गुरुवार, नवंबर 20, 2008

प्रेमपत्र में मात्राओं की गलतियाँ : खूब मज़ा देती हैं.

भय का मौसम चल रहा है. आतंकवादियों से भय, नेताओं से भय, एटीएस से भय, सरकी हुई अर्थ-व्यवस्था से भय, चुनावों वगैरह से भय तो व्याप्त था ही लेकिन प्राईमरी के मास्टर आज गणित से उपजे भय और उससे भयभीत लोगों की जांच-पड़ताल में जुटे हैं. वे अपनी गणितीय पोस्ट में लिखते हैं;

"सबसे पहले तो हम यह समझ लें कि आखिर गणित है क्या? गणित एक भाषा है. संप्रेषण का ही एक प्रकार है. इसमें बड़े-बड़े वक्तव्यों के लिए कुछ सर्वमान्य फार्मूलों और संकेतों का इस्तेमाल कर एक निष्कर्ष पर पहुंचा जाता है. धार्मिक मामलों की तरह गणित में भी कई बातें तर्क से परे होती हैं जिन पर कोई सवाल नहीं उठाये जाते."
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे लिखते हैं;

"कुछ ऐसे नियम होते हैं जिनके बारे में गणितज्ञ कोई तर्क-वितर्क नहीं करते. इन्हें गणित की भाषा में स्वयंसिद्ध कहा जाता है. इस प्रकार कहा जा सकता है कि गणित भी मूलत: धर्म के समान ही है जो सामान्य रूप से स्वीकृत विश्वाशों पर आधारित होता है."
गणित के इस भय से ज्यादातर पाठक सहमत नज़र आए. कुछ ने बताया कि अगर गणित को हौवा न बनाया जाय तो वह कठिन नहीं रहती.

वैसे दिनेश राय द्विवेदी जी गणित से भय का समाधान पहले ही खोज चुके हैं. उन्होंने गणित के इस भय को सुडोकू हल करके भगा दिया था. अपनी टिपण्णी में वे लिखते हैं;

"रोज एक सुड़ोकू हल करो. गणित का डर भाग जाएगा."
जहाँ द्विवेदी जी ने सुडोकू हल करके अपना डर पहले ही दूर कर लिया था वहीँ अनूप शुक्ल जी का डर इस पोस्ट को पढ़ने के बाद ही चला गया. वे अपनी टिपण्णी में लिखते हैं;

"अच्छा लेख लिखा. गणित का डर दूर हो गया. :)"
वैसे अभिषेक ओझा जी की पोस्ट से लगता है कि हम भारतीय गणित से पहले नहीं डरते थे. हमारे अन्दर गणित से डर तो यूरोप वालों की वजह से आया. सोचने वाली बात है न. यूरोप वाले अपनी सेना, क्रूरता, राजनीति वगैरह से डराते-डराते बोर हो गए होंगे इसलिए बाद में सोचा की गणित का भय पैदा करके हम भारतीयों की संस्कृति को तहस-नहस किया जा सकता है. अपनी पोस्ट में अभिषेक प्रो राजू के हवाले से लिखते हैं;

"प्रो राजू की पुस्तक में यह कहा गया है की कलन (Calculus) जिसके लिए कहा जाता है कि न्यूटन (Newton) और लिबनिज (leibnitz) दोनों ने स्वतंत्र रूप से विकसित किया, रअसल भारत की देन है."

वे आगे लिखते हैं;


"प्राचीन भारतीय गणित केवल पढने के लिए कभी नहीं था बल्कि हमेशा ही वो किसी व्यवहारिक उपयोग को लेकर रहा है. जबकि शुद्ध गणित जो यूरोपीय सोच का नतीजा था वो केवल पढने के लिए रहा… अर्थात वास्तविकता से दूर."


