इन दिनों जितनी चर्चा पिंक चड्डी कैम्पेन की हुई उतनी चर्चा तो ब्लॉगर बन्धुओं ने राम सेना के बंगलूर मे किए कांड की भी नही की थी। अब जैसा कि भारतीय समाज का सीन होता है -राम सेना की गुंडई बैक स्टेज़ रहेगी और पिंक चड्डी मंच पर सामने खड़ी होकर दर्शकों के जूते और टमाटर और गालियाँ खाएगी।कुछ लोगों के चड्डी -विरोध की बदौलत आज यह मजबूरी हो गयी है हमारी कि पिंक चड्डी से ही बात की शुरुआत करें।इसमें अचरज की बात नही है कोई।यू नो पिंक चड्डी बिलांग्स टू वुमेन और वह भी वुमेन का विरोध ऐंड यू आलसो नो दैट फीमेल चड्डी किसी पुरुष के लिए क्या सिम्बॉलिक मीनिंग रखती है।उसके ठीक उलटे प्रतीक का इस्तेमाल करते हुए कोई स्त्री चड्डी का इस्तेमाल विरोध के लिए करे तो मिर्ची तो लगेगी ही न।
खैर ,
छिछोरी महिलाएँ ,पबों को भरने वाली महिलाएँ खुद को ऐसा घोषित कर रही हैं इसलिए आप उन्हें नाजायज़ औलादें और बिना माँवालियाँ कह रहे हैं , वे खुद को साध्वियाँ कहतीं और आपके घरों मे जीवन गर्क करती रहतीं या घरों मे बर्तन मांजते हुए अपनी नंगी पीठ निहारते हुए मालिक को फटकार देती तो भी विरोध तो कतई बर्दाश्त नही होता।इतना ही नहीएक साहब
इसे वेश्यावृत्ति तक कहने से नही चूके हैं।
मैने कल कहा था-
बहस का फोकस तय कीजिए । शायद तय हो चुका है कि हिन्दी ब्लॉग जगत की हर बहस का अंजाम यही हो सकता है कि अंतत: आप बेहूदगी का कोरस गाइए और अपने अपने झण्डे उठा लीजिए।हिन्दी की बहसों मे मूल से ज़्यादा खरपतवार की चिंता सताती रह्ती है और हमेशा, ही यहाँ बहसें देश भक्ति , समाज की सुरक्षा और संस्कृति की रक्षा और उसमें भी स्त्री आन्दोलन की भ्रष्टता पर जाकर ही साँस लेती है।
इसलिए वे ढूंढ ढूंढ कर उत्तेजक तस्वीरें अपने ब्लॉग पर चेपेंगे और चड्डी का विरोध करने वाले कंडॉम का समर्थन करेंगे।मुझे कतई हैरानी नही कि कल की हर पोस्ट का शीर्षक चड्डी से कंडोम बन जाए।आफ्टर ऑल प्रतीकों की ही बात की जाए तो मर्दानगी का प्रतीक स्त्रैण के प्रतीक से अधिक ताकतवर साबित होगा। इसलिए यह सवाल उठा था कि देखें शर्मिन्दा कौन होगा ? पिंक चड्डी या मुतालिख ? इसलिए आप चाहें तो कल की चिट्ठाचर्चा भी आज ही कर दूँ? हिन्दुस्तान की स्त्रियों को तो इतना मूर्ख समझा जाता है कि वे बेचारी अपनी अक्ल का इस्तेमाल किए बिना किसी निशा सूसन के पीछे पीछेआंख मीच चल देंगी और आप उन्हें हाथ पकड़ कर खींचते रह जाएंगे।
शायद ऐसा है नही, हर इन्डीविजुअल जो जागरूक है अपने लिए रास्ते खुद चुनता है इसका सबूत यह है कि ब्लॉग जगत की ही सैंकड़ा पार स्त्रियों मे से 4- 5 के अलावा सभी स्त्रियाँ इस मुद्दे पर एक शब्द भी कहने नही आईं। यह उनकी सोच है और उसके अनुसार उनका विरोध -असहमति चिल्ला चिल्ला कर कहने की बात नही है। और हिन्दी ब्लॉगिंग से बाहर अगर स्त्रियाँ बड़ी संख्या में पिंक चड्डी का रास्ता अपना रही हैं तो यह वाकई मान लेना चाहिए कि उन्हें मंगलूर मे रामसेना की हरकत वाकई बहुत नागवार गुज़री है और वे आइन्दा ऐसा बिलकुल नही होने देना चाहतीं।
आप किसी के विरोध के तरीकों से हमेशा ही सहमत-असहमत हो सकते हैं ,यह आपका हक है । इसमे संस्कृति की रक्षा, पश्चिम का छिछोरापन , बहू-बेटियाँ ,देश भक्ति , सभ्यता की रक्षा का दायित्व कहाँ से टपक पड़ता है?
असहमत होइए और अपनी बात के समर्थन मे तर्क लाइए, शिष्ट रहिए ,किसी व्यक्ति के जितने कम उल्लेख से काम चल सके उतना कम उल्लेख कीजिए न कि उसे ही केवल हाइलाइट करते हुए अपनी बहस की दिशा ही भ्रष्ट कर दीजिए।
तरुण ने लिखा -
दूसरी पोस्ट थी सुजाता की जो गुलाबी चड्डी भेजने का समर्थन कर रही थी लेकिन चड्डी के समर्थन का जो तर्क उन्होंने दिया वो मेरे गले नही उतरा। चड्डी (चाहे जनाना ही सही) को उन्होंने स्त्री के प्राइवेट स्पेस का प्रतीक करार दिया जो कि उतना सत्य नही है क्योंकि ये चड्डियाँ मर्दों का भी प्रतीक रही है। चड्डी से ज्यादा स्त्रेण है ब्रा लेकिन विरोध के लिये इन दोनों में से किसी का भी भेजना हमारी सोच और तरीकों का दिवालियापन ही बताता है। अगर किसी स्त्रेण प्रतीक को भेजना ही विरोध समझा जा सकता है तो गुलाबी चुड़ियाँ भी भेजी सकती थी। ये हमेशा से ही मर्दों को उनकी नामर्दी बताने का प्रतीक रही है।
मेरा किससे समर्थन है किससे नही , यह तो मुदा ही नही है , मै केवल आग्रह कर रही थी कि चड्डी के प्रतीक को समझा जाए और फिर उस पर बहस की जाए।तरुण का कंफ्यूज़न साफ बताता है कि आमतौर पर कंफ्यूजन यही है कि पिंक चड्डी विरोध किस बात का है ? इस कंफ्यूज़न के बाद भी अगर सब बहस मे स्वयम को तीस मार खाँ मान रहे हों तो वाकई यह हमारी सोच का दिवालियापन है।मर्द = मस्क्यूलिनिटी = पोज़ीशन , चूड़ियाँ=स्त्रैण लेकिन इससे ज़्यादा कमज़ोरी का प्रतीक , यह तो पूरा का पूरा विरोध की बेमानी कर देता।
कोई स्त्री कहाँ जाती है, क्या करती है, किसके साथ है,क्यों है,कब तक रहती है,कब घर लौटती है,कितने मित्र हैं,उनमें कितने पुरुष हैं,पति कितना दमदार है,उसकी कितनी बात सुनती है,पिछली बार किसने उसे गुलाब दिया, इस बार किस किसने दिया ,किसके साथ पिक्चर देख रही थी.....ऐसे 100 सवाल गिना सकती हूँ जिनके जवाब ढूंढने और निगरानी रखने का विरोध जाने किन किन तरीकों से स्त्री करती आ रही है ,पिंक चड्डी, ब्रा बर्निंग ,एप्रन जलाना,और न जाने क्या क्या?जानकारी रखने से आपको कौन रोक सकता है लेकिन कहीं पकड़ लिया तो पकड़ कर पीटने लगना यह तो हद ही है , इसे प्राइवेट स्पेस मे अतिक्रमण न मानूँ तो क्या मानूँ?
