा तरुण जी ! मगर कुछ विस्तार में लिखे तो अच्छा लगेगा !
जवाब देंहटाएंवर्गीकरण तो गौर करने वाली है ! अच्छी चर्चा.
जवाब देंहटाएंएक दूजे के लिए पर काफी मेहनत की गई है जो साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा है अच्छी चिटठा चर्चा
जवाब देंहटाएंनए तो हम भी है मगर गुरुजनों के आशीर्वाद तथा आपके सहयोग से हमें टिप्पदी के लाले नही पड़े
कोटि कोटि धन्यवाद
वीनस केसरी
काफी विस्तार से लिखे गये इस चिट्ठे के लिये आभार.
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी:
"खुद शास्त्री जी भी अपवाद नही हैं।"
शायद यह बताती है कि आप नये चिट्ठों पर नहीं जाते क्योंकि हर दिन हर नये चिट्ठे पर टिप्पणी करना मेरा नियम है!!
सस्नेह
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- बूंद बूंद से घट भरे. आज आपकी एक छोटी सी टिप्पणी, एक छोटा सा प्रोत्साहन, कल हिन्दीजगत को एक बडा सागर बना सकता है. आईये, आज कम से कम दस चिट्ठों पर टिप्पणी देकर उनको प्रोत्साहित करें!!
@शास्त्री जी, चर्चा में टिपियाने के लिये धन्यवाद
जवाब देंहटाएंये मैने नये चिट्ठों पर जाकर उन्हें देखने के बाद ही लिखा है, आज की चर्चा के लिये विशेष रूप से सिर्फ नये और कम पढ़े चिट्ठों पर ही गया था और उनकी पोस्टों में टिप्पणी पढ़कर ही ये लेख लिखा। पहले दिन या एक बार चिट्ठों में जाकर कट एंड पेस्ट रूपी टिप्पणी का मैं कभी हिमायती नही रहा हूँ। आप अगर ऐसा करते हैं जो कह रहे हैं तो ये अच्छी बात है करते रहिये मेरी भी शुभकामनायें।
जहाँ तक मेरा प्रश्न है तो मैं नये पुराने के भेद में पड़ता ही नही, जहाँ भी पढ़कर लगता है टिप्पणी करनी चाहिये करता हूँ, टिप्पणी के लिये रविजी की कही बात आजकल ज्यादा प्रैक्टिकल है। इसलिये आने वाले वक्त में हमारी तरफ से भी टिप्पणियों में शर्तिया कमी आयेगी।
शुभकामनायें
तरुण जी धन्यवाद अपनी चर्चा मे हमारे विप्लव को शामील करने के लिये!
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