आईबी की रिपोर्ट थी कि पन्द्रह से तीस नवम्बर के बीच में कोलकाता में आतंकवादी हमला हो सकता है. रिपोर्ट पढ़कर यहाँ के पुलिसवाले दो दिन के लिए सतर्क हो गए थे और हम गौरवान्वित. पुलिस वालों ने आने-जाने वाली गाड़ियों की तलाशी भी ली. दो दिनों तक उनकी तलाशी का टीवीय कार्यक्रम देखकर हमें थोड़ा गुमान हो गया था. ये सोचकर 'गुमानित' हुए जा रहे थे कि 'अब हमारा कोलकाता भी कोई छोटा-मोटा शहर नहीं रहा. आतंकवादी इस शहर को भी जानते हैं. यहाँ भी हमला होगा.'
लेकिन ये क्या? इन आतंकवादियों ने तो कोलकाता वालों को धोखा दे दिया. प्लान बनाया कोलकाता में हमला करने का और कर दिया मुम्बई में. आतंकवादी भी अब भरोसे के काबिल नहीं रहे. किसी भी ब्रांड के आतंकवादी भरोसे के काबिल नहीं रहे जी.
वैसे, कौन से ब्रांड का आतंकवादी हमें मारेगा? या फिर हम कौन से ब्रांड वाले से मरना पसंद करेंगे? अपने मरने के लिए कौन से ब्रांड के आतंकवादी पर भरोसा किया जा सकता है?
घुघूती जी अपनी पोस्ट में यही सवाल करते हुए पूछती हैं;
"आइए अब हम झगड़ें कि ये किसके आतंकवादी हैं, इस धर्म के या उस धर्म के ? क्या मरने वाले को इससे कोई अन्तर पड़ेगा? कोई लोगों से पूछे कि वे किस ब्रांड के आतंकवादी के हाथ मरना पसंद करेंगे ?"
इस तरह के हमले आमजन को किस तरह से प्रभावित करते हैं इसका एहसास उनकी ये पोस्ट पढने से होता है. वे आगे लिखती हैं;
"बस यही कामना करती हूँ कि जिस होटल में मेरे पति हैं वहाँ के समाचार आने न शुरू हो जाए. स्वास्थ्य लाभ के बाद कल पहली बार एक मीटिंग के लिए मुम्बई गए हैं. बस यही बात कुछ सांत्वना दे रही है कि वे पाँच सितारा होटल में नहीं रुके हैं. वे ठीक हैं,उन्हीं ने फोन करके मुझे टी वी देखने को कहा. परन्तु बहुत से लोग जो होटलों में फंसे हैं वे ठीक नहीं हैं और वे सब भी हमारे ही हैं. किन्हीं ८० मृत व्यक्तियों के परिवारों का जीवन बदल गया है."
सच बात है. इस हमले ने ८० मृत व्यक्तियों के परिवारों के न जाने कितने सदस्यों का जीवन बदल दिया होगा. इस तरह से सारे हमलों के बारे में सोचा जाय तो एक अनुमान लगाया जा सकता है कि कितने लोग आए दिन आतंकवाद से प्रभावित हो रहे हैं.
घुघूती जी की इस पोस्ट को पढ़कर
दिनेश राय द्विवेदी जी के मन में विचार कौंधा कि कल रात धर्म की मृत्यु हो गई. वे अपनी टिप्पणी में लिखते हैं;
"बिटिया मुम्बई में है, समाचार मिलने के ठीक पहले उस से बात हुई थी. रात भर समाचार आते रहे. इन्हें देखने के बाद नींद जैसी आनी चाहिए थी वैसी ही आई. पर आप की पोस्ट पढ़ने पर एक विचार कौंधा कि धर्म की आज रात मृत्यु हो गई. अब जो धर्म का नाम ले रहे हैं वे सभी उस की अंत्येष्टी में लगे हैं."
द्विवेदी जी के अनुसार जहाँ कल रात धर्म की मृत्यु हो गई. लेकिन एक ज़माना था जब धर्म कुलांचे मारता था. उस दिनों लोग धर्म की स्थापना के लिए न केवल लड़ते थे बल्कि उसका पालन करने के लिए निजी स्वार्थ को पीछे रख लेते थे.
महाभारत की लड़ाई समाप्त होने के बाद जब अश्वथामा ने द्रौपदी के पुत्रों को मार दिया. जब तक अर्जुन अश्वथामा को पकड़ कर द्रौपदी के सामने ला पाते, तबतक द्रौपदी धर्म का मर्म समझ चुकी थी. इस बात की जानकारी देते हुए
मग्गा बाबा भीष्म के हवाले से
अपनी पोस्ट में लिखते हैं;
"सत्य हमेशा सत्य होता है ! भले कड़वा हो पर सत्य खरा कुंदन है ! और किसी भी प्राणी
से वो व्यवहार मत करो जो तुम्हे अपने लिए ना पसंद हो ! यही था धर्म का मर्म !"