मॉरल पुलिसिंग की ज़िम्मेदारी व्यक्ति की खुद की होती है।अगर आप राह चलते चलते गाड़ी की खिड़की से चिप्स का खाली पैकेट सड़्क पर उड़ा देते हैं , लाल बत्ती पर पान की पीक थूक देते हैं, किसी उद्यान या सार्वजनिक जगह पर बिस्किट के रैपर,टिश्यू पेपर सगर्व छोड़ आते हैं,राह चलते ट्रैफिक के बीच आगे गाड़ी चलाने वाली लड़की को बार बार हॉर्न देकर छेड़ते हैं,ऑफिस में किसी को ज़्यादा काम करते देख कुर्सी पर जम्हुआई लेते हैं और सोचते हैं -मूर्ख है , करने दो , हमे क्या तो यकीन मानिए कि हम किसी नैतिकता की सुरक्षा को लेकर चिंतित नही हैं क्योंकि जो है ही नही उसकी रक्षा की क्या चिंता करना।
पिंक चड्डी ने अगर आपको लजाया है तो उसका मकसद पूरा हुआ ,लेकिन आप उसे लजाने चले हैं तो यह आपकी बीमार मानसिकता का प्रतीक है क्योंकि आपके पास कोई रीज़न नही है , यह आपका शगल है।आपका खेल है।न आपको पीटा गया, न अपमान किया गया ,न उसके सबूत मीडिया ने दुनिया भर को दिखाए गए , न ही आपको आगे भी बेइज़्ज़त करने की धमकी मिली।नीलिमा लिखती हैं-
हम साफ देख सकते हैं कि हमारे समाज में पुरुष बेहतर स्थिति में है और उसके पास स्त्री समाज की संवेदना को उदबोधित करने के लिए न तो कोई कारण हैं और न ही चड्डी पहनकर और मशाल लेकर सडक पर निकल पडने की ज़रूरत ही है !
ब्रा बर्निंग आंदोलन की प्रतीकात्मकता के बरक्स गुलाबी चड्डी आंदोलन को देखें ! दोनों ही गैरबराबरी वाले समाज के अवचेतन को चोट पहुंचाने का काम करते हैं !
इसलिए अगर् कहा जाए कि पिंक चड्डी विरोधी एक अन्य तरीके की राम सेना हैं तो इसमे कुछ गलत नही होगा।
भले ही यह विरोध प्रायोजित हो ,टी आर पी के लिए किया रामसेना का भी यह स्टंट ही हो, लेकिन सजग लोग अगर कोई बेहतर तरीका नही ढूंढेंगे और मन ही मन मनाएगे कि यह अच्छा ही हुआ जो राम सेना ने किया तो चड्डियाँ ही मुँह पर मारी जाएंगी।आखिर बाज़ार को भी किसी समाज विशेष की कमज़ोर नब्ज़ की पकड़ होती ही है न!तो इससे पहले कि बाज़ार आपके विरोध को शक्ल सूरत देने लगे हमें चेत जाना चाहिए कि हम अपने लिए विरोध का तरीका स्वयम चुन लें। ऐसे मे हमारा फोकस पवन शेट्टी जैसे लोग रहने चाहिए न कि मुतालिख।कपिल लिखते हैं -
वैलेंटाइन डे पर श्रीराम सेना और प्रमोद मुत्तालिक सुर्खियों में छाये हुए हैं। लेकिन क्या आप मैंगलोर हमले में हमलावरों का मुकाबला करने वाले पवन शेट्टी को जानते हैं? शायद न जानते हों। लेकिन आपने टीवी पर बार-बार दिखाई जा रही फुटेज में हमलावरों से लड़ते एक नौजवान को जरूर देखा होगा। जी हां, यही पवन शेट्टी है। दरअसल वह उस दिन संयोग से ही पब के बाहर मौजूद था और महिलाओं को बुरी तरह पीटते वहशियों की दरिंदगी उसे बर्दाश्त नहीं हुई और वह अकेला ही उन सबसे भिड़ गया।
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जिन्हें ये अपने मतलब की बात नही लगती उनके लिए और भी गम हैं ज़माने मे....
