हिन्दी साहित्य प्रेमियों के लिए कल का दिन ज्ञानपीठ की घोषणा के कारण महत्वपूर्ण रहा क्योंकि इस सम्मान के लिए हिन्दी के वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण के नाम की घोषणा हुई|
इस घोषणा के बाद कि वर्ष २००५ का ज्ञानपीठ पुरस्कार हिन्दी के शीर्षस्थ कवि कुंवर नारायण को दिया जाना है, यह उक्ति दुहराने का मन होता है कि इससे ज्ञानपीठ की ही प्रतिष्ठा बढ़ी है। ज्ञानपीठ पुरस्कार को समस्त भारतीय भाषाओँ के साहित्य में अत्यंत प्रतिष्ठित माना जाता है, पर इसके साथ भी विवाद और चयनित कवि-लेखक को लेकर बिल्कुल फर्क किस्म की बातें सामने आती रही है। इस परिप्रेक्ष्य में कुंवरजी का निर्विवाद चयन कुछ विलंबित ज़रूर है, पर इससे हिन्दी और विशेषकर कविता का सम्मान बढ़ा है। स्वयं कुंवरजी इसके लिए ख़ुद को एक निमित्त भर मानते हैं।वैसे अनुराग जी निर्विवाद रूप से सामने आया है नाम परन्तु कई नॉन पार्टी वरिष्ठ साहित्यकारों से कल ( व गत २ माह से भी) फोनाचार द्वारा यह सुना गया कि बिसात तो पक्की बिछी थी, और....; खैर जाने दीजिए भारत में किसी भी ज्ञान शाखा से (या अन्य) संस्था के स्तर को बरकार रखने या बचे रहने की बात करना ही एक बड़ा व्यंग्य है|क्यों ऐसा होता है कि खेमे, धन,प्रभुता आदि के प्रयोग की मानसिकता के चलते लोगबाग कुछ भी अंजाम देने से नहीं सकुचाते।
आने वाले समय में भी कुंठा का यह आलम कम होता दिखाई नहीं देता। संभावनाशील रचनाकारों के लिए पुरस्कार, पद, गद्दियाँ, आसन कुछ मायने नहीं रखने चाहिएँ । निराला को किसने क्या दिया,और क्या उन्होंने स्वीकारा? परन्तु कालजयी रचनाकार अपने को स्वयं स्थापित करता है वरना दूसरों को गिराने और उठाने की उठापटक वे करते हैं जिनके पास करने को कोई सर्जनात्मक कार्य नहीं हो।
कल एक रोचक प्रविष्टि आई, रोचक इसलिए कि उसके शीर्षक में एक शब्द ने बड़ा भ्रम पैदा कर दिया। विषयवस्तु भी कंधे थे और लेखमाला को पूरा करने के अपने बोझिल प्रतीत होते प्रयास की तुलना भी कंधे से की गयी थी। अब यदि कोई यह न पढ़े कि
जी हाँ यह पुरूष पर्यवेक्षण यात्रा तो अब कंधे पर लदे वैताल के मानिंद ही हो चली है ! पर मुझे इसे पूरा करना ही है -तो आगे बढ़ें -तो कैसे अन्तर करेगा कि लदी कहने से शव या बोरे आदि का जो आभास उसे हो रहा है, वह टिकी कहने से विषयवस्तु से जुड जाता।
आप सभी ने एक गीत अवश्य सुना होगा और वह खेला भी देखा ही होगा, जो आज के नगरों के बच्चों के नसीब में नहीं है " .... घर बैठे सारा संसार देखो .. पैसा फेंको तमाशा देखो" पर बिना पैसे के हींग लगे न फिटकरी वाली बात हो तब तो अवश्य देखना - दिखाना चाहिए| ये है हिन्दुस्तान मेरी जान!
इसी क्रम में विश्वप्रसिद्ध खजुराहो देखने साथ चलेंगे ?
