लेकिन चलिए, "आ गए हैं हम यहाँ तो गीत गाकर ही उठेंगे" टाइप कविता कहते हुए हम कर ही डालते हैं, चिट्ठाचर्चा.
घर में ढेर सारा काम करने के बाद भी मसिजीवी जी ने एक ही दिन में एक किताब ख़त्म कर दी. और इस तरह से एक ही दिन में किताब ख़त्म करना उनके लिए "उपलब्धि सा जान पड़ता है." असगर वजाहत की किताब 'चलते तो अच्छा था' जो एक यात्रा संस्मरण है, की बात करते हुए मसिजीवी लिखते हैं;
"यात्रा संस्मरण पढ़ना जहॉं आह्लाद से भरते हैं वही ये अब बेहद लाचारगी का एहसास भी देते हैं, दरअसल अब विश्वास जमता जा रहा है कि संचार के बेहद तेज होते साधनों के बावजूद दुनिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा शायद कभी नहीं देख पाउंगा।"
उनकी इस पोस्ट पर समीर लाल जी ने मसिजीवी का आभार प्रकट किया. किताब के बारे में जानकारी देने के लिए. संचार के बेहद तेज होते साधनों की बात से प्रभावित होकर समीर जी ने अपनी टिपण्णी में लिखा;
"अपना जरा मोबाईल ईमेल करना!!"
संचार के साधन इस कदर तेज हो गए हैं कि अब मोबाइल भी ई-मेल किया जा सकते हैं.
इसी पोस्ट पर प्रमोद सिंह जी ने अपनी लाचारगी को अपनी टिप्पणी में व्यक्त करते हुए लिखा;
"हिन्दी में अच्छे सफ़रनामों की ऐसी किताबों का न होना काफ़ी अफ़सोसजनक है. होना तो है ही.....सच्चायी तो है ही कि ढेरों लोग अभी सीवान तक के सफ़र का लिख क्या नहीं पा रहे,अभी तक जा भी नहीं पा रहे.. जैसे मैं ही अभी तक सीवान क्या सासाराम तक नहीं पहुंचा हूं"
वैसे उन्होंने ये भी बताया कि वे आज शाम ही बुडापेस्ट के लिए निकल रहे हैं. हमें आशा करनी चाहिए कि बुडापेस्ट से लौटने के बाद यात्रा संस्मरण को वे एक किताब का रूप देंगे.
सतीश पंचम जी ने अपनी पोस्ट में आज एक माँ की चर्चा की. एक माँ जिसकी सबसे बड़ी बेटी की शादी होने वाली है लेकिन उसका बेटा पहली कक्षा में पढता है. बेटी की शादी में जाने के लिए बेटे को छुट्टी चाहिए लेकिन माँ लोक-लाज के चलते स्कूल वालों को सच नहीं बताना चाहती. सतीश जी लिखते हैं;
"आखिर इसमें लाज की क्या बात है, कइयों के बच्चे शादी के काफी
दिनों बाद होते हैं तो इसमें असमंजस कैसा.....लेकिन फिर पता चला कि अभी उनकी कुल पाँच बेटियां है, लडके के इंतजार में एक के बाद एक लडकियां होती गई और जब बडी उम्र में छठे पर लडका हुआ तो जाकर खुशी का ठिकाना न रहा, लेकिन यह खुशी यह असमंजस भी ले आएगी, ऐसा उन्होंने न सोचा था."
दिनेश राय द्विवेदी जी ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"अरे! उस महिला को तो सामाजिक रूप से परमवीर चक्र का सम्मान मिलना हिए था। इन्ही के कारण तो समाज में लिंग अनुपात कुछ बना हुआ है, और वे हैं कि शर्म से मरी जा रही हैं."
लोक-लाज का डर अभी भी समाज में है. लेकिन किस रूप में?
इस तरह के दौर से टोनी और चेरी ब्लेयर गुजर चुके हैं. लोक-लाज के असर ने उनसे क्या करवाया, ये देखने वाली बात है.