जो लोग प्रेम को पश्चिमी चश्मे से देखने का प्रयास करते हैंए वे इन प्रेम गीतों को महसूस करें और फिर सोचें कि भारतीय प्रेम और पाश्चात्य प्रेम का फर्क क्या है.
काश पहचान जाते वो नज़र
क्या करते मगर
इतना करीब था वो मेरे,
के धुंधला गई मेरी ही नज़र।
इन तस्वीरों में जयपुर में सोनिया गांधी की रैली के दिन के ट्राफ़िक जाम का नज़ारा है, आमेर से आगे खेड़ी गेट पर स्थित अनोखी संग्रहालय में काम करता कारीगर है, गन्दगी और बदबू से बजबजाता, शर्मसार करता गलता धाम है, गलता धाम से लौटते एक बाबा के आश्रम का साइनबोर्ड है, सिसोदिया रानी का बाग है रानीखेत क्लब से रात को खींचा गया पूरा माहताब है, झूलादेवी मन्दिर की घन्टियां हैं और अचानक पड़ी बर्फ़ की वजह से रानीखेत-भवाली रोड पर लगा असम्भव-अकल्पनीय ट्राफ़िक जाम.
और बॉलीवुड का स्त्री विमर्श करता एक मधुर गीत - इस गीत में चोखेरबाली हुई जा रहीं मुमताज़ की फिल्म दो रास्ते से ।
दूसरो की बहन बेटियों के साथ वेलेंटाइंस डे-
आखिर कस्बाई पुरुष मानसिकता नही गई , इसलिए अब सारा विवाद तेरी माँ -बहन और मेरी माँ बहन का चल निकला
पुराने जोड़े यूँ मनाएँ वेलेंटाइंस डे - गिरीश बिल्लोरे
मोबाइल या आफत की पुड़िया - प्रभात गोपाल
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और जब तक चर्चा पूरी हुई हमारी बातों की पुष्टि करती एक और दमदार पोस्ट आ चुकी । यहाँ दर्ज कुश की यह शिकायत भी वाजिब है -
अपनी अपनी सोच है... इस से ज़्यादा कुछ नही कहा जा सकता... मुझे लगता है यहा गला फाड़ फाड़ कर चीखा भी जाए तो भी कुछ नही होने वाला...
रोज़ सुर्ख़ियो में रहने वाले ब्लॉगर्स पता नही कहा चले गये है.. ना कोई कमेंट में नज़र आ रहा है ना कोई पोस्ट में.. जो आ रहे है.. वो कविताए ला रहे है.. क़िस्से ला रहे है..
अनुराग जी ने ठीक कहा था लोगो को अपने निजी सरोकारो से बाहर निकलना चाहिए...पर ऐसा कोई करता नही है..
सुजाता जी की पोस्ट के आँकड़े देखिए.. कल के दिन में 121 बार पढ़ी गयी पोस्ट पर सिर्फ़ 15 टिप्पणिया...
हैरत की बात है.. वो क्या है जो आपको रोक रहा है.. अगर आपने मन मुताबिक भी नही तो कम से कम असहमति दर्ज कर दीजिए... हाँ या ना कुछ जवाब तो दीजिए.. क्या मोरल रेस्पॉन्सिब्लिटी नाम की कोई चीज़ भी नही..
February 13, 2009 11:01 AM
दर असल मॉरल अपने लिए नही होता , यह हमेशा किसी अन्य को सिखाई जाने वाली बात होती है।ज़मीर दूसरे का जगाया जाता है।
खैर ,
अभी तो ब्लॉग जगत को बहुत सी बातों के लिए तैयार रहना चाहिए ।लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं, देखिए कहीं अगला गिरेबाँ आपका ही न हो!
