सोमवार, मार्च 16, 2009

बिछड़ना है दिलासा दे रहे हैं / हम इक दूजे को धोखा दे रहे हैं





कल की चर्चा अनूप जी ने की और लावण्या जी की स्व.माता जी के प्रसंग में नीलोफर की टिप्पणी से उत्पन्न हुई परिस्थिति पर अपने सम्यक् विचार रखेभारतीय समाज, सभ्यता संस्कृति की सारी व्याख्याएँ मध्ययुगीन परिप्रेक्ष्य में करने के कारण इतिहास, समीक्षा नेतृत्व की तथाकथित स्वयम्भू स्वायत्तता वाली धारा भारत की प्रत्येक समाज सांस्कृतिक भाषाई परम्परा को गाली देती है, जी भर कोसती धिक्कारती हैंसच यह है कि भारतीय समाज व्यवस्था, सभ्यता, इतिहास, लोकजीवन, वैचारिकता, दर्शन संस्कृति आदि को समझने के लिए जिस तलस्पर्शिता की आवश्यकता है, जिस सूझ, विवेक और अकुंठ भाव की आवश्यकता है, व्यक्तित्व के जिस औदात्य की आवश्यकता है, उसके अभाव में, उस दृष्टि के अभाव में प्रत्येक अर्थ का अनर्थ करते रहने की प्रवृत्ति का कोई समाधान है नहीं; और इस सब को समझने के लिए किए जाने वाले श्रम से गत ५०-६० वर्षों से भी अधिक समय से दूर हो जाने के कारण इन पर निरंतर आक्षेप होते आते हैं, आदि आदि ... | यह विषय इतना उलझाया जा चुका है कि इसे सुलझाने का यत्न और क्रम अत्यन्त समर्पण श्रम के साथ साथ उस एक प्रकार के विवेक की अपेक्षा करता है, जिस का अभाव भारत के समाज, संस्कृति इतिहास को गाली देने वाली सभ्यता में विकसित कर दिया गया हैआँख की पुतली पर हाथ रखने वालों को सूर्य भी नहीं दिखाया जा सकता, दिखाई देता हैकुछ कुछ यही स्थिति आज के भारतीय समाज की हैआँख की पुतली पर हाथ रख कर चलने वाला समाज अँधेरे की गर्त में गिरेगा तो और उसका हो भी क्या सकता है


काश, हमने अपने पराधीनता के पूर्व के इतिहास लोक जीवन को समझने की सूझ विकसित की होती, तो कम से कम निरर्थक आक्षेपों, अन्-अर्थों का ही मर्म समझ पाते, शेष तो समझने को कितना क्या क्या था/हैइन्हीं निरर्थों में से एक है भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था की असंगतता को गाली देने की प्रवृत्तियह कितना बड़ा छल - प्रपन्च है, इसे कोई समझने को तैयार नहीं, क्योंकि समझने से एक तो जात-पात के नाम पर ठेकेदारी करने वालों को चाँदी काटने को नहीं मिलेगी, नेतृत्व (?)पर संकट जाएगा और जिन मंतव्यों को फैलाने के षडयंत्र के अंतर्गत यह सब किया जा रहा है, उसका आधार ही धराशायी हो जाएगाभारतीय समाज की अपनी ढेरों ढेर कमजोरियाँ, स्वार्थपरता,ज्ञान का अनभ्यास और जाने किस किस दुर्बलता के चलते इसे पोसते चले जाने में कोई बाधा है ही नहींअस्तु!


आप उस व्यवस्था के एक अन्य प्रकार के चित्र को देखें और अर्थ तक पहुँचें, यह शुभकामना है-




दर्जी,नाई,सेवक व ब्राह्मण समाज के लोगों ने नवजात बालकों को ढूंढा

देसूरी,15 मार्च। यहां रंगपचमी के अवसर पर दर्जी,नाई,सेवक व ब्राह्मण समाज के लोगों ने नवजात बालकों को ढूंढने की रस्म की। इसके लिए जत्थे के रूप में गीत गाते हुए ये लोग कस्बे के मुख्य मार्गो से गुजरते हुए गंतव्य को लौटें। दोपहर को लक्ष्मीनाथ मंदिर से शुरू हुए ये लोग सादों का बास,कालका माता मंदिर,ब्रह्मपुरी,पुरानी कचहरी,ऊपरला बाजार,कुम्हारों का चौड़ा,नाल का दरवाजा,नाईयों का बास होते हुए सांय को गंतव्य को लौट आए। इस दौरान ये लोग ढ़ोलक व मजीरों पर होली के गीत गाते हुए चल रहे थे। ढूढऩे के दौरान इन पर जगह-जगह रंग भी ड़ाला जाता रहा। लौटने के बाद इन लोगों ने भैरूजी मंदिर के आगे भजन प्रस्तुत किया और प्रसाद वितरण के बाद विसर्जित हो गए। बताते हैं कि कस्बे में पहले रंगपंचमी के दिन ही रंग खेलने का रिवाज था। लेकिन प्रवासी बंधुओं के पुन: परदेस रवाना होने की जल्दी में होली के अगले रोज धुलंडी को ही रंग खेलने की परंपरा कायम कर दी। लेकिन दर्जी,नाई,सेवक व ब्राह्मण समाज के लोगों इसे कायम रखा। यद्यपि मुख्य होली के अगले रोज ही बालकों को ढूंढ लिया जाता हैं। कस्बे के शेष दूरस्थ इलाकों के बालकों को रंगमपंचमी के दिन ढूंढ लिया जाता हैं। इधर,सादड़ी कस्बे में रंगपंचमी के अवसर पर लोगों ने जमकर रंग खेला। सादड़ी में धुलंडी के दिन रंग नहीं खेला जाता हैं।


एक कहावत है- `सावधानी हटी, दुर्घटना घटी'। अब यह दुर्घटना कब, कहाँ, किस रूप में घटती है, घट सकती है, इसका तो कोई भी पूर्वानुमान नहीं लगा सकता। हाँ, उस से बचने के लिए सावधान अवश्य रहा जा सकता है। ऐसी ही एक दुर्घटना का ब्यौरा पढ़ना इसलिए आवश्यक है क्योंकि हम आप इन्टरनेट की जिस वायवी दुनिया में रहते हैं, वहाँ बहुतेरे छद्म और छल हैं। कौन वास्तव में क्या है, कैसा है, और संपर्क में है, इसका भी अता पता सरल नहीं है। इसलिए इन्टरनेट के प्रयोक्ताओं को अपनी व्यक्तिगत जानकारियाँ उड़ेलने से बचना चाहिए, विशेषतः पारिवारिक व निजी जीवन की। (स्त्रियों को विशेष सतर्क रहने की आवश्यकता है)। पारिवारिक सुरक्षा के साथ साथ बहुधा आपको आर्थिक सीक्रेट क्षेत्रों में लेने के देने भी पड़ सकते हैंऐसा एक उदाहरण अभी देखने में आया, जब किसी बड़ी हानि से पहले ही सचेत हो जाने सहायता सुलभ हो जाने से हादसा तो टल गया।



लेकिन किसी ने मेरे कम्प्यूटर को निशाना बना रखा था और मेरी जानकारीयां का गलत इस्तेमाल शुरू कर रहा था। अब जब मैं यह सब जान गया तो पता करना था कि कितना नुकसान हो चुका है और इसको कैसे रोका जाए। मैंने फोरन ही अपने कुछ साॅफ्टवेअर प्रोफेशनल दोस्तो से सम्र्पक बनाया और उनको बुलाया। समस्या की गहराई को बताया कि क्या हो रहा हैं। उन लोगों ने काम शुरू कर दिया और पता करना शुरू किया कि कम्प्यूटर कब हैक किया गया और कैसे। मेरे दोस्त है रियाज भाई अपने काम के माहिर है और बहुत पेशेवर। उन्होने तुरन्त पता कर लिया कि क्या हो रहा है। उन्होने बताया कि मेरे कम्प्यूटर का D ड्राइव हैक कर लिया गया है और जितना भी मेटर D ड्राइव में था उसको वहां से निकाला जा रहा है। उन्होने बताया कि मेरे कम्प्यूटर से कुछ गलत साइटो को खोला गया है और वहां जाकर अपना रजिस्ट्रेशन किया गया है तथा D ड्राइवसे कुछ फोटो मेल किए गए है। जब उस साइट से रजिस्ट्रेशन करने के बाद D ड्राइव से फोटो को मेल किया जा रहा था तभी फोटो का पाथ बताने के लिए D ड्राइव का पता दिया गया। बस तभी उन लोगो ने इस ड्राइव को अपना निशाना बनाया। और ये सारा काम आर्कूट साइट के जरीये ही हुआ हैं। क्योकि वही से स्क्रेप लिए और दिये जा रहे थे। तब कुछ लोगों ने इसको टारगेट किया।






