यह चर्चा आलोक कुमार ने मुझे डाक से भेज आदेश दिया की एक फरवरी को छापा जाए, वजह उन का "चौडाबाजा" (ब्राडबैंड) बज नहीं रहा।
कोई भूल चूक लेनी देनी हो तो उन को बताया जाए, अपना काम खत्म।
विपुल
चर्चा यहाँ से शुरू है,
बार्बरा और बरखा – दोनो नामों में क्या समानता है? कुछ खास नहीं पर दोनो के बर्ताव में समानता है। पहले कुछ इस स्ट्राइसेंड प्रभाव के बारे में। २००५ में माइक मैसनिक ने यह नामकरण किया। हुआ यूँ कि बार्बरा स्ट्राइसेंड, जो कि एक गायिका हैं, ने अपने घर की कुछ हवाई तस्वीरें अंतर्जाल पर छपने से रोकने के लिए कुछ क़ानूनी कार्यवाही की। नतीजा यह हुआ कि उन तस्वीरों और इस घटना की चर्चा और ज़्यादा बढ़ी, और जो प्रभाव बार्बरा स्ट्राइसेंड चाहती थी, हुआ उसका उल्टा ही। एक वाक्य में कहें तो
अंतर्जाल रुकावट देखता है तो यही मानता है कि यह सड़क खराब है, और रुकावट वाली जगह पहुँचने के लिए दूसरे तरीके अख्तियार करता है।
जॉन गिल्मोर नामक व्यक्ति ने अंतर्जाल के स्वभाव के बारे में यह कहा है। वैसे आप बार्बरा स्ट्राइसेंड के घर की तस्वीर यहाँ देख सकते हैं J और यहाँ के अलावा और भी कई जगह।
इस घटना के बाद, अंतर्जाल पर अभिव्यक्ति रोकने की कोशिशों का उल्टा असर होने के वाकयों पर समर्पित एक अच्छा खासा जीता जागता चिट्ठा [मशीनी अनुवाद] भी है।
यूँ बार्बरा स्ट्रेइसेंड का घर तो बढ़िया है न? यह तो थी भूमिका, असली चिट्ठा चर्चा तो अब शुरू होती है।
शुरुआत हुई हर बुरी चीज़ की तरह पाकिस्तान की बदौलत। मुंबई में आतंकी हमले हुए। उसकी रपट दी टीवी वालों ने भी। उन टीवी वालों में एक थे एन डी टी वी वाले भी। उनमें एक थीं बरखा दत्त। उन बरखा दत्त के व्यवहार की आलोचना की चैतन्य कुंटे[म.अ.] नामक एक मेरे आपके जैसे इंसान ने। उन्होंने एक लेख लिखा था (अब यहाँ नहीं है), २८ नवंबर २००८ को – यानी पूरे दो महीने पहले। अब आप यह लेख यहाँ[म.अ.] देख सकते हैं। मुख्यतया उन्होंने लिखा है,
१. एक फ़ौजी अफ़सर से पूछने पर उन्होंने कहा कि अब ट्राइडेंट में कोई बंदी नहीं बचे हैं। (चालाकी, ताकि आतंकियों को गलत खबर मिले). बरखा दत्त ने ट्राइडेंट के प्रबंधकों को पूछा तो उन्होंने कहा कि अभी भी सैकड़ों लोग वहाँ मौजूद हैं। और बरखा देवी ने तुरंत खबर फैला दी। धन्य हो।
२. एक व्यक्ति होटल से बाहर आया तो बरखा जी ने पूछा कि आपकी पत्नी कौन से कमरे में छिपी हैं, और उन्होंने बताया, और यह खबर भी तुरंत फैल गई। हद है।
आगे लिखते हैं,
१. अगर आतंकवादियों से आप बच गए, तो कोई बात नहीं, हमारे पत्रकार लोग आपको नहीं छोड़ने वाले। बच के कहाँ जाओगे।
२. करगिल की लड़ाई में हमारे कई जवानों की जान इसलिए गई क्योंकि टीवी वालों ने हमारे जवानों की हरकतों के बारे में खुलासा दिया था।
यह तो हुई लिखाई – दो महीने पहले की।
अब चक्कर यह हुई कि एनटीडीवी वालों ने खुद ही एक चर्चा की, कि हमने सही किया या गलत। इस चर्चा में चैतन्य का लेख भी उल्लिखित हुआ। यह सब एन डी टी वी के जालस्थल पर उनके लेख में छपा।