यूरोप वालों ने हमें गणित से डरना सिखाया. वैसे अभिषेक जी का मानना है कि अगर गांधी जी को ये बात मालूम होती तो वे स्वतंत्रता आन्दोलन में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ एक और मोर्चा खोल देते. वे लिखते हैं;

"फिलहाल ये गणित से डरना अपना काम नहीं ये यूरोपीय विचार धारा है. गाँधी बाबा को ये बात पता होती तो स्वदेशी आन्दोलन का हिस्सा बन गया होता "हम गणित से नहीं डरेंगे क्योंकि ये यूरोपीय विचारधारा है" और चरखे के साथ-साथ वैदिक गणित और लीलावती जैसी पुस्तकें भी होती ! खैर अभी भी स्वदेशी आन्दोलन चलाने वाले लोग हैं उन
तक बात पहुचाने की जरुरत है. :-)"

उनकी ये पोस्ट लावण्या जी को अच्छी तरह से समझ आई. उन्होंने अपनी टिपण्णी में लिखा;

"आप ने अच्छी तरह समझाया. पर पास्चात्त्य विचारधारा को नहीँ अपनाने के बावजूद, हमेँ गणित से भय है !:) अगर आप हमेँ भयमुक्त होने का उपाय सीखला दो तब ये एक करिश्मा होगा !"

जैसे लावण्या जी को गणित से भय है वैसे ही हमें भी है. अपनी बात बताता हूँ. मुझे गणित ने बचपन से भयभीत कर रखा था. इतना कि मैं हमेशा ख़ुद को भीत से सता हुआ पाता. काश कि हमारे बचपन में भी ब्लागिंग हो रही होती तो हम ऐसी पोस्ट पढ़कर एक बार तो गणित से दो-दो हाथ कर ही लेते.

अरविन्द मिश्रा जी के मज़बूत कन्धों पर आजकल पुरूष पर्यवेक्षण आ टिका है. पुरुषों के कन्धों का पर्यवेक्षण करते हुए वे लिखते हैं;

"विकास के दौर में जब मनुष्य चौपाये से दोपाया बना तो उसके स्वतंत्र हो गए दोनों बाहुओं के संचालन की एक नयी जिम्मेदारी उस पर आ पडी."

कन्धों पर जिम्मेदारी लेने के बारे में लिखे और कहे गए सारे मुहावरों की उत्पत्ति शायद यहीं से शुरू हुई जब प्रकृति ने मनुष्य के कन्धों को मज़बूत करना शुरू किया. मिश्रा जी के अनुसार कन्धों को मज़बूत करने की प्रकृति की कवायद का रिजल्ट ये हुआ कि पुरुषों को मर्दानगी के प्रदर्शन का एक और जरिए मिल गया. लेकिन इसका एक साइड इफेक्ट भी हुआ. अपनी बात को समझाते हुए वे आगे लिखते हैं;

"मगर मजे की बात तो यह है कि इतिहास ऐसे भी उदाहरणों का गवाह बना है जब पश्चिम में नारी मुक्ति आन्दोलनों की कुछ झंडाबरदार जुझारू नारी सक्रियकों ने पुरुष्वत दिखने की चाह में अपने कन्धों को उभार कर दिखाने का उपक्रम शुरू किया.....लैंगिक समानता की चाह लिए महिलाओं को मानो 'शोल्डर समानता ' रास आ गयी थी."

शास्त्री जी के अनुसार उन्होंने अपनी पिछली पोस्ट में जब हिन्दी चिट्ठाकारी में खेमे होने की बात की;

"तो कुछ चिट्ठाकारों में हलचल मच गई."

उनकी हलचल को शांत करने के लिए शास्त्री जी ने

"सोचा कि ‘खेमे” का उपयोग एक बार और किया जाये, एक अन्य अर्थ में — गिद्धों के झुंड जहाँ वास करते हैं."