अब घूमने घुमाने निकल ही पड़े हैं तो साहित्य अकादमी के त्रिदिवसीय कार्यक्रम में भी पधारें, अपनी इसी यात्रा का संकेत ऊपर किया था।
ज्ञान जी ने अपनी अफसरी चर्चा के प्रसंग वाले सारे एस.एम.एस. ब्लॉगर साथियों को सुनाने का लोभ किया तो उनकी निकटतम ब्लॉगर साथी ( और जीवनसाथी) से टिप्पणी का यह प्रतिसाद मिला -
लोगों में जब यह प्रतिभा होती है, तब रोजी-रोटी की चिंता इंजीनियरिंग पढ़वाती है। जब रोजी-रोटी का इंतजाम हो जाता है, तब यह प्रतिभा शुष्क हो चुकी होती है!मामले की गंभीरता को जानना हो तो ज़रा- सा यहाँ तक टहल आईये, अंदाजा हो जाएगा|
ताऊ की एक खासियत होती है की अगर किसी को गलती या बदमाशी करते देख लिया तो उसको ५/७ लट्ठ जरुर मारेगा और कान के नीचे भी ३/४ जरूर बजायेगा ! ख़ुद का चाहे कितणा भी नुक्सान क्यूँ ना हो जाए !रचना जी को ताऊ जी की इस सेवा का लाभ उठाकर घर के खाने से रेस्टोरेंट खोलने वालों की ख़बर लेनी चाहिए।
वरना रेस्टोरेंट में जा कर शाकाहारी भी खतरों से खेलने की मंशा पलने लगते हैं। अब इन्हें कौन बताए कि जब घी के लड्डू हों तो भला क्यों संताप करते हैं?
घर की बात चली तो याद आया कि क़स्बे की ओर से कल एक मार्मिक प्रश्न उठाया गया -
बहुत सारी मांओं ने अपनी बेटी का घर नहीं देखा होगा। अपनी लाडली का ससुराल कैसा है बहुत मांओं ने नहीं देखा है। बेटी का नहीं खाते हैं, इस बेहूदा सामाजिक वर्जना के अलावा कई अन्य कारण भी रहे होंगे जिनके कारण मांओं ने अपनी ब्याहता बेटियों का घर नहीं देखा होगा।बेटियों की बात हुई तो बेटों की भी हो और फिर समूह में घूमते बेटे बेटियों की भी
अपन और ज्यादातर सभी सिर-कान से लेकर पाँव के अंगुठे तक पैक थे लेकिन देखता हूँ कि इनका ये ग्रुप अचानक अपने बाहर के कपड़े उतार देता है, लड़कों के बदन पर रह जाते हैं सिर्फ कच्छे (अंडरवियर) और लड़कियों के ब्रा और कच्छे। इधर उधर गुजरते सब लोग उनको ही देखने लगते, मैं उनको क्रॉस करते हुए एक उड़ती नजर डालता हूँ तो हायला ये क्या वो लड़के लड़कियाँ जो सबसे पीछे खड़े हैं, जिनका फोटो में चेहरा भी मुश्किल से आयेगा वो भी कपड़े उतारे फोटो खिंचवा रहे थे।अब इसे क्या कहूँ पागलपन या जोश में होश खोती जवानी के लम्हों को संजो कर रखने की एक अनोखी और यादगार कोशिश जिसे दिवार में टांगकर तो रख नही सकते, किसी आल्मारी में ही रखना पड़ेगा।
इस घटना के सामने मेरी जमीन पर एक परिचय ऐसा भी मिला-
जीवन मे कुल अठ्ठाईस वैलेन्टाईन डे का बहिष्कार कर चुका हूँ इसलिये उचित ही अविवाहित हूँ. मिडिलवेयर सोफ्ट्वेयर के क्षेत्र में काम करता हूँ और अक्सर डेवलपमेंट, टेस्टिंग, बग्, डिफेक्ट फिक्सिंग और पर्फ़ौरमेंस ट्यूनिंग के लफडो में अपने को फ़ंसा पाता हूं.मोदी के कार्यकाल में गिराए गए मंदिरों की चर्चा व कारण जानने के लिए यहाँ जाएँ।