भारतीय भाषाएँ


कालिदास कृत "रघुवंशम्" का हिन्दी पद्यानुवाद नेट पर सर्वसुलभ करवाना अत्यन्त लाभकारी यत्न हैइसे लिए बधाई| पद्यानुवाद की अर्थवत्ता और छान्दसिकता पर विशेष कुछ कहने की अपेक्षा मुझे एक बात कहना अनिवार्य लगता है कि संस्कृत को लिपिबद्ध करने में जिस प्रकार की सतर्कता की आवश्यकता होती है, उस सतर्कता पर किंचित श्रम करने की आवश्यकता हैनेट पर ऐतिहासिक ग्रंथों या किसी भी तथ्यात्मकता के प्रति समर्पण में इस सतर्कता के बिना पीढ़ियों तक अशुद्धता का क्रम सारे श्रम पर प्रश्नचिह्न लगा देता हैदेश विदेश में रहने वाले किसी भी अध्येता को रघुवंश `सर्च' करने पर प्राप्त होने वाले परिणामों में जो सामग्री मिलेगी, वह उसी को प्रामाणिक मान उद्धृत कर सकता हैऐसे में हम भले अपने लिखे में दस दोष भी कर जाएँ किंतु ऐतिहासिक महत्व की सामग्री के प्रति अत्यन्त सावधान रहना चाहिए


देवनागरी ( हिन्दी) में आज तक मुझे एक भी ऐसी साईट, ब्लॉग या लिंक अभी तक नहीं मिला जो संस्कृत को निर्दोष लिखता होज्योतिष, धर्म, संस्कृति या दर्शन के नाम पर लिखने वाले बीसियों- पचासों-सैकड़ों सन्दर्भ और प्रसंग भी मैंने खंगाल मारे हैं किंतु इनमें से एक भी पूर्णतः निर्दोष नहीं मिला हैइतनी दयनीय स्थिति है संस्कृत की हिन्दी के प्रयोक्ताओं में, कि कहा नहीं जा सकताइस पर ध्यान पूर्वक सोचा जाना चाहिएकिया जाना चाहिए








रघुवंश श्लोक 51 से 60 हिन्दी पद्यानुवाद ..अनुवादक प्रो सी बी श्रीवास्तव



सेकान्ते मुनिकन्याभिस्तत्क्षणोिज्झतवृक्षकम् ।
विÜवासाय विहंगानामालवालाम्बुपायिनाम् ।।
मुनिकन्यायें सींच तरू उन्हें गई झट त्याग
जिससे निर्भय हो विहंग पान करें जल भाग ।। 51।।



आतपात्ययसंक्षिप्तनीवारासु निषादिभि: ।

मृगैर्वर्तितरोमन्धमुटजा³गनभूमिषु ।।

रोमन्थन करते हनिण प्रांगण में मिल साथ
जहॉं दिन ढले अन्न को रहे समेट निषाद ।। 52।।


अभ्युित्थताग्निपिशुनैरतिथीनाश्रमोन्मुखान् ।
पुनानं पवनोद्धूतैधूZमैराहुतिगन्धिभि: ।।
आहूति गंधी पवन से धूम जहॉं गतिवान

अग्नि शिखा शुचि अतिथि ने आश्रम को पहचान ।। 53।।



अथ यन्तारमादिश्य धुर्यािन्वश्रामयेति स: ।

तामवरोहयत्पत्नीं रथादवततार च ।।

अश्वों को तब थामनें दे सारथि को हाथ

राजा रथ से उतर गये रानी को ले साथ ।। 54।।


तस्मै सभ्या: सभार्याय गोप्त्रे गुप्ततमेिन्द्रया: ।
अहZणामहZते चक्रुर्मुनयो नयचक्षुषे ।।

सपत्नीक उस न्यायी से , जो रक्षक विख्यात

सभी जितेिन्द्रय मुनियों ने की स्वागत कर बात ।। 55।।



विधे: सायंतनस्यान्ते स ददशZ तपोनिधिम् ।
अन्वासितमरून्धत्या स्वाहयेव हविभुZजम् ।।

अरून्धिती गुरू देव के सन्धया वन्दन बाद

दशZन पायें यों यथा स्वाहा - हविभुज साथ ।। 56।।


तयोर्जगृहतु: पादान्राजा राज्ञी च मागधी ।
तौ गुरूर्गुरूपत्नी च प्रीत्या प्रतिननन्दतु: ।।
राजा रानी ने किया उनको चरण प्रणाम
गुरू - गुरूपत्नो ने दिया आशीZवाद ललाम ।। 57।।


तमातिथ्यक्रियाशान्तरथक्षोभपरिश्रमम् ।
पप्रच्छ कुशलं राज्ये राज्याश्रममुनि मुनि: ।।

नुप से , पा आतिथ्य यो जिसकी मिटी थकान
मुनि ने पूंछी राज्य कुशल - क्षेम दे मान ।। 58।।


अथाथर्वनिधेस्तस्य विजितारिपुर: पुर: ।

अथ्र्यामर्थपतिर्वाचमाददे वद्तां वर: ।।

धर्म पंथ पालक नृप ‘शत्रु - विजेता ‘शूर
तब गुरू से बोले वचन आदर से भरपूर ।। 59।।


उपपन्नं ननु शिवं सप्तस्व³ेगषु यस्य मे ।
दैवीनां मानुषीणां च प्रतिहर्ता त्वमापदाम् ।।

गुरूवर है सब कुशलता प्रभुके पुण्य प्रताप

मुझ जिसके हर कष्ट के प्रतिहर्ता है आप ।। 60।।






कविता का मन



कविता कब उपजी और क्यों उपजी इसके लिए सबके अपने अपने अनुमान हैं। किसी ने वाल्मीकि द्वारा क्रौंच पक्षी के वध को पहली कविता का प्रस्थान बिन्दु कहा तो किसी ने -


वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
निकल फिर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान


किंतु सभी इस बिन्दु पर लगभग सहमत पाए गए कि कविता का प्रथम परिचय वियोग और पीड़ा द्वारा ही हुआ होगा।
कई बार सोचती हूँ कि वे क्या कारण हैं कि कविता हर्ष और उल्लास के क्षणों में नहीं फूटी होगी? ऐसा मानने का कोई तर्क या आधार भी तो होना चाहिए ? मानव के मनोभाव क्या पीडा के ही प्रबल होते हैं, हर्ष, क्रोध, आदि के उसकी तुलना में इतने प्रबल नहीं होते कि वे किसी कविता के प्रस्फुटन के कारक बन सकें? आप भी विचारिए और अपनी राय से अवगत कराइए नेट पर संसार के पहले कम्प्यूटर का प्रयोग प्रेम की कविताओं के रचने के लिए किया गया था, यह जान कर आपको आश्चर्य हो सकता है ।


पूरी विधिवत् जानकारी को स्वयं ही पढ़ लीजिए -



Back in 1952 a team of scientists was desperate to test the capabilities of Mark One `Baby`, the computer built at Manchester University.

One of them, Christopher Strachey, devised a quirky software programme by entering hundreds of romantic verbs and nouns into the new machine।

He then sat back as Mark One `Baby` trawled the literary database to create a stream of light-hearted verse.

In much the same way as magnetic letters are displayed on fridges today, he and his team would print off the computer’s best efforts and put them on a notice board.

David Ward, a German computer `archaeologist` unearthed the program while researching Strachey’s papers at the Bodelian Library, Oxford, and then spent three months creating his own version of the software.'

His website allows vistors to generate their own random `poetry`.

Meanwhile, Mr Ward has also created a working replica of the One `Baby’ computer which will run the love letter programme for an exhibition in Germany.







विश्व

इस बार आपको पाकिस्तान के अपने एक प्रसिद्द पत्रकार/साहित्यकार मीडियाकर्मी मित्र से परिचित करवा रही हूँ मई १९६४ को मुल्तान में जन्मे प्रगतिशील लेखक राज़ी उद्-दीन राज़ी जलीलाबाद में रहते हैं पाकिस्तान के एक प्रसिद्द टीवी चैनल के रिसर्च संकाय के अध्यक्ष हैंअच्छे लेखक होने के साथ साथ इनके व्यक्तित्व में निहित एक बहुत ही बेहतर इंसान होने का गुण इनके मित्रों को अत्यधिक प्रभावित करता हैसमय समय पर अपने सामयिक राजनैतिक लेखन का कई बार प्रतिफल भोग चुके राज़ी की एक पुरानी ग़ज़ल की संवेदना और अनुभूति का आनंद लें -



पुरसा दे रहे हैं


Razi ud din Razi (पकिस्तान )