चुनाँचे बरखा जी – यानी हमारी बार्बरा – को खबर मिली। आज की तारीख में आपको वह लेख एनडीटीवी पर नहीं मिलेगा। पता नहीं क्या हुआ, हम तो केवल अटकलें लगा सकते हैं।
लेकिन, बरखा जी ने फ़ेसबुक पर खुद कहा है, कि ३ जनवरी २००९ को – डेढ़ महीने बाद, जब सब कुछ दब चुका था – चैतन्य को क़ानूनी चिट्ठा भेजा – माफ़ी माँगने के लिए। और भी बहुत बुरा भला कहा। नतीजा यह हुआ कि चैतन्य को बरखा के सामने अष्टांग प्रणाम [हि.अ.] करना पड़ा। लेकिन बात यहाँ खत्म नहीं हुई। बल्कि शुरू हुई।
गौरव सबनीस [म.अ.] ने कहा,
एनडीटीवी ने ऐसा करके रणनैतिक गलती की है, मामला दबने के बजाय और उठेगा। चिट्ठा लेखक से चिरौरी करवाने का नतीजा अब उन्हें भुगतना पड़ेगा। यह खबर पूरे अंतर्जाल पर आग की तरह फैलेगी।
और यह भी कहा –
एनडीटीवी को शर्म आनी चाहिए। दूसरों का तो कचरा करने को तैयार रहते हैं लेकिन खुद का कचरा होता है तो नहीं झेल पाते। यह तो गुंडेबाज़ी और घमंड ही है।
इसके अलावा श्रीप्रिया [म.अ.], पैट्रिक्स [म.अ.], रोहित [म.अ.], प्रेम पणिक्कर [म.अ.], संदीप [म.अ.] ने भी इस विषय पर लिखा है।
बीना करुणाकरण [म.अ.] कहते हैं,
जनता की याददाश्त तो बहुत कम होती है। लेकिन सार्वजनिक जीवन में जो लोग हैं उनकी तो कई ज़िम्मदारी है? जब समाचार चैनलों को गैरज़िम्मेदाराना रिपोर्टिंग के खिलाफ़ क़ानून बनने जा रहा था तो बरखा ने इसका जम कर विरोध किया था और कहा था कि हम भी जनता के अदालत में सबका सामना करने को तैयार है, इसके लिए कोई क़ानून वानून क्यों चाहिए, किसी को भी कुछ भी निडर हो के कहने का अधिकार है। लेकिन लगता है कि यह निडरता केवल कुछ खास लोगों पर ही लागू होती है, बरखा के विरोध करने वालों पर नहीं। उम्मीद है कि बरखा मनसा वाचा कर्मणा को लागू कर पाएँगी।
इसके पहले भी बरखा के करगिल की घटनाओं [म.अ.] के बारे में कई टिप्पणियाँ हो चुकी हैं यह देखिए -
पिनाका रॉकेट कैमरे पर दिखाने के लिए चलाए गए। उसका धुँआ पहाड़ियों के उस पार पाकिस्तानियों को दिख सकता था। और इस वजह से भारतीय सैनिकों की जान गई। फ़ौज में सब यह बात जानते हैं। इस बात का खंडन किसी फौजी अफ़सर ने कभी भी नहीं किया है।
अतनु डे लिखते हैं,
किसी भी कीमत पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत ज़रूरी है, क्योंकि अगर यही नहीं बची तो बाकी क्या बचा।
तो इस प्रकार एक खबर जो दो महीने पहले दब चुकी थी, बरखा दत्त और एनडीटीवी की बेवकूफ़ी की वजह से फिर सामने आ गई है। और इस प्रकार स्ट्राइसेंड प्रभाव को एक देसी नाम मिला।
बरखा प्रभाव।
यही थी आज की चिट्ठा चर्चा। क्रोध, भौंचकपने और विस्मय से भरी।
२ फरवरी २००९ को और
इस विषय पर नितिन बागला ने भी एक लेख लिखा है(साभार तरुण)। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया है कि हिंदी में अधिक चिट्ठों पर इसकी चर्चा क्यों नहीं हुई। इसी लेख का हवाला देते हुए बोल हल्ला ने भी एक लेख लिखा है।विस्फोट का कहना है कि गाली देना उचित नहीं है पर ज़िम्मेदारी तो बरखा दत्त को लेनी ही होगी।
प्रभावी बरखा को साधुवाद....