उन्हें इसे लिखने की प्रेरणा मिली; कहाँ गए गिद्धराज और अब पंछी क्यों नहीं आते से. वे अभी लिखने की तैयारी कर ही रहे थे कि उन्हें एकदम से नज़र आया; बचाओ, विलुप्त हो सकते हैं गिद्ध. इन सारे पोस्ट का इफेक्ट ये हुआ कि शास्त्री जी ने आज गिद्धों के खेमे के बार में लिखा. अपनी पोस्ट में उन्होंने बताया कि कैसे;

"5 से 15 किलोग्राम वजन के ये दैत्य इंसानों से डरे बिना उडते थे, एवं पास से निकलते थे तो इनके पंखों द्वारा विस्थापित हवा बहुत लोगों के शरीर पर जोर के थपेडे लगाती थी."
गिद्धों की उड़ान पर ऐसी छटा बिखरने के बावजूद हाल में किसी कवि ने गिद्धों पर कविता नहीं लिखी. वैसे गिद्धों का अस्तित्व सचमुच खतरे में है. इसके लिए राज नेताओं को जिम्मेदार मानते हुए शास्त्री जी लिखते हैं;

"आज राजनेता लोग अपनी मूर्तियां बनाने में, अपने इष्टजनों के लिये संस्थायें बनाने, दिखावे के प्रोजेक्टों पर, करोडों रुपया फूंक रहे हैं. लेकिन पर्यावरण की सुरक्षा के लिये सारे देश में इसका दसवां हिस्सा पर्याप्त होगा. इस मामले में जनजागरण एवं सरकार पर दबाव डालना जरूरी है."
राजनेता गिद्धों के लिए कुछ करें, यही कामना है. आख़िर जिनसे सीख लेकर वे आगे बढे हैं, उनके लिए कुछ न कुछ करना उनका कर्तव्य है.

अलोक पुराणिक जी की माने तो बुरी खबरें पास से आती हैं और अच्छी खबरें दूर से. इस थ्योरी का उपयोग करके और दूर रहकर अच्छी खबरें पाई जा सकती हैं. कल ही में अपने साथ हुई राहजनी का खुलासा करते हुए आलोक जी लिखते हैं;

"कल रात पुलिया के पास मेरे साथ राहजनी हो गयी, मतलब रास्ते में कुछ लोग मेरा सब कुछ लूट कर ले गये. मतलब मेरे पास के सात रुपयों की राहजनी हो गयी. मैंने राहजनों को बताया कि अगली पुलिया पर पुलिस है, उससे शिकायत कर दूंगा, तो वो हंसने लगे. वो बोले, उनसे पूछकर ही इस पुलिया पर राहजनी कर रहे हैं."

सचमुच बुरी ख़बर है. एक लेखक और अध्यापक के पास सात रूपये रहना समाज में लेखक को मिले महत्व को दर्शाता है. लेकिन अच्छी ख़बर की बात करते हुए वे लिखते हैं;


"अच्छी खबर दूर से यह आयी कि अदन की खाड़ी के पास एक भारतीय शिप को भारतीय नेवी ने लुटने से बचा लिया. सोमालिया के डाकू लूटने आये थे. लघु नौकाओं पर सवार जहान के बड़े बड़े जहाजों को लूटने को प्रतिबद्ध, सन्नद्ध सोमालिया के समुद्री डाकू वैसे एक तरह से प्रणम्य टाइप लगते हैं."

वे आगे लिखते हैं;



"लघु ना दीजे डार वाले कवित्त को साबित करते हैं कि विराट शिप को लघु नौका से लूटा जा सकता है, यह बात बार बार सोमालिया के समुद्री डाकू बताते हैं. स्माल स्केल का महत्व विराट के आगे खत्म नहीं ना हो गया है, सोमालिया के डाकू बार बार याद कराते हैं."

आलोक जी का मानना है कि ऐसा नहीं है कि नौ सेना के ऊपर इन डाकुओं को छोड़ने का दबाव नहीं आया होगा. लेकिन ये दबाव आया होगा सोमालिया के किसी नेता से. नौ सेना वालों को इस नेता की बात समझ में नहीं आई होगी. वे लिखते हैं;

"जैसे सोमालिया के डाकुओँ की धरपकड़ के बाद सोमालिया के किसी लीडर का फोन नेवी के अफसरों के पास आया होगा- होकाला बोकाला ओटोक्का, होबालू, होटूंगा मतलब हमारे बंदों को छोड़ दो. नेवी वाले समझे ही ना होंगे, समझे होंगे कि ब्रेक डांस के लिए कोई गाना सा गा रहा है. इस कनफ्यूजन में डाकू अरेस्ट हो गये होंगे. ये भौत मजे का कनफ्यूजन है."