महान पिता की महान बात तो ठीक है, पर आपके ब्लॉग के नाम में प्रयुक्त मंत्र बुरी तरह अशुद्ध प्रयोग है | गनीमत है कि उसे पट पर दिखाया नहीं जा रहा केवल टेम्लेट में एडिट करके डाला गया है, सो टैब ही में आता है ।
कुछ गोपनीय पढ़ना चाहते हैं ? यह रहा
हमने तो इतिहास में एक ही काण्ड ( काकोरी ) सुना पढा था पर आज कल कुछ नए किस्म के ही होते हैं . इधर यह काण्ड हुआ तो हम खैर मना रहे हैं कि कहीं काण्डकारी सज्जन तक शिव जी का कहा न पहुँच जाए -
अगर युद्ध समाप्त होने के बाद फिर से कोई ये मामला उठाएगा ही तो एक जाँच कमीशन बैठा दूँगा. मेरे पिताश्री का क्या जाता है? मैंने तो सोच लिया है कि अगर जाँच कमीशन बैठाना भी पड़ा तो क्या फ़िक्र? मैं जो चाहूँगा, वही तो होगा. मैं तो साबित कर दूँगा कि दुशासन ने द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश नहीं की. ख़ुद द्रौपदी ही राज दरबार में आकर अपनी साड़ी उतारने लगी. ताकि वहां हंगामा करके दुशासन को फंसा सके.
ऐसी रिपोर्ट बनवा दूँगा कि द्रौपदी को ही सज़ा हो जायेगी।
अब भाटिया जी को इतने सुंदर फूल की पहचान पूछते समय भला क्या पता था कि एक ही जन इसे बूझ पाएगा । वैसे इमली को भी क्या पता था कि जिस ब्लॉग जगत में कालसर्प योग का परिचय भी ऑनलाईन उपलब्ध है वहाँ एक ही बाशिंदा उसके फूल को चीन्ह सकेगा? इमली को अंग्रेजी में टैमरिंड कहते हैं, इस शब्द की कथा इतनी रोचक है कि यदि चुनाव के चक्कर में शब्दों का सफर अटका न होता तो उनसे बाँटा जाता।
कविताएँ पढने का शौक भी इस बार पूरा कर सकते हैं आप ।
अजीब वक्त है
अजीब वक्त है -
बिना लड़े ही एक देश-का देश
स्वीकार करता चला जाता
अपनी ही तुच्छताओं की अधीनता !
कुछ तो फर्क बचता
धर्मयुद्ध और कीटयुद्ध में -
कोई तो हार जीत के नियमों में
स्वाभिमान के अर्थ को
फिर से ईजाद करता ।
- कुंवर नारायण
[ वरिष्ट कवि कुंवर नारायण की राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'कोई दूसरा नहीं' तथा 'सामयिक वार्ता' (अगस्त-सितंबर १९९३) से साभार ]
अंत में
आज की चर्चा इतनी ही। अभी ७.४५ हैं. कुल ३ घंटे। शाम का एक लाईन आज संभव नहीं(अब यात्रा की मजबूरी ठहरी)। चाहें तो विवेक अपनी कलम के जौहर आज रात या कल सुबह की चर्चा के रूप में दिखा सकते हैं| आगे उन पर व आप सभी पर| अन्य भाषा के चिट्ठे भी इस बार छूट रहे हैं।
टिप्पणियों द्वारा सहयोग करने वाले मित्रों को धन्यवाद भी देना अभी ही अनिवार्य है, वरना आगामी सप्ताह तक टल जाएगा। सो, मित्रो! सद्भाव बनाए रखें।
प्रतिक्रियाएँ आगे लिखने की इच्छा जगाती हैं|
अभिनन्दन !!
बहुत आभार -मुझे सदैव करेक्ट करने के लिए !