जवाब देंहटाएंबरखा का यह कृत्य उनकी अब तक की प्रतिष्ठा को मटियामेट करने के लिए काफी है। किसी व्यक्ति द्वारा बघारे गये सिद्धान्त जब उसके अपने व्यवहार की कसौटी पर कसे जाते हैं तभी उनकी सही पहचान होती है। मीडिया सम्राज्य की यह मल्लिका इस परीक्षा में फेल होती दिख रही है।
जवाब देंहटाएंरोजाना दूसरों की आलोचना करने वाली मीडिया-तारिका को अपनी एक आलोचना कितना भारी पड़ गयी यह देखकर हैरत होती है।
क्रोध तो खैर नहीं..मगर भौच्चकापन और विस्मय तो पढ़ लेने के बाद आया.
जवाब देंहटाएंअरे, मजाक कर रहा हूँ, विपुल बाबू!! बढ़िया चर्चा.
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ, पर दोषि कौन ?
हम और आप.. जो तात्कालिकता से हट कर सोचते नहीं !
लपक कर रातों-रात मल्लिका ? बना दिया..
बट नेचुरली, दे ट्रीट द कंट्री 'टेकेन फ़ार ग्रांटेड '..
माफ़ फ़रमाइयेगा जैन साहब,
मेरी आँग्ल-भाषा जरा हिन्दी में कमजोर है,
अभिव्यक्ति की दुनिया में नया उतरा हूँ, मुझसे कह देते..
यह सब मैं अपने ब्लाग पर डाल देता,
किसी चिट्ठा-विशेष का संदर्भ इस चर्चा में न ढूँढ पाने से,
मुझे स्वयं ही माफ़ी माँगनी पड़ रही है !
jai ho midia ki.....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आलोक. बढ़िया, सामयिक प्रस्तुति. अब बरखा को चैतन्य कुंटे से बिनाशर्त माफ़ी मांग ही लेनी चाहिए - कहां गड़े मुर्दे को उखाड़ लिया!
जवाब देंहटाएंक्या कहे ...दुःख ,क्रोध दोनों ही भारी है विस्मय से .
जवाब देंहटाएंNDTV का यह प्रकरण दुखद है, बरखा दत्त को तो अब तक एक संजीदा पत्रकार के तौर पर ही जानता था, खैर...जितनी जल्दी हो सके बरखा इस प्रकरण पर माफी मांगें तो उडती धूल को बैठते देर न लगेगी....वरना मुझे तो लग रहा है कि ये ब्लॉगजगत पर मँडराता एक और प्रकरण है जिसकी धूल जल्दी बैठने वाली नहीं लगती। साथी चैनल ताक में तो होंगे ही।
जवाब देंहटाएंबरखा को पद्मश्री मिलना ही चाहिए. मैं तो वैसे भी एन डी टीवी का फैन हूँ.
जवाब देंहटाएंमुझ जैसी टी वी बहुत कम देखने वाली को भी हिन्दी चिट्ठाकारी के माध्यम से यह समाचार मिल गया। शायद बात को दबाना कभी उद्देश्य रहा ही न हो।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
यह सब एक चिट्ठे पर लिखकर यहाँ लिखते तो यह चिट्ठा चर्चा बनी रहती :)
जवाब देंहटाएंअरे ! पहले मुझ मूढ़ को 'चोरी और सीनाजोरी' मुहावरे का अर्थ ही पता नहीं था...अब पता चल गया...टी0 वी0 चैनल का धन्यवाद. पिल्लों का बस चले तो हाथी को कच्चा चबा डालें....
जवाब देंहटाएंmedia ke kuch logon logon ka aisa kritya dekh, sun kar sharm bhi aati hai par kya karein shayad sab ko aadat ho gai hai.
जवाब देंहटाएंबरखा प्रभाव यहाँ बताने के लिये धन्यवाद, ३१ जनवरी को नितिन बाग्ला ने भी इस पर एक लेख अपने हिंदी चिट्ठे में लिखा था, उसका संदर्भ नही दिखा, हो सकता है आपकी नजर ना गयी हो। ये रहा लिंक
जवाब देंहटाएंchitth charcha pathneey hai
जवाब देंहटाएं- vijay