HAPPY VALENTINES DAY !!!!
सुजाता
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HAPPY VALENTINES DAY !!!! aap ko bhi
जवाब देंहटाएंबहुत दमदार चर्चा रही इस बार की ....सच को सामने रखती हुई पोस्ट
जवाब देंहटाएंअभी -अभी रचना की पोस्ट पढ़ी और अब आपकी चिट्ठा चर्चा पढ़ी ।
जवाब देंहटाएंसटीक लेखन ।
अनूप जी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
बताइये गुलाब जी हाँ सिर्फ़ गुलाबों लदा ट्रक
बिना काँटों का भेज रहा हूँ ... स्वीकारिये जी
आज दाग की बात सलिल समाधिया ने याद दिलाई
सोचता हूँ बतौर टिप्पणी दर्ज कर दूँ ताकि गुमसुम ब्लॉगर बागे बहारी
के हलके अपनीले थपेडों से फ़िर लिखें अच्छा लिखें
ए बागे-बहारी उनको भी दो चार थपेडे हलके से
जो लोग किनारे से अब तक साहिल का नज़ारा करतें हैं ..!!
हाँ पूरी पोस्ट फ़िर से बांचूंगा
अभी इस उक्ति से प्रभावित हुआ :"अभी तो ब्लॉग जगत को बहुत सी बातों के लिए तैयार रहना चाहिए ।लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं, देखिए कहीं अगला गिरेबाँ आपका ही न हो!"
HAPPY VALENTINES DAY !!!!
जवाब देंहटाएंसटीक चर्चा.
कोई आश्चर्य नही की इस पोस्ट पर रेग्युलर कमेंट करने वाले कमेंट नही करे... और कुछ ऐसे भी कमेंट मिले जो आपको अच्छी चर्चा के लिए बधाई भी दे डाले..
जवाब देंहटाएंफ़िल हाल तो यही कहून्गा... HAPPY VALENTINES DAY !!!!
प्रेम दिवस मुबारक हो ! दीपावली और होली की तरह ! अच्छी चोखेरबालीमय चर्चा !!
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंऎ कुश, जरा ज़बान संभाल .. और कीबोर्ड पर लग़ाम देकर लिखा करें ।
हम अँग्रेज़ों के ज़माने के ब्लागर हैं... हाड़्ड़्प्प !
ऎसी एतिहासिक चर्चा पढ़ कर,
आज तो अपने बुद्धिजीवी होने का भ्रम पुख़्ता हो रहा है ।
सो, टिप्पणी हल्के में नहीं न दूँगा ?
साँझ ढलने दीजिये, फिर प्रगट होता हूँ !
आपके पीछे वाली सीट मेरी रिज़र्व है, रोके रहियेगा !
यह ब्लॉगजगत के चिठ्ठों की चर्चा है,या व्यक्तिगत अभिरुचि के पोस्टों की चर्चा ???????
जवाब देंहटाएंआपने कहा- कोई स्त्री चड्डी का इस्तेमाल विरोध के लिए करे तो मिर्ची तो लगेगी ही न।
जवाब देंहटाएंमुझे एक गाना याद आया -...तुझे मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं:)
इस चर्चा के लिये बधाई. हां एकाध तकनीकी गलती जरूर चर्चा में आ गई है उसे सुधार लें.
जवाब देंहटाएंउदाहरण के लिये आप ने "प्रतीकात्मक" विरोध की बात कही. अच्छी बात है. लेकिन समस्या यह है कि जिनका आप अनुमोदन करती हैं उनके अलावा अन्य लोग भी "प्रतीकात्मक" प्रयोग करते हैं. उन लोगों की प्रतीकात्मकता को इस चर्चा में नजरअंदाज कर दिया गया है.