बिछड़ना है, दिलासा दे रहे हैं
हम इक दूजे को धोखा दे रहे हैं

मुबारकबाद देना चाहते थे
मगर लोगों को पुरसा दे रहे हैं

हमें रस्ते में ही रहना पड़ेगा
के हम लोगों को रस्ता दे रहे हैं

हमारा कुल असासा एक दिल था
तुझे उस का भी कब्जा दे रहे हैं

रहे चाहत सलामत ता कयामत
बिछड़ कर इसका सदका दे रहे हैं

यह कैसा ख़ाब है अहबाब मेरे
मेरे माथे पे बोसा दे रहे हैं

यह जीवन बुझ नहीं पाया किसी से
हम अब ख़ुद इसको झोंका दे रहे हैं








अभिलेखागार







4 जनवरी की पहली पाती रही अविनाशजी के नाम, जो यादों में खोये नज़र आये। अपने छोटे से लेख में उन्होने ऊँची इमारतों को फटी आँखों से देखा तो इमारते ही फटने लगी। अरे नहीं, नहीं भाई, कोई प्राकृतिक आपदा नहीं दरअसल हमारे नये मास्साब ई-पंडितजी कुछ जाँच कर रहे थे और परीक्षण करने के चक्कर में धडाधड़ लिख मारे। फटती इमारतों को देखकर अविनाश जी बिलकुल भी विचलित नहीं हुए। हमने उनसे पुछा के भाई आपको डर नहीं लगता तो सीना फाड़कर (कुछ ज्यादा ही चौड़ा कर लिए) बोले – हमारे घर के हर बरतन पर आईएसआई लिखा है।
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है

मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है
लगता है जोगलिखी के जोग प्रभू को दोबारा लिखने पड़ेंगे, आजकल बहुत आलसी होते जा रहे हैं। महाराजा भी कल से कॉफी के मग को छू नहीं रहे और साहबजादे नये चिट्ठाकारों को हिन्दी टंकण सिखाने की आड़ में समाचार-पत्र में छपे अपने नाम को बार-बार टंकित करवा रहे हैं। नये चिट्ठाकार गुस्से में आकर इनकों शाप देना चाह रहे थे मगर किसी तकनिकी खराबी के चलते यह शाप दुर्योधन को लग गया, बेचारा दुर्योधन। हालाँकि यह साफ हो चुका है कि यह सब-कुछ तकनिकी खराबी के चलते हुआ है मगर चुनाव के माहोल में किसी पर कीचड़ ना उछाला जाये, यह हो ही नहीं सकता। प्रमेन्द्रजी ने ऐलान कर दिया कि यह सब नेताओं के धन्धे हैं। नेताओं के बारे में अपने अनुभवों को आगे बयाँ करते हुए प्रमेन्द्रजी कहते हैं –
इनकी महिमा गज़ब निराली,

खाते हैं ये सब से गाली।

आते हैं कंगाल बन कर,

जाते हैं मालामाल होकर।
रविन्द्रनाथ जी ने पांचाली के माध्यम से अच्छा व्यंग्य किया है। हिन्दी प्रेमियों के लिए एक अच्छी ख़बर लेकर आये हैं, श्री रविशंकर श्रीवास्तव, हिन्दी के प्रति लोगों की बढ़ती रूची ने प्रभासाक्षी की पाठक संख्या 3 लाख के पार पंहुचा दी है और वो भी एक दिन में। अनुभव पर जाना कड़वाहट पूर्ण रहा, गिरिन्द्रनाथ जी ने नववर्ष के साथ मनाये गये पर्व ईद पर खुदा से सवाल किया कि क्यूँ मूक जानवर की बलि दी जा रही है? तो प्रिय रंजन झा जी कहते हैं कि नये साल में नशा तो कीजिये मगर सिर्फ दारू का, अच्छा कटाक्ष किया है उन्होने व्यंग्य के माध्यम से। इधर रत्नाजी कुम्भ मेले से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने का प्रयत्न करती नज़र आई, मगर हमें तो उनके लेख से ज्यादा तस्वीरे पसंद आई, आप भी देखियेगा। पिछले कुछ समय से पंकज भाई अजीब-अजीब सी हरकते करने लगें है, कहाँ तो पहले मास्साब बनकर शिक्षा का दीपक जलाते थे, और कहाँ आजकल बन्दरों की तरह बस खी....खी..खी..खी करने लगे हैं, ऐसा ही हाल कुछ गुरू समीरानन्द जी के शिष्य कविराज का भी है, कहते हैं मन नालायक हो गया है, अरे भाई लायक था ही कब? इधर मनिषाजी ने नये साल का कलेण्डर प्रिंट किया है और मुफ़्त में बांट भी रही है, भई हमें तो अगस्त वाला प्रिंट सबसे प्यारा लगा, अब आपको कौनसा लगा? जरूर बताईयेगा। अब यदि आप जानना चाहते है कि तपस जी मुस्कुराते क्यूँ है तो इसके लिए आपको आत्म-संवाद की शरण में जाना पड़ेगा। क्या आपने वो गाना सुना है? दो दिल मिल रहे हैं मगर...... क्या कहा, नहीं। कोई बात नही अब सुन लिजिये छायाचित्रकारजी से। पुनरावलोकन और संकल्प क्या होते हैं? कब किये जाते है? कौन-कौन करता है? इन सभी सवालों के जवाब दे रहें है क्षितिज कुलश्रेष्ठजी। क्या कहा? आपको इसके अलावा बिग बॉस की आगे की कहानी भी जाननी है, तो यह लिजिये हाजिर है। मिथिलेशजी पाली, राजस्थान से दरभंगा के मौहल्ले में जाकर सबको बता रहें है कि उनको कैसा लगा उस वक्त जब उनके बच्चे ने उनकों पहली बार माँ कहा, भई समीरलाल जी होते तो 2-4 रसीद कर देते, यह भी कोई बात हुई पापा को पापा कहने के बजाय माँ कह रहा है। इधर फुरसत से फुरसतिया जी को पढ़ने पर पता चला कि गुरूदेव मदिरा पीकर इस कदर बहके की खाली पन्ने पर ही लिख दिया – " आप बहुत अच्छा लिखती हैं, लिखती रहें"