जवाब देंहटाएंकम समय में भी बहुत अच्छी चर्चा, स्पोंडेलायटिस का परमानेंट इलाज होमेओपैथी में है, अगर आपको कहीं लाभ न हो तो बताइयेगा !
जवाब देंहटाएंस्पोंडाईलोसिस के दर्द के बीच जन्मी चर्चा बेहतर है।
जवाब देंहटाएंbehatreen charcha
जवाब देंहटाएंकविताजी बहुत धन्यवाद इस शानदार चर्चा का ! कितना परिश्रम किया होगा आपने ? इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है ! हम तो एक पोस्ट किसी तरह ठेल ठाल कर आफिस पहुंचे हैं और आपने समीक्षा भी कर डाली ! गजब का स्टेमिना और कमाल की नजर है ! बहुत शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकविता जी आज की चर्चा इतनी परेशानी सहकर भी करने का धन्यवाद . कल मुँह अंधेरे ही चर्चा ठेलने का प्रयास करूँगा . भई जिसको जो लिखना हो रात को दस बजे तक लिख ले .
जवाब देंहटाएंकुवर नारायण को ज्ञापपीठ पुरस्कार। दरअसल, ऐसे पुरस्कारों पर हिंदी साहित्य के बूढ़ों का ही एकाधिकार रहता है। मजे हैं इनके।
जवाब देंहटाएंकुंवर नारायण ji ko bahut bahut badhayee.aaj ki vishtrat charcha blogjagat ghuma layee.
जवाब देंहटाएंishwar karey aap ko jald hi spondylitis ki pareshaani se aaram mil jaye.shubhkamnaon sahit
बढ़िया चर्चा... कम समय का असर नहीं दिखा... आपकी मेहनत सराहनीय है.
जवाब देंहटाएंsaargarbhit aur rochak charcha par badhaaee!
जवाब देंहटाएंaapkee yatra shubh ho.
krpaya swaasthya ka dhyaan rakhen....aapke lekhan kee prateeksha rahtee hai.
बढिया चर्चा के लिए बधाई। रचनाजी - दाल रोटी..का लिंक दिया गया है - ज़रा धीरज से चर्चा पढिए।
जवाब देंहटाएं>जब हाथ में ‘हथोडा’ हो तो भेजा फ्राय हो जाता है। फिर, किसकी क्या परवाह। हम तो पूर्वजों पर भी हथौडा चलाएंगे जी।
>बातों-बातों में चित्तौड़्गढ और खजुराहो की सैर करा दी , घर बैठे...
>वैसे, सर्दी का मौसम सैर के लिए अच्छा होता है तभी तो सभी सैर को निकल पडे़ हैं। साहित्य अकादमी की आप की यात्रा मंगलमय हो। शुभकामनाएं॥
i am deleting my previous comment as i hv recd a mail from web duniya and they are blocking the content
जवाब देंहटाएंcmpershad thanks for link
आपनें तो सब कुछ समेट लिया है ,अब कहने को क्या शेष है ? आज हमें आपसे यही कहना है कि आप की यात्रा मंगलमय हो। शुभकामनाएं॥
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा रही. समय का अभाव जरा भी नहीं झलका. चिट्ठाचर्चा के लिए आपको सुबह-सुबह इतनी मेहनत की, इसके लिए आपको धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंइतनी बढ़िया चर्चा की आपने कि अनूप जी की अनुपस्थिति जरा भी न खली।
जवाब देंहटाएंवैसे उनकी ब्लॉगर आई.डी. पुराणिक जी लिये घूम रहे हैं, और चिठ्ठा-चर्चा आपके जिम्मे! :)
कुंवरनारायण जी के विषय में और पोस्टें होनी चाहियें।
अच्छा लगा आपके द्वारा की गई इस चर्चा को पढ़ना।
जवाब देंहटाएंसुंदर, बेहतरीन चर्चा। पढ़कर बहुत अच्छा लगा। कुंवर नारायण जी को ज्ञानपीठ मिलने की बधाई! आपके अच्छे स्वास्थ्य के लिये मंगलकामनायें!
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