मुझे लगता है कि शायद जल्दी में आपने चर्चा लिखी होगी अत: यह नहीं समझ पाई कि चड्डी-चर्चा के दोनों ओर एक बराबर समझदार लोग हैं जो प्रतीकों का उपयोग एक बराबार अधिकारिता के साथ कर सकते हैं.
लिखती रहें, आपकी कलम जीवंत है!!
सस्नेह -- शास्त्री
आधिकारिता = आधिकारिकता
जवाब देंहटाएंHAPPY VALENTINES DAY !!!!
जवाब देंहटाएं" mehnt se ki gyi charcha.."
regards
मेरे द्वारा अब तक पढ़े, इस विषय पर, सबसे प्रभाव शाली लेख ! सहमति के साथ शुभ कामनाएं !
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली बहुआयामी चर्चा. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत दमदार चर्चा
जवाब देंहटाएंबल्टियान दिवस की बधाई.
जवाब देंहटाएंरामराम.
जवाब देंहटाएंमाननीय लेखिका से कई बिन्दुओं पर असहमत होते हुये भी पोस्ट के मूल चरित्र का हिमायती हूँ । प्रतीक चाहे जो भी रखा जाय, तथाकथित प्रगतिशील सोच स्त्रैण मुद्दों की खिल्ली ही उड़ाती है । मुँबई हादसे के बाद के महिलाओं के विरोध प्रदर्शन पर किन्हीं मन्त्री जी की टिप्पणी लोग शायद भूले न होंगे । मतलब साधने के लिये ' नारी सर्वत्र पूज्येत ' का मन्त्रजाप करने वाले गुलामी के मुगलिया दौर से नहीं उबर पाये हैं, राम का टैग लगाने से क्या होता है ? रामसेना की तो छोड़िये..
क्या राम की तत्कालीन लीलायें (?) वर्तमान के भारतीय सोच और परिवेश का प्रतिनिधित्व करती हैं ? नहीं..
जरा सोचिये इस युग में लक्ष्मण होते, तो उर्मिला को 14 वर्षों तक
गुज़ारा भता न देने से बचने के लिये 'द्विवेदी जी' के दरवाज़े खड़े होते..
और रामजी के नाम इतने नान-बेलेबुल आफ़ेन्स दर्ज़ हैं,
कि वह अबतक ज़मानतों के लिये दौड़ रहे होते !
तो.. राम का नाम इस चड्ढी में क्यों घसीटते हो, मित्रों ?
नैतिकता के अपने गढ़े हुये तर्क हुआ करते हैं..
यदि तब का विभीषण-कृत्य पूज्य है, तो..
चड्ढी-चिन्तित चिट्ठाकार आजके विभीषण को देशद्रोही क्यों करार दे रहे हैं ?
परंपरा के पैरोकार बहुपतिप्रथा पर भी तो कुछ कहें, फिर सतियों का क्या होगा ?
यह बहस परिवर्तन के प्रसवपीड़ा से अधिक कुछ नहीं है ?
आइये हिन्दी के कुछ महान ब्लोगर की किसी बहस के प्रति गंभीरता देखि जाए .कुछ दिन पहले किसी ने कहा था की हिन्दी ब्लोगिंग में कुछ दम नही तो सब लोग उस बेचारे पर टूट पड़े थे .
जवाब देंहटाएंएक रवि रतलामी जी क्या कहते है
चाहते तो थे खाकी चड्डियाँ
तकदीर में थी पिंक चड्डियाँ
शहर में निकला है वो नंगा
पहनाने को सबको चड्डियाँ
सूट तो सबने सिलवाए कई
न मिल पाईं उन्हें चड्डियाँ
ये कैसा वक्त है या खुदा
टाई के विकल्प हैं चड्डियाँ
बातें करते हो नंगई की रवि
पहनलो पहले खुद चड्डियाँ
दूसरे प्रमोद सिंह जी अपनी कविता में कहते है
आगे बबुनी तुम लहराना, पीछे खड़ें हम हाथ चलाना, मत घबराना मत घबराना..