अलोक पुराणिक जी दिल्ली के हैं और आजकल दिल्ली में शादियों का मौसम चल रहा है. इन महीनों में शादियों और नेताओं के चलते दिल्ली की शान को चार चाँद लग जाता है. ऊपर से अगर किसी शादी में नेता पहुँच जाए तो क्या कहने. शादियों में नेताओं की उपस्थिति को लेकर आलोक जी लिखते हैं;
"दरवाजे के बाहर ही खड़ी रहती है, अंदर नहीं आती. पूछो, तो कहती कि शटअप, हमारा सिर्फ आऊटसाइड सपोर्ट है. दरवाजे के बाहर ही काऊँ काऊँ करेंगे. पता लगेगा कि इन्हे आऊट साइड सपोर्ट वाले विकट आशीर्वाद देकर गये हैं."
अलोक जी की इस पोस्ट को ज्ञान दत्त जी ने एक शोध प्रबंध से टीपा हुआ करार दिया. अपनी टिप्पणी में उन्होंने लिखा;
"यह तो “समाज शास्त्र, विवाह प्रथा और नेताओं का योगदान” नामक शोध प्रबंध से सीधा टीप दिया आपने!"
आजकल अजित जी के ब्लॉग पर पल्लवी त्रिवेदी जी अपने जीवन की सुना रही हैं. अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए वे लिखती हैं;
"ताँगे से स्कूल जाते थे! दो ताँगे थे...एक को खयाली चलाता था ,एक को चैपू! खयाली हमें फूटी आँख नहीं सुहाता था,बच्चों के बैठने के बाद पीछे एक रस्सा बाँध देता था जिससे कोई बच्चा गिर न जाए! बंधे से बैठे रहते!मगर चैपू बहुत क्यूट था...उसके राज में हम कभी सीट पर नहीं बैठे...हमेशा पैर रखने वाली जगह पर लटक कर जाते थे या घोडे के ठीक पीछे उसकी काठी पर बैठते थे! जब खाली रोड आ जाती तो जिद करके लगाम अपने हाथ में ले लेते और मजे से तांगा चलाते! सच तांगा चलाने में जो मज़ा आया वो कभी किसी गाडी को चलाने में नहीं आया!"
पल्लवी जी के तांगा चलाने की बात शायद कुश को पहले से मालूम थी. इसीलिए उनकी आनेवाली 'फिलिम' ब्लागीवुड की शोले में उन्होंने पल्लवी जी को बसन्ती के रोल के लिए साइन किया.
आज ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की मानसिक हलचल में यादों का मौसम डेरा जमाये है. वे आज गंगा की डॉल्फिन, जिसे उनके इलाके में सोंईस के नाम से जाना जाता है, को याद करते हुए लिखा;
"सोंइस, तुम नहीं रही मेरे परिवेश में. पर तुम मेरी स्मृति में रहोगी."
वाईल्ड लाइफ ब्लॉग से उन्होंने सोंईस की एक तस्वीर बिना अनुमति के लेकर छाप दिया. उन्होंने ब्लॉग ओनर का आभार भी प्रकट किया.
उनकी इस पोस्ट पर गंगा की डॉल्फिन की फोटो देखकर अलोक पुराणिक जी को मज़ा आया. उन्होंने ज्ञानदत्त जी को यादों की बरात बताते हुए अपनी टिप्पणी में लिखा;
"क्या केने क्या केने. आप तो यादों की बारात हैं. कहां की यादें कैसी यादें. क्या केने क्या केने. गंगा की डाल्फिन देखकर तो मजा आ लिया जी."
एक कम्यूनिष्ट की ख्वाहिश क्या हो सकती है? ये जानने के लिए कबाड़खाना पर अशोक पांडे जी की पोस्ट पढ़ें. इस पोस्ट में उन्होंने अपने अच्छे मित्रों में से एक और अपने सबसे अच्छे कम्यूनिष्ट मित्र, श्री बिपिन बिहारी शुक्ला के एक लेख का जिक्र किया है. भीमसेन जोशी जी के गायन को आगे रखकर शुक्ला जी लिखते हैं;
"लेकिन मेरी हमेशा एक ख्वाहिश रही है. कम्युनिस्टों के विचारों को उस रूप में सुनने की जहां एक साथ स्वाभिमान और विनम्रता मौजूद हों. जहां सारे मार्क्सवादियो से लिया गया हो लेकिन यह बात सुनने वाले से ज्यादा सुनाने वाले को पता हो. जहां वह मुग्ध करे और उसका आकर्षण सुनने वालों को आग़ोश में ले लेता हो."