वैसे लोकल गुंडों और राहजन किसी नेता के चलते थाने से न छूट पाये, इसका भी फूलप्रूफ़ सुझाव दिया है अलोक जी ने. वे लिखते हैं;

"नगला शोला भोला थाने में तमिलनाडु के पुलिस अफसर लाकर बिठाने चाहिए. लोकल हजन अंदर हो, और लोकल विधायक फोन करे, तो तमिल अफसर समझने से इनकार कर दे और राहजन अंदर ही रहे. कन्नड़भाषी पुलिस को चित्तौड़गढ में लगा दो. मलयालम भाषी पुलिस हजरतगंज लखनऊ में गश्त दे."

हिन्दी की ग़लत मात्राएँ लगाकर लिखा गया प्रेम-पत्र किस काम आ सकता है? मज़ा लेकर बोरियत दूर करने के. पल्लवी जी ने अपनी बकलमखुद में लिखती हैं;

"एक दिन मैं और गड्डू घर के बाहर गार्डन में बैठे थे तभी गड्डू की नज़र एक सफ़ेद कागज़ में लिपटी किसी डिब्बी पर पड़ी!जाकर देखा तो एक लाइन वाली नोटबुक के पेज में कुछ लिपटा हुआ था , कागज़ पर नीले पेन से टेढा सा दिल बना हुआ था जिसमे बाकायदा तीर भी घुसाया गया था!कागज़ हटाया तो अन्दर माचिस की डिब्बी निकली...उसके अन्दर एक कई बार तह किया हुआ पत्र था...जिसे किसी गुमनाम व्यक्ति ने लिखा था ! ऐसा लग रहा था मानो लेखक ने पांचवी क्लास भी अगर पास की होगी तो नक़ल के माध्यम से! हिन्दी में मात्राओं के ज्ञान से अपरिचित था पत्र लेखक तो अंग्रेजी में स्पेलिंग के ज्ञान से! पढ़ पढ़ के खूब हँसे...बहुत दिनों तक संभाल के रखा ये पत्र! जब भी बोर होते...पत्र निकाल कर पढ़ते और हँसते!... "

कल दिनेश राय द्विवेदी जी के चिट्ठे अनवरत के एक साल पूरा होने की पूर्व-संध्या थी. अपने चिट्ठे और अपने बारे में बात करते हुए वे लिखते हैं;

"आज पहली वर्षगांठ की पूर्व संध्या है. कल साल गिरह होगी अनवरत की. एक साल, महज एक साल कोई लंबा अर्सा नहीं होता लेकिन लगता है कि बहुत-बहुत दूर निकल आया हूँ. इतनी दूर कि वह छोर जहाँ से चला था, नजर नहीं आता, या किसी धुंध में छिप गया है."
पिछले एक साल के दौरान "अनवरत" पर द्विवेदी जी ने बहुत सारे मुद्दों पर लिखा. अपने चिट्ठे के बारे में वे आगे लिखते हैं;

"यह अनवरत ही था जिसने हिन्दी ब्लागरी के पाठकों के साथ मेरी अंतरंगता को स्थापित किया."

ढेर सारे चिट्ठाकार साथियों ने उन्हें बधाई दी. अफलातून जी ने उनकी चिट्ठाकारी को निर्भीक और गंभीर बताया. उन्होंने अपनी टिपण्णी में लिखा;

"दिनेशरायजी , निर्भीक और गंभीर चिट्ठेकारी का एक साल पूरा होने पर शुभ-कामनाएँ ग्रहण करें."

द्विवेदी जी को हमारी भी बधाई. उनकी चिट्ठाकारी अनवरत चलती रहे, यही कामना है.


अब चूंकि अनूप जी एक लाईन पर अपने कॉपी राईट्स को सार्वजनिक कर चुके हैं तो कुछ एक लाईना ट्राई किया जाय.

हौव्वा क्यों बना रखा है इसको हमने! : कुछ तो बना रहे हैं, ये क्या कम है?

हिंद देश के निवासी: एक थे, अनेक हैं.

जागने का वक्त आ गया है: सही कह रहे हैं, आख़िर बारह बजने को आए.

शांतिप्रिय हिंदू भाई भगवा आतंकवाद से सावधान: और आतंकवाद से दुखी रहें.

जग्गू की गृहस्थी: सर्दी में जम गई.

सारे शहर की जगमग के भीतर है एक अँधेरा: अरे, कोई तो टॉर्च मारो.

तेरी बात नईं पची: हाजमोला, सर! चटपटा स्वाद, झटपट पचान.

दुनियाँ इतनी बुरी नहीं है: जनता अबतक डरी नहीं है.

फायर लाइन का पहरेदार: लाइन ऑफ़ फायर में.

पिया तो मानत नाही: नादाँ है, तोहे जानत नाही.

प्रेमपत्र में माताओं की गलतियाँ: खूब मज़ा देती हैं.

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22 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसी चर्चा भी खूब मज़ा देती हैं. :-)

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  2. शिव भाई, आपकी चर्चा का इस कदर इंतज़ार था कि,
    बीच में ही अपना नित्य का कार्य छोड़ कम्प्यूटर पर आना पड़ा ।
    चर्चा तो जानदार होनी ही थी, सो है !
    अब इसको गरिष्ठ रूप न देकर अपने लेखन का व्यक्तित्व यहाँ भी बरकरार रखें ।
    हम लोग LKG वाले हैं, खेल खेल में कुछ ज़्यादा ही अच्छी तरह से बहुत-कुछ सीख जायेंगे !
    और, दूसरी बात यह कि अनूप भाई ने कुछ आदतें भी बिगाड़ दी हैं ।
    निःसंदेह एक अच्छी चर्चा, वरना प्राइमरी के मास्टर को कौन तवज़्ज़ो देता है ?
    साधुवाद ।

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  3. आज की चर्चा बहुत मलूक रही .गणित से मुझे तो अब और ज्यादा डर लगता है .खासकर कैलकुलस से . द्विवेदी जी को चिट्ठे की वर्षगाँठ पर शुभकामनाएं .

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  4. प्रेमपत्र में माताओं की गलतियाँ: खूब मज़ा देती हैं.
    -----
    प्रेम माताओं से क्या गलतियां कराता है? सिवाय प्रेम करने वाले को पैदा करने के? :)

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  5. बहुत शानदार रही चर्चा ! बिल्कुल अलग फ्लेवर में ! मजा आया ! पर भाई अपने को कहीं भी गणित की कक्षा से एलर्जी है , पर क्या करे ? :) समझ ही नही आता ! शुभकामनाएं !

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  6. प्रिय शिव भईया,

    पहले टांग-खिचाई होगी, फिर टिप्पणी. आपने लिखा:

    "शास्त्री जी ने आज गिद्धों के खेमे के बार में लिखा"

    मैं ने जीवन में कभी न पी है, न किसी "बार" में गया. पता नहीं आपको कैसे गलतफहमी हो गई कि "बार" में यह आलेख लिखा गया. इस टिप्पणी आपकी चर्चा के प्रति एक प्रेम-पत्र समझ कर यदि उस "बार" का पता दे दें तो एकाध "बार" चक्कर लगा आयें. हां हमे "बार" में देख कोई चिट्ठाकार यह न सोचे कि हम ने अपना वृत तोड दिया है!!

    एक मात्रा बडी मात्रा में बार-बार हास्य एवं आनंद दे सकता है! अब कोई भी एक बार भी न सोचे कि 'मात्रा' एक छोटी चीज है.

    अब आते हैं आपकी चर्चा पर. आपकी कलम से चर्चा पढने का मौका पहली "बार" हुआ है. वाकई में मजा आ गया. आपकी शैली अन्य चिट्ठाकारों से एकदम भिन्न है. लिखते रहें!

    चिट्ठाचर्चा अब विभिन्न चिट्ठाकारों द्वारा विविधता ली हुई चर्चायें दे रहा है. यदि पीनेपिलाने वाला व्यक्ति होता तो कह सकता था कि इस "बार" की "काकटेल" एकदम उम्दा है.

    उम्मीद है टांगखिचवाने में आपको उतना ही आनंद आया है जो इस "बार" जम कर खीचने में मुझे आया है.

    अगली "बार" मुलाकात होगी तो कुछ और गुल खिलायेंगे !!!

    सस्नेह -- शास्त्री

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  7. @ शास्त्री जी,

    बहुत खूब पकड़े. मुझे टांग खिंचवा कर सचमुच खूब मज़ा आया. वैसे पोस्ट का शीर्षक देखिये न. केवल प्रेमपत्र में मात्राओं की गलतियाँ मज़ा नहीं देतीं. ब्लॉग पोस्ट पर भी देती हैं.....:-) चाहे कम मात्रा में हो, या ज्यादा...:-)

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  8. एक बार फ़िर अच्छी रही यह चर्चा भी.

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  9. अच्छी चर्चा के लिए शुभकामनाएं !

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  10. @Shiv Kumar Mishra said...

    "चाहे कम मात्रा में हो, या ज्यादा...:-) "

    बहुत खूब, आखिरी खिचाई फिर भी आप की ओर से रही!! अधिक "मात्रा" में खिचाई कम से बेहतर है!!

    सस्नेह -- शास्त्री

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  11. >भई, शास्त्री जी ने कह दिया कि वे बार में नहीं जाते, कम मात्रा ही काफी है।
    >रही बात गणित की तो बता दें कि गणित से अधिक गणराज्य में गण से भय लगता है[जी हाँ, नेताओं को]; क्या जाने कब कुर्सी खिच जाय!

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  12. बहुत बढ़िया चर्चा रही।
    घुघूती बासूती

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  13. चिट्ठा चर्चा का यह अंक खासा दिलचस्प लगा। बधाई।

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  14. प्रेमपत्र में माताओं की गलतियाँ: खूब मज़ा देती हैं.
    @ galti maataa ki ho to vakii mazaa aayegaa !!!!!!
    maatra yaa maata ??????

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  15. रोचक व अच्छी चर्चा। टिप्पणियों से मिलकर रोचकता का परिशिष्ट जानदार है।

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  16. चिठ्ठाचर्चा बढिया रही शिव भाई १ अब अभिषेक भाई से गणित सीखने का इँतज़ार है -
    -पल्लवीजी का "बकलमखुद " भी रोचक है :)

    - लावण्या

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  17. गुरु जी ! चर्चा करने से पहले कृपया कुन्नू सिंह से दूर रहें .हाँ, चर्चा करके कुन्नू सिंह का ब्लॉग पढ सकते हैं .

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  18. चर्चा तो धांसू है ही। हमें एक ही बात अखर रही है कि शास्त्रीजी ने दो बार आपकी टांग पकड़ी खींचने के लिये। वापस एक्को बार नहीं की। ये बहुत नाइन्साफ़ी है जी। माताओं की गलतियां तो महाभारत काल से चलती आ रहीं हैं। उसमें कौन परेशानी!

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  19. अनूप शुक्ल कहते हैं:हमें एक ही बात अखर रही है कि शास्त्रीजी ने दो बार आपकी टांग पकड़ी खींचने के लिये। वापस एक्को बार नहीं की। ये बहुत नाइन्साफ़ी है जी।

    मेरा एकलाईना: अगली चर्चा में आप जम कर इन्साफी कर लेना !!

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  20. हमारा ये कहना है बंधू की आप जहाँ भी लिखते हैं कमाल करते हैं...इतनी रोचक चिठ्ठा चर्चा दिनों बाद पढने को मिली...आप तो लिखते रहा करें...
    नीरज

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  21. हमको तो पहले ही पता था की आप धांसु चर्चा करेंगे... इसलिए एक दिन पहले ही खिसक लिए... अजी आपकी चर्चा हमारी चर्चा पे भारी पद जाती.. कोई और भगाता इस से पहले हम खुद ही कट लिए... बहुत ही उत्तम चर्चा..

    आनंदम

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