तीसरे महान शास्त्री जी ,अपने ख़िलाफ़ आई टिप्पणियों के जवाब में कहते है
"हिन्दी चिट्ठाजगत में एक मजेदार बात यह है कि एक दो नारियां हैं जो किसी पुरुष चिट्ठाकार का विरोध करते हैं तो बचे कई पुरुषों को एकदम मूत्रशंका होने लगती है और वे तुरंत इन नारियों के चिट्ठों पर जाकर मथ्था टेक आते हैं कि “देवी, हम ने गलती नही की, अत: हमारे विरुद्ध कुछ न लिखना”. यही चड्डी-कांड में आज हो रहा है."
यानी जो इनके साथ नही वे मथ्था टेकने वाले .
तो सभी अंकल आंटियों चुटकुले सुनो ,पहेलिया बूझो , गाने डाउनलोड करवा के सुनवाओ ,कविताओं पर वाह वाह करो ओर टिप्पणियों को गिनते गिनते ब्लोगिंग करो .
यही है हिन्दी ब्लोगिंग .
वाह वाह.
सुजाता, आप ने लेख ठीक से नही पड़ा, मुझे कोई कंफ्यूजन नही है। मैने सिर्फ आपकी बात के लिये ही नही कहा सुरेश के तरीके को भी गलत बताया है। यही नही लेख में और भी बहुत कुछ था जिन्हें ज्यादा महत्व दिया जा सकता था लेकिन जैसा आप पहले ही कह चुकी हैं आपके जवाब के लिये भी वही दोहराऊंगा - आप किसी के विरोध के तरीकों से हमेशा ही सहमत-असहमत हो सकते हैं ,यह आपका हक है।
जवाब देंहटाएंइस पूरे मुद्दे पर हालात ये हैं कि 'थोथा थोथा गहि रहे सार दे उड़ाय'।
बाकि चर्चा अच्छी और मुद्दे पर की है लेकिन अगर बीच के शब्दों को समान्य फोंट में लिखती तो भी समझ आता और अच्छे से पढ़ने में भी आता। हैप्पी वैलेंटाईन डे :)
चर्चा विचारोत्तेजक रही।
जवाब देंहटाएंमजे की बात है कि जिस व्यक्ति को लोगों को पीटने के जुर्म में अन्दर होना चाहिये वह देश की सनसनी बना हुआ है। ताज्जुब नहीं कि कल को किसी पार्टी से चुना जाकर जनप्रतिनिधि बन जाये।
गुलाबी चढ्ढी आंदोलन में जुटे लोगों के अपने तर्क होंगे और वे सच भी होंगे। बेहतर विकल्प सुझाने में सक्षम न होने के कारण उनके द्वारा अपनाये गये विकल्प को अच्छा/खराब कहने की स्थिति में फ़िलहाल नहीं हूं। लेकिन मुझे लगता है कि वे अपने प्रतिरोध के तरीके से केवल प्रचार पायेंगी और कल के बाद सब कुछ शायद बंद हो जाये।
कुछ लोगों की कमेंट की भाषा इतनी तीखी है कि देखकर ताज्जुब होता है। शास्त्रीजी भी कैसे-कैसे तर्क दे लेते हैं अपनी बात के समर्थन में देखकर सच में आश्चर्य होता है। लेकिन मजे की बात की बात है कि वे इतने महान हैं कि अपनी किसी बेतुकी बात के खिलाफ़ इस्तेमाल किसी भी तर्क को सच्चा शास्त्रार्थ कहकर हजम कर जाते हैं।
कुश ने लिखा कि रोज़ सुर्ख़ियो में रहने वाले ब्लॉगर्स पता नही कहा चले गये है.. ना कोई कमेंट में नज़र आ रहा है ना कोई पोस्ट में.. जो आ रहे है.. वो कविताए ला रहे है.. क़िस्से ला रहे है..
इसका कारण भी समझा जाना चाहिये। अक्सर इस तरह की बहसों में जबकि लिखने वाले ने अपना पक्ष लिखा और उसको ही अंतिम सत्य मानकर आपकी हर बात को अपने लिखे/कहे के समर्थन में आपकी हर बात को आप मेरी बात ही नहीं समझे (बात नहीं समझने में समझाने वाले का भी कुछ दोष तो होता होगा) या फ़िर आपकी सोच पूर्वाग्रस्त है साबित करके खारिज कर दे तो ऐसे में चुप रहना बेहतर विकल्प लगता है।
अनुराग आर्य ने जो लिखा वह हमारा भी दर्द है-पर हैरानी से ज्यादा दुःख है की मूल मुद्दे से भटक-कर हम अजीब किस्म की अनर्गल गैर जरूरी बहसों में उलझकर रह गये है .कई जगह बहस का स्तर निहायत ही व्यक्तिगत ओर निजी हो गया है ...क्या वास्तव में हम लोग पढ़े लिखे समाज का प्रतिनिधित्व करते है ?
बाकी सुजाता ने विचारोत्तेजक चर्चा की उसके लिये वे बधाई की पात्रा हैं।
शास्त्री जी जैसे जमे हुए ब्लोगर से मत्था टेकने वाले सुनना दुखद रहा
जवाब देंहटाएंजो मुझे वाहवाही दे वो विचारवान और जो किसी और को वाहवाही दे वो मत्था टेकने वाला
इस सन्दर्भ में यहाँ भी शास्त्री जी ने वाहवाही दी है नोटपैड को
ये मत्था टेकने वाली बात मानी जायेगी या नही ?
स्त्रियों द्वारा व्यक्त विरोध को मारपीट के प्रति जताया गया विरोध मानने की अपेक्षा उसे पब का समर्थन मानने का पेंच ( या चालाकी) मुद्दे को उलझा रहा है।
जवाब देंहटाएंस्त्री से मारपीट (या किसी से भी मारपीट) उचित है क्या?
ऐसे में यदि स्त्रियाँ उन हिंसक कापुरुषों से शारीरिक प्रतिकार(प्रतिहिंसा)की अपेक्षा स्त्री-अन्तर्वस्त्र भेंट में देने का या ऐसे ही किसी अन्य विरोध का मार्ग चुनती हैं तो इसमें श्लील अश्लील के प्रश्न कहाँ उठते हैं? यदि वे उतरन भी भेजें तो यह मानमर्दन का अहिंसक विरोध ही है। इसके औचित्य-अनौचित्य को मुद्दा बनाना वैसा ही है, जैसे यह कहा जा रहा हो कि ‘हम मारपीट के हिमायती हैं’।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना उचित है कि संसार की किसी भी स्त्री के साथ (और मानवमात्र के साथ भी) मारपीट भले ही मेरे अपने करें या पराए, हर हाल में गलत है,यह दल करे या वह दल, गलत है,इस सम्प्रदाय वाले करें या उस सम्प्रदाय वाले,हर हाल में गलत है। उसे अपने और पराए की सीमा से हट कर देखा जाना व विरोध किया जाना उचित है। इस विरोध को यदि कोई नेता या नेत्री बनने के माध्यम के रूप में चुनता है तो वह उसकी तुच्छता ही है। किन्तु किसी एक (या दो-तीन) व्यक्ति की तुच्छता के कारण गलत के प्रतिकार का समर्थन करना नहीं छोड़ा जा सकता। हर चीज को साम्प्रदायिक रंग देना दोनों पक्षों की समान भूल माना जाएगा।
जवाब देंहटाएंइस सब के बावजूद हिंसा का विरोध करना प्रत्येक का दायित्व है, उसे कई चीजों से उबर कर निभाया जाना चाहिए।
Mahoday aap sab Prabudhh log hai... mujhe bada kharab lagta hai jab log mudde se hat kar prateeko ko le kar bahas karne lagte hai aur muddo ko piche chhod dete hai... Prarthna hai ek baar ye bhi soche ki mudda kya hai...
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