पूरी चर्चा पढने के लिए लिंक क्लिकाइये, और भूतकाल में गोते खाइए, मजा लीजिए। इस बहाने नया-पुराना जानिए।






आधी आबादी



आज इस स्तम्भ में हम परिचित होने जा रहे हैं रेणु शर्मा जी से। भोपाल वासी ४८ वर्षीय रेणु शर्मा संस्कृत में पी-एच डी हैं। कहानी व कविता की एक एक पुस्तक के अतिरिक्त उनकी एक अन्य कृति "अपराध और अर्थशास्त्र" है।




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बेटी

भारतीय समाज मैं बेटी को ऊँचा दर्जा प्राप्त है , बेटी को लक्ष्मी , दुर्गा , काली , कल्याणी आदि न जाने कितने नामों से पुकारा जाता है । इसके बावजूद घर मैं यदि बेटी आ जाय तो साँस खींच ली जाती है । जबकि बेटी पैदा करने वाली भी एक बेटी ही होती है ।

बाबूजी को तो छः बार साँस खीचनी पड़ी थी , एक के बाद एक छः लड़कियों से घर भर गया था । जबकि वे चाहते थे की चार पञ्च लड़के हों , जो जमीन जायदाद संभालें । बड़ी मुश्किल से दो बेटे ही हाथ लग पाए । बड़े जतन के बाद बड़ी बेटी की शादी हो गई । सब सोचते थे अब , सब आसन हो जाएगा ।
दूसरी बेटी पढ़ाई के बाद घर बैठी थी , रोज सुबह उठाना , दैनिक कार्य करना और चची के घर दौड़ लगा देना , शाम तक यही क्रम चलता था ।
मैं , पुँछ बैठती क्यों ? कहीं लड़का देखा जा रहा है या नहीं , तो बोल देती अरे !! हम तो गाय हैं जहाँ बाँध देंगे , वहीं बाँध जाएँगी । जाने कब तक मिल पायेगा , देखते ही हैं बस , ठंडी साँस लेकर हम सब एक दूसरे का चेहरा देखने लगते और जोर से हंस पड़ते ।