देश के कम्यूनिष्ट सुन... सॉरी पढ़ रहे हैं?
अब थोड़ा 'करेज' (ये करेज शब्द ही सफर करके करेजा तो नहीं बना? अजित भाई बताएं) दिखाकर अनूप जी के कॉपीराईट्स एक लाईना पर ट्राई मारते हैं.
दिल्ली दरबार में हाजिरी: सबको देनी पड़ती है.
गोरी तू मेला देखन नाय जइयो तोको नोच नोच खाय जाएँ: तू तो बस ब्लाग देखन अईयो, हम हँसी-हँसी तोको दिखायें.
आ गए चुनाव: चलो मिल आयें.
कितना प्यारा है दर्द!! : इसे घर ले आयें?
रोकिये इस सडन को: जोर लगा के हई सा..
काहे काफ़ की परियों से एक मुलाकात: होते-होते रह गई.
राजनीति मंथन करी: नेता गडेरिया हम बकरी.
ताऊ के काम : सारे अनोखे.
डीटीएच लगवा ही लीजिये: कौन बीमारी का टीका है?
दिल्ली में जाम के मजे ले रहा हूँ : अकेले-अकेले?
भीमसेन जोशी और कम्यूनिस्ट भाषा का सपना: दोनों गूढ़ हैं.
करता है फिर गुनाह क्यूं रब भी कभी-कभी : सबके गुनाह देख के इंस्पायर्ड हैं वो भी.
यूनिटी डार्लिंग की हिटलर से मुलाकात की तैयारी: हिटलर फिर से आत्महत्या पर उतारू.
आईये हाथ उठाएं हम भी: आ रहे हैं. पहले पाँव तो उठे.
तुम कहती हो प्यार करूं मैं : औ मैं चाहूं वार करूं मैं.
विधानसभा के जनादेश के विचित्र गणित : कभी समझ में नहीं आता.
सेमीफाईनल दूल्हे : फाईनली फाईनल में पहुंचे.
यह जेहाद अमेरिका की देन है : अहा, दानवीर अमेरिका, क्या-क्या देता है.
अंत में एक कविता की कुछ पंक्तियाँ, जो मुक्तिबोध जी की बीमारी के समय परसाई जी ने लिखी थी. ये बताते हुए कि माचवे जी लिखते तो क्या लिखते? माचवे जी की स्टाइल की मिमिक्री. याददाश्त के सहारे लिख रहा हूँ. कुछ गलती हो सकती है. अगर कोई पाठक (उपधिया भी) गलती पकड़ लें, तो लिखकर बता दें. वैसे अर्थ समझ में आए तो वो भी बताएं.
मसिजीवी जी की पोस्ट पढ़कर याद आ गयी. परसाई जी ने लिखा था;
तारसप्तक, लेख, कविता, यामिनी, कामायनी
सुन रहा हूँ बंधुवर तुम हो गए बीमार
याद है, इंदौर, शिप्रा, महाकालेश्वर?
नहीं गए कभी रामेश्वर?
न्यूयार्क, लन्दन, पेरिस, टोरंटो, बुडापेस्ट
जाओगे, लाओगे मेक नो हेस्ट
.........................
कोशिश करके चर्चा कर डाली. कोशिश करूंगा कि आगे भी चर्चा करूं. इसी आशा के साथ आज निकलता हूँ.
भूल-चूक लेनी-देनी.
वाह ! छ गए !
जवाब देंहटाएंशानदार च जानदार चर्चा कर डाले। कर के डाल दिये। अब लोग आनन्दित हों। हमने गलत प्रचार नहीं किया था। इससे लगता है कि हमारी नजर पारखी है। समीरलालजी वाला मोबाइल प्रकरण ऐसा है कि हर शख्स अपने वजन के हिसाब चीजें मांगता है। समीरलालजी का मोबाइल ई-मेल हो जाता होगा सो उन्होंने मांग लिया। एकलाइना का कापीराइट हमारा उसी दिन से सार्वजनिक हो गया जबसे रीता भाभी ने कहा कि शिवकुमार बढ़िया एकलाइना लिख सकते हैं। उनके विश्चास की रक्षा हुई!
जवाब देंहटाएंमुझे मालूम था:
जवाब देंहटाएंशिव बाबू जब आयेंगे,
आते ही छा जायेंगे....