भीष्म द्बारा दिया गया धर्म का ये मर्म द्रौपदी की समझ में आ गया. इसलिए जब अर्जुन ने अश्वथामा को मारने के लिए अपनी कमर कसी तब द्रौपदी ने कहा;
"कल ही तो पितामह ने हमको धर्म का मर्म समझाया था की दुसरे के साथ वह व्यवहार मत करो जो तुम्हे अपने लिए पसंद ना हो ! और आज ही भूल भी गए ? अरे पुत्र वियोग की पीड़ा क्या होती है ? ये मुझसे अच्छी तरह और कौन जान सकता है ? मैं नही चाहती की माँ कृपी ( अश्वथामा की माता ) भी उस शोक को प्राप्त हो जिसे मैं भुगत रही हूँ ! अरे उनका इस अश्वथामा के अलावा अब इस दुनिया में बचा ही कौन है ?"
द्रौपदी की इस सोच पर
महाभारत जी ने द्रौपदी को न केवल बुद्धिमान नारी बताया बल्कि मग्गा बाबा की जय-जयकार भी की. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"ऎसी स्थिति में भी द्रौपदी ने अपना संयम नही खोया ! वो वाकई बहुत बुद्धिमान नारी थी ! मग्गाबाबा की जय !"
धर्म का ये मर्म शायद हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकारों को समझ में आ गया है. यही कारण है कि वो आतंकवादियों के प्रति बदले की भावना से कार्यवाई नहीं करना चाहती.
जहाँ एक तरफ़ सरकार बदले की भावना से कोई कार्यवाई नहीं करना चाहती, वहीँ
हर्षवर्धन जी का खून खौल रहा है. उन्हें इस बात का पछतावा है कि क्यों नहीं वे किसी फोर्स में भर्ती हुए? अपनी बात बताते हुए
वे लिखते हैं;"खून खौल रहा है. इच्छा ये कि क्यों नहीं मैं भी किसी फोर्स में हुआ. और, क्यों नहीं ऐसा मौका मुझे भी मिला कि दो-चार आतंवादियों को मार गिराता. साथ में कुछ नपुंसक नेताओं को भी."
हर्ष जी टीवी पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं. लिहाजा टीवी पत्रकारों की बात करते हुए वे लिखते हैं;
"हम टीवी वाले भले ही देश को न्यूज दिखाने के चक्कर में हर खबर को नाटकीय अंदाज पेश करने वाले बन गए हैं. लेकिन, सच्चाई यही है कि कलेजा हमारा भी कांपता है. औऱ,
खून हमारा भी खौलता है."
सच बात है. देश की आम जनता का केवल खून ही खौल सकता है. इस तरह से खून खौलने का रिजल्ट ये हुआ कि हर्ष जी ने नेताओं को नपुंसक बताया. जहाँ हर्ष जी ने नेताओं को नपुंसक बताया, वहीँ
चंद्र मौलेश्वर प्रसाद जी ने जनता को नपुंसक बताया. अपनी टिप्पणी में प्रसाद जी लिखते हैं;
"जब तक नपुंसक जनता एकजुट होकर उन्हें राजनीति से नहीं निकाल देती. अब तो उन में इतना अहम आ गया है कि उत्तर देने की बजाय फोन पटक देते हैं!!!!!!!!!!"
'जनता' और 'नेता' से बने हुए देश को क्या कहा जाय?
मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के ऊपर लिखी गई हर पोस्ट पर ज्ञान दत्त पाण्डेय जी अपनी टिप्पणी में सबसे एक सवाल करते दिखे. अपनी टिप्पणी में उन्होंने सबसे पूछा;
"कौन हैं ये लोग?"
इसका जवाब जानने के लिए शिवराज पाटिल साहब का एक ब्लॉग बनवाना पड़ेगा. उनके ब्लॉग पर ये सवाल करने से शायद जवाब मिले. लेकिन वो भी तभी मिलेगा अगर पाटिल साहब शेरवानी शूट न बदल रहे हों.
वैसे जिस समय मैं ये चर्चा लिख रहा हूँ, मेरा पार्टनर विक्रम मेरे पास ही बैठा है. हर्ष जी के पोस्ट का शीर्षक, 'नपुंसक नेताओं के हाथ में कब तक रहेगा देश' को पढ़कर उसने अपनी टिप्पणी में कहा;
"ब्लॉगर लोग नेताओं को नपुंसक क्यों कह रहे हैं. उन्हें कैसे मालूम कि नपुंसक अगर देश पर शासन करेंगे तो उतने ही नकारा होंगे जितने हमारे ये नता हैं? अभी तक एक बार भी नपुंसकों के हाथ में शासन तो सौंपा नहीं."
विक्रम का कहना भी ठीक ही है. शासन तो नेताओं के हाथ में है. अब नेता हैं तो चुनाव है. चुनाव है तो उसका प्रचार है. प्रचार है तो वो अलोक पुराणिक जी के कानों तक पहुंचेगा ही. दिल्ली में आने वाले चुनावों में किसी नेताजी का प्रचार करने वाली एक 'टेलीफोनिक बालिका' ने
पुराणिक जी को फ़ोन किया. उससे बातचीत के दौरान पुराणिक जी ने नेता के कैरेक्टर की तुलना जूते के कैरेक्टर से कर डाली.
वे लिखते हैं;"मैं आपको बताना चाहूंगी कि गारंटी जूतों के मामले में तो दी जा सकती है. पर नेताओं के साथ गारंटी वाला कोई आफऱ हमारे पास नहीं है. हमारे पास क्या, किसी के पास भी नहीं है."
उनकी इस पोस्ट पर
ज्ञान दत्त पाण्डेय जी ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"गजब असमानता है जूते और नेता में. फिर भी दोनो को आप साथ ठेल दे रहे हैं. नेताओं से आपका लम्बी दूरी का वैर है. यह अच्छी बात नहीं है."
टिप्पणी से लगा जैसे पाण्डेय जी चाहते हैं कि पुराणिक जी का नेताओं से लम्बी दूरी का वैर न रहे. वैर छोटी दूरी का हो जाए.
व्यंगकार लम्बी दूरी का वैर जेब में लिए इतना कुछ कर देता है. दूरी घाट गई तो न जाने क्या कर डालेगा?
तरुण जी ने चिट्ठाचर्चा से छुट्टी ले ली. इसके बावजूद वे छोटी पोस्ट लिखते हैं. आज
अपनी पोस्ट के शुरू में ही वे चेतावनी टाइप देते हैं कि;
"इस पोस्ट से किसी भी तरह की शालीनता और सयंम की उम्मीद ना करें."
ऐसी चेतावनी के बावजूद उनकी ये पोस्ट बहुत संयमित है. वे आगे लिखते हैं;
"इतने सारे विस्फोटों के होने के बाद भी ना सरकार को ना गृह मंत्री को शर्म तक नही ती कि उस जॉब से इस्तीफा दे दे जिसे करना उसके बुते की बात नही."
उन्होंने जब न्यूज में देखा कि दो आतंकवादी जिन्दा पकड़ लिए गए हैं तो उन्हें अच्छा नहीं लगा. उन्होंने अपनी पोस्ट में सवाल किया;
"इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी इन्हें क्या जिंदा पकड़ना जरूरी था? और बिहार के उस युवक को मारना क्यों जरूरी था?"
अब इस सवाल का जवाब कौन देगा? महाराष्ट्र के गृहमंत्री का ब्लॉग भी खुलवाना पड़ेगा. अरे वही जिन्होंने बिहार के इसी युवक के बारे में कहा था; "गोली का जवाब गोली से देंगे."
अब तो रिपोर्ट आए तो पता चले कि पकड़े गए दो आतंकवादी अपने गन से कहीं फूल तो नहीं फायर कर रहे थे?
अपनी पोस्ट में तरुण जी ने हेमंत करकरे और ऐसे ही अन्य पुलिस अधिकारियों और आम जन की मृत्यु पर शोक प्रकट किया.
दिनेश राय द्विवेदी जी ने बताया कि हेमंत करकरे की मृत्यु से कई लोगों को सकून नामक भाव की प्राप्ति हुई होगी. तरुण जी के सवाल पर अपनी टिप्पणी में वे लिखते हैं;
"यह सवाल बहुत दिनों तक वातावरण में रहेगा, उस का उत्तर शायद ही मिल. हेमंत करकरे की मौत से शायद उन लोगों को सकून मिले जिन की आँख की पिछले दिनों वे किरकिरी थे. उन सभी शहीदों को विनम्र श्रद्धांजली जो कर्तव्य करते हुए शहीद हो गए."
द्विवेदी जी की टिप्पणी पढ़कर लगा जैसे वे करकरे से किरकिरी मिलाने के चक्कर में ऐसी टिप्पणी लिख गए. अन्यथा वे जानते हैं कि एक पुलिस अफसर की मौत पर किसे खुशी होगी?
हाल ही में दिल्ली में हुए जामिया हाउस मुठभेंड की बात को याद करते हुए
शिव कुमार मिश्रा ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"हेमंत करकरे आतंकवादियों के साथ मुठभेंड में मारे गए. ये मुठभेंड सच्ची की थी क्या?"
आतंकवादी घटना ऐसी है कि कवि भी इसी मुद्दे पर कविता लिखते पाये गए.
अभिनव अपनी कविता
'इंडियन लाफ्टर' देखिये, में लिखते हैं;
"मुंबई को बना दीजिये बमबई,
अरे, ये बगल से किसकी गोली गई,
किसने चलाई, क्यों चलाई, किस पर चलाई,
अमां छोडिये ये लीजिये दूध में एक्स्ट्रा मलाई "
काशी का अस्सी
ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की प्रिय किताब है. शायद इसीलिए इस किताब की 'शेल्फ लाइफ' लम्बी है और जब-तब शेल्फ से निकल आती है. प्रिय किताबों की यही खासियत होती है. एक जगह बैठ नहीं सकतीं.
पाण्डेय जी के अनुसार उन्होंने कई बार जोर लगाया लेकिन काशी का अस्सी की तरंग का तोड़ नहीं मिलता. वे कहते हैं;
"खैर कितना भी जोर लगायें, तोड़ मिलता नहीं काशी की अस्सी की तरंग का. और उसका दो परसेण्ट@ भी अपनी लेखनी में दम नहीं है."
ये दो परसेंट वाली बात उन्होंने क्यों कहीं? इसका शायद दो धेले से कोई सम्बन्ध है.
वैसे तो
प्रियंकर जी फिलहाल ब्लागरी से छुट्टी पर हैं लेकिन ज्ञानदत्त जी ने अपनी पिछली पोस्ट में प्रियंकर जी प्रदत्त एक टिप्पणी को पोस्ट के साथ लगा दिया है.
काशी का अस्सी में इस्तेमाल की गई भाषा, जो गालीपूर्ण होने का एहसास दिलाती है, के बारे में प्रियंकर जी लिखते हैं;
"कुछ मुहं ऐसे होते हैं जिनसे निकली गालियां भी अश्लील नहीं लगती . कुछ ऐसे होते
हैं जिनका सामान्य सौजन्य भी अश्लीलता में आकंठ डूबा दिखता है . सो गालियों की
अश्लीलता की कोई सपाट समीक्षा या परिभाषा नहीं हो सकती."
अपनी टिप्पणी में वे आगे लिखते हैं;
"उनमें जो जबर्दस्त 'इमोशनल कंटेंट' होता है उसकी सम्यक समझ जरूरी है . गाली कई बार ताकतवर का विनोद होती है तो कई बार यह कमज़ोर और प्रताड़ित के आंसुओं की सहचरी भी होती है जो असहायता के बोध से उपजती है . कई बार यह प्रेमपूर्ण चुहल होती है तो कई बार मात्र निरर्थक तकियाकलाम."
गालियों की बात चली तो आपको बता दूँ कि कल तक कांग्रेस को गाली देने वाले
पंगेबाज आज उसी पार्टी का चुनाव प्रचार कर रहे हैं. ये जानकर लगा कि ब्लॉगर कहीं नेता बनने की राह पर अग्रसर तो नहीं. अपने प्रचार में
पंगेबाज लिखते हैं;
"काग्रेस शासन के अलावा इससे पहले कभी आपने इत्ती महंगाई देखी ?
काग्रेस ने कभी आपको गैस सिलेंडर बिना ब्लैक आसानी से मिलने दिया क्या ?
काग्रेस ने क्या दिल्ली मे और पूरे देश मे लूट की घटनाओ मे इजाफ़ा नही
कराया ?
काग्रेस ने कभी अल्पसंख्यक समुदाओ को बहुसंख्यक समुदाय के लोगो को मारने उनका
माल हथियाने मे कोई रुकावट खडी होने दी ?
काग्रेस ने क्या कभी भ्रष्टाचार के किसी भी मामले को खुलने दिया ?"
कांग्रेस के पक्ष में इतनी दलील देने के बाद उन्होंने लोगों से कांग्रेस को वोट देने की अपील की.
उनकी इस अपील पर
कुश ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"पंजा तो हम देंगे.. लेकिन उनके गाल पर"
कुश की टिप्पणी से लगा कि वे कितने आशावादी हैं. उन्हें पूरा विश्वास है कि कांग्रेस अपना मुंह दिखायेगी. अगर ऐसा नहीं है तो कुश उनके गाल पर पंजा कैसे देंगे?
अनूप जी नैनीताल में बैठे हैं. कल बता रहे थे, वहां नेट कनेक्शन आता-जाता रहता है. ऐसे में एक
लाईन पर हमीं ट्राई मार लेते हैं.
अंत में एक दोहा हमारी तरफ़ से. बेकल उत्साही जी का दोहा है. वे लिखते हैं;
बेटा नामी चोर है, बाप है पहरेदार लोग कहें महफूज़ है, सर्राफा बाज़ार
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