नेट पर उनकी उपस्थिति के वाहक निम्न ब्लॉग हैं -

  1. प्रतिबिम्ब
  2. फूल और काँटे
  3. कथा-गाथा
  4. कठपुतली
  5. भावार्थ



अनंत




मेरे लिए चर्चा का दिन सोमवार है, तो रविवार को कई घंटे सामग्री ढूँढने, रवि की रातभर जग कर चर्चा लिखने सोमवार को सुबह तक उसे पोस्ट कर देने का क्रम रहता हैसोमवार को सुबह प्रातः काल सोने जाने के कारण सोम का आधे से अधिक दिन भी इसी नाम हो जाता हैदूसरे चर्चाकारों के साथ भी थोड़ी घट- बढ़ के साथ लगभग यही स्थिति होती हैसामग्री चयन के बाद संजोने में ही लगभग - घंटे लग जाते हैं इस बात को आपसे बाँटने का उद्देश्य केवल यही है कि जिस कार्य को इतने श्रम के साथ कई लोग मिल कर दायित्वपूर्ण ढंग से निभाते हैं, उस कार्य को सार्थकता प्रदान करने में सभी मित्रों का एक अव्यक्त- सा सहयोग अपेक्षित होता हैयह सहयोग मुँह देखी की टिप्पणियों द्वारा नहीं अपितु एक टीम वर्क को अधिकाधिक समर्थ उत्तरोत्तर सामूहिक बनाने में निहित हैअत: पूरे ब्लॉग जगत् में यदि इस भावना के प्रतिकूल कोई घटनाएँ घटती हैं तो चर्चा के मंच का व्यथित होना स्वाभाविक हैअन्यथा सभी चर्चाकारों के अपने अपने ब्लॉग हैं, वे इतना समय और श्रम अपने ब्लॉग पर भी लगा सकते हैंवैसा करके वे अपने समय,योग्यता व श्रम आदि का उपयोग किसी सार्वजनिक सामूहिक कार्य के लिए कर रहे हैं तो निस्संदेह उन्हें उस सामूहिकता के क्षय पर क्षोभ दुःख दूसरों से अधिक होता हैइसी लिए चर्चा के मंच की भूमिका कभी कभी निर्णयात्मक-सी होनी भी अनिवार्य हो जाती हैजो कर्तव्य करता है, उसके पास अलिखित रूप में स्वत: अधिकार भी होते हैंअत: कुछ सार्वजनिक सामूहिक विषयों पर कई बार चर्चाकारों को निर्णायक की भूमिका का दायित्वनिर्वाह भी करना पड़ जता है/पड़ सकता हैइसे किसी को भी व्यक्तिगत नहीं लेना चाहिए इसे अनधिकार चेष्टा माना जाना चाहिएइतना सहयोग तो कम से कम चर्चाकर अपेक्षित कर सकते हैं न आप सभी से ?

आपका प्रत्येक दिन सपरिवार आह्लाद से भरा हो !!

फिर मिलते हैं ....... नमस्ते !!!



(सबसे ऊपर इंदौर की रंगपंचमी का चित्र ओम् द्विवेदी के अर्ज़ है से)





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13 टिप्‍पणियां:

  1. कल अनूप जी की चर्चा और आज आप की। दोनों एक दूसरे से बेहतरीन रहीं। आप की चर्चा सदैव गरिष्ट गंभीर रहती है, आज भी है। इसे सहज बनाइए न! सुपाच्य?

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  2. सबसे पहले तो शुरुआत में लगा फ़ोटॊ बहुत सुन्दर लगा। अभिलेखागार में गिरिराज जोशी द्वारा की गयी चर्चा फ़िर से पढ़ना अच्छा लगा। गिरिराज बहुत सक्रिय कवि/ब्लागर और चर्चाकार रहे। आजकल न जाने किधर हैं! रेणू शर्माजी का लिंक देने के लिये शुक्रिया। बड़ी मेहनत से चर्चा की आपने। आज के दिन चर्चा देखने वाले औसत से अधिक होते हैं। यह आपकी चर्चा के कारण हैं। लेकिन द्विवेदी जी हालमोला मांग रहे हैं! :)

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  3. 'कविता जी आप की चर्चा पढकर आपके श्रम का अनुमान लगा रही हूँ - बाबारे !! कल अनूप भाई ने भी बहुत सँयत चर्चा करके सिध्ध कर दिया वरिष्ठ ब्लोगर कितनी श्रमसाध्य कर्म को कितनी खूबी से करते हैँ और आज आप ने भी वही किया है आभार
    - लावण्या

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  4. बहुत मेहनत से की गई एक विस्तृत चर्चा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. बहुत बहुत बधाई कविता जी इस चर्चा के लिए.

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  5. चर्चा को चरचा से वापस पुनः चर्चा की ही ओर मोड़ने के लिये धन्यवाद, कविता जी..
    पर आपने एक गड़बड़ कर दी..
    रघुवंश-काव्यम का लिंक देख टिप्पणी को आगे बढ़ाने का धैर्य जाता रहा है ।
    कहाँ से खोज खोज कर लाती हैं, यह उपयोगी ज़ानकारियाँ..
    आप शायद नेट पर ही सोती भी होंगी,
    मुझे तो यहाँ बिनप्रयास नये आयाम हासिल हो जाते हैं..
    सो आपका आभार.. ऎसे ही लिखती रहें !
    हा हा हा.. एक्ठो स्माईली भी लगाना चाहिये था क्या ?

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  6. ऐसी चर्चाओं से ‘चिट्ठाचर्चा’ की सार्थकता को चार चांद लेगेंगे ही। हां, जब कोई संजीदगी से इस अभियान को लेगा, तो गरिष्ठ तो लगेगी ही, क्योंकि इसमें कवि के वियोगी मन की बात है न कि किसी व्यंग्यकार के हास्य-व्यंग्य की स्माइली।
    ब्लागिंग करते समय यह भी ध्यान रहे कि वह इसलिए भी शुद्ध और संजीदा रहे क्योंकि इसे भावी पीढी भी कोट करेगी एक रेफरेंस की तरह।[ हास्य-व्यंग्य की विधा तो अलग बात है] इस संजीदगी को ध्यान में रखते हुए ही संस्कृत से हिंदी अनुवाद पर सजगता की ओर ध्यान दिलाया है आज के चिट्ठाकार ने। एक बहुत ही सार्थक चर्चा के लिए साधुवाद और आग्रह कि क्रम बनाए रखिये। रस-परिवर्तन के लिए कई चिट्ठाकार है ना:)

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  7. आज टिप्पणी नहीं सिर्फ धन्यवाद.इससे सार्थक उपयोग हो ही नहीं सकता इस मंच का.

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  8. चर्चा निश्चय ही आपकी ख्याति के अनुरूप है । चर्चा के बहुमूल्य लिंक यह तो स्पष्ट करते ही हैं कि इस अन्तर्जाल का काफी रचनात्मक उपयोग आप करती हैं और करने को प्रेरित भी करती हैं ।
    धन्यवाद इस चर्चा के लिये ।

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  9. "किसी ने वाल्मीकि द्वारा क्रौंच पक्षी के वध को पहली कविता का प्रस्थान बिन्दु "

    चर्चा में मेरी इस पंक्ति को " किसी ने वाल्मीकि द्वारा क्रौंच पक्षी के वध को सरापना पहली कविता का प्रस्थान बिन्दु"

    के रूप में पढ़ें।

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  10. वाह वाह! क्या बात है कविता जी! जिस तरह विभिन्न रंगों के संगम से होली रंगमय हो जाती है उसी तरह आज की चर्चा में आपने काफी विविधता लिये हुए घटकों को एकत्रित करके रंगबिरंगी आभा फैला दी है.

    बहुत सुंदर !!

    संगणक की सुरक्षा के लिये मेरा सुझाव है कि हर व्यक्ति को अपने संगणक पर "जोन एलार्म" (Zone Alarm) नामक तंत्रांश स्थापित कर लेना चाहिये. इसका मुफ्त संस्करण काफी सशक्त है एवं इसे सही तरीके से लगाया जाये तो इसे हेक करना टेडी खीर है.

    मैं पिछले 10 साल से इसका प्रयोग करता आया हूँ,एवं मेरा संगणक चौबीसों घंटे (सातों दिन) जाल से जुडा रहता है.

    प्रति महीने कम से कम 200 से 600 बार हेकिंक की कोशिश होती है, लेकिन अभी तक कोई भी सफल नहीं हो पाया है.

    सस्नेह -- शास्त्री

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  11. वर्ण-व्यवस्था के व्यक्ति-विरोधी पाठ का अर्थ
    समझने के साथ ही उसके
    सामाजिक पुनर्पाठ की आवश्यकता तथा
    संभावना को उकेरता आमुख
    बार-बार पठनीय और मननीय है.
    चर्चा मंच के इस सटीक उपयोग के लिए धन्यवाद!


    होली/रंगपंचमी भारतीय पर्वों की सामूहिकता का सबसे बड़ा प्रमाण है.
    नवजात शिशुओं को खोजने की प्रथा भी सामाजिक अभिप्राय से परे नहीं है.


    रघुवंश के अंश पढ़ना रोचक रहा .


    पाकिस्तानी ग़ज़ल भी अच्छी है.
    [वैसे यदि संवेदन एक से हों तो भूगोल-भेद से कुछ ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता न !]


    आधी आबादी में बेटियों वाले घर की त्रासदी मर्मस्पर्शी है.
    अभी बड़े सामाजिक परिवर्तन की दरकार है!


    अनंत की निर्णयात्मकता भी विचारणीय है --
    अब अगर चौपाल और चौपाल-धर्म हैं
    तो चौधराहट की आहट भी तो आएगी न !!

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