कितना सही मालूम था. बहुत बढ़िया चर्चा के लिए बधाई.
सचिन तेंदुलकर ग़लत आदमी की तारीफ़ करता भी नही है... आज की चर्चा से साबित हो गया... बहुत खूब
जवाब देंहटाएंसबसे ज्यादा प्रसन्न तो रीता पाण्डेय हैं इस चिठ्ठा-चर्चा से। इस बोल्ड फॉण्ट से भी ज्यादा!
जवाब देंहटाएंशिव भैया, इस पारी में तो रन अच्छे खासे बना लिए हैं। जल्दी टीम से बाहर बिठाने का कोई चांस नहीं है। दो-चार बार शून्य कर दिये तब भी नहीं बिठाए जाओगे। देख लो रन नहीं बनाए तो फील्डिंग में तो पदना ही पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा, मगर आपकी चर्चा की फ्रीकुएंसी कम क्यों ?
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा...और परसाई जी की इस दुर्लभ रचना को पढ़वाने का शुक्रिया और इस जानकारी के साथ कि ये माचवे जी की मिमिक्री थी
जवाब देंहटाएंधन्य-धन्य
सबसे पहले तो मैं आपका आभारी हूँ के आपने इस चर्चा में मेरी ग़ज़ल (करता है फ़िर गुनाह क्यूँ रब भी कभी कभी ) को हेड लाइन बनाया है इसके लिए आपको आभार ब्यक्त करता हूँ ...
जवाब देंहटाएंआपकी चर्चा बेशक बहोत ही सही है .... आपको ढेरो बधाई और साधुवाद ..
अर्श
मिश्राजी बधाई हो ! आपने तो अभी से लगता है तेंदुलकर जी के रिकार्ड तौड़ने की तैयारी कर ली है ! बहुत ही सुंदर और खुशगवार चर्चा की आपने ! और मा. रीता भाभीजी के विश्वास को भी आपने एक लाईना में कायम रखा ! बधाई !
जवाब देंहटाएंईमानदारी से कहूँ तो आप कुछ दिन ब्लॉग लेखन छोड़कर यही नियमित लेखन करे .....बस एक गुजारिश है घर की चाय छोड़कर लिखे .......
जवाब देंहटाएंAa gaye cha gaye, bahut sahi charcha,
जवाब देंहटाएंAnuraag ki baaton per gaur farmaayen
Blogiwwod ke sholay ka link thik karne ki jaroorat hai
जवाब देंहटाएंबैटिंग अच्छी कर दी- सचिन का बल्ला और अनूपजी का बॉल- दोनो हिट, आप फिट। बधाई।
जवाब देंहटाएंयदि किसी की मौलिक लेखनी को मारना है तो उसे समीक्षक बना दीजिए और ब्लाग लिखना बंद कराना है तो अनुराग जी का कहा मानिए :)
बहुत अच्छी लगी आपके द्वारा की गई चर्चा। आप यहॉं भी अपनी लेखनी चलाते रहें, शुभकामनाऍं।
जवाब देंहटाएंवाह मिसिर जी,
जवाब देंहटाएंयहाँ आकर भी पसर गये?! ...अब तो चर्चा भी धन्य हो गयी। सच कह रहा हूँ, मजाक बिल्कुल नहीं समझिएगा।
क्या केने क्या केने
जवाब देंहटाएंछा गए (यूँ भी मसिजीवी से चर्चा शुरू..खत्म भी मसिजीवी के जिक्र से..तो इतना कहना तो बनता ही है) :))
इस चर्चा के बात इसकी गुंजाइश कम ही है कि आपका पीछा छूटेगा.. तो झाड़े रहो कलट्टरगंज
आ गए गुरु .
जवाब देंहटाएंछागए गुरु ..
आपके चर्चे भागए गुरु ...
शब्द आपके चुने हुए मेरा दिल लुभा गए गुरु ....
यूँ ही चिट्ठा चर्चा करें नित आप गजब ढा गए गुरु.....
टिप्पणियों का जबाव तो दें सभी टिप्पणियाँ पचा गए गुरु ......?
अब आपकी चर्चा की भी प्रतीक्षा रहा करेगी।
जवाब देंहटाएंबड़ा मज्जा आया, इस चर्चा में.
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