जाड़े के मौसम में लिखना/पढ़ना सब बड़ा बबाल लगता है। बैठे हैं कम्बल ओढ़े सुबह-सुबह कि चर्चा करी जाये। लेकिन उंगलियां कम्बल के बाहर नहीं जातीं। जाती हैं फ़िर लौट आती हैं। मुझे फ़िर विवेक की चर्चा याद आती है कि कितनी पोस्टों का जिक्र कर डाला विवेक ने। इत्ती मेहनत इत्ते जाड़े में कैसे होगी भैया।
कल हमें पता चला था कि शिवकुमार मिश्र जी ने कोई नई पोस्ट लिखी है। अभी सुबह-सुबह पढ़ी। पढ़ के डर गये। बता गया है कि बस यूं, ऐसे-वैसे ही कारणों से लोग एक दूसरे की हत्या कर दे रहे हैं। टेनिस न खेलने पर बाप अपने बेटे को निपटा दे रहा है, पापड़ न मिलने पर मरण-झापड़ मिल गया और रिमोट न मिलने पर कतल हो जायेगा। यही नहीं वे ब्लाग जगत की घटनाओं की कल्पना कर डालते हैं
हमने सोचा कि सबसे पहिले भाई इन्हीं की चर्चा कर डालो वर्ना पता नहीं कौन सा स्क्रू किसका ढीला हो जाये।
क्या-क्या कारण दिखाई देंगे. आहा...एक साहब ने अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखी. अपने पड़ोसी ब्लॉगर को उस पोस्ट पर टिपियाने के लिए कहा. पड़ोसी आज कुछ ज्यादा ही बिजी है. अपने बच्चे के साथ कंचा खेल रहा है. तीसरी बार रिमाईंड करने पर भी पड़ोसी टिपियाने के लिए समय नहीं निकाल पा रहा है.
बस, पोस्ट-लेखक भाई साहब उठेंगे अपना लैपटॉप हाथ में लेकर आयेंगे और पड़ोसी ब्लॉगर के सिर पर दे मारेंगे..पड़ोसी वहीँ ढेर.
लेकिन पल्लवी त्रिवेदी इससे धुर उलट मूड की पोस्ट लिखती हैं। एक बच्चा उनके मोबाइल के गाने की रिंग टोन सुनकर ही खुश हो जाता है। वे इसी बात को आगे लिखती हैं:
ख़ुशी बड़ी बड़ी चीज़ों की मोहताज नहीं! एक गाना सुनकर वो बच्चा इतना खुश हो गया! शायद जिंदगी से हमें बहुत ज्यादा नहीं चाहिए होता है...वो तो हर कदम पर हमें गले लगाना चाहती है! हम ही उससे संतुष्ट नहीं होते जो वो हमें देती है!
आगे भी वे खुशी का कैप्सूल खिलाते हुये कहती हैं:
जिंदगी खुशियाँ बांटने का दूसरा नाम है! दूसरों को थोडी सी ख़ुशी देकर हम उस पर कोई एहसान नहीं करते बल्कि अपने दिल को सुकून से भरते हैं! किसी के चेहरे पर मुस्कान लाना खुदा की बंदगी का सबसे पाकीजा रूप है! और जहां तक हो सके ये मौका हमें कभी नहीं छोड़ना चाहिए!
हैरतजदा होकर वे सोचती भी हैं:
कितने हैरत की बात है न हमें कोई अच्छा काम किये हुए इतना वक्त बीत जाता है की हमें याद ही नहीं आता!
इसके बाद वे इस साल पहले से बेहतर इन्सान होने का प्रयास करने का संकल्प लेती हैं। आप भी जुड़ेंगे इस अभियान में?
अमित समय के साथ बदलते रिश्तों की बात करते हैं:
रिश्ते भी कभी इतनी उलझन पैदा कर सकते हैं , मैंने कभी सोचा नही था | ऐसा क्यूँ होता है की ना चाहते हुए भी कुछ रिश्ते पूर्णविराम की तरफ़ बढ़ते चले जाते हैं | कल तक जो आपकी छोटी से छोटी बातें ख़ुद ही समझ जाया करते थे आज बताने पर भी नही समझ पातें हैं | कल तक जिन्हें आपकी फिकर रहती थी आज वो आपसे ऐसे मुंह मोड़ लेते हैं जैसे की आपको जानते तक न हो...., एक ही छत के नीचे रहते हुए भी अजनबी सा वयवहार करते हैं |
विवेक इसे ज्ञान चिंतन बताते हैं जबकि पूजा इसकी व्याख्या करते हुये बताती हैं:
गुजरते वक्त के साथ एकरसता आ जाती है, जरूरी है कुछ नयापन लाना, मिल कर कुछ अलग करना. इससे रिश्तों को नई जिंदगी मिलती है और वे हर कदम साथ रहते हैं. कुछ कुछ उसी गीत की तरह...चलो एक बार फ़िर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों.
आगे पूजा अपने शहर से पूछती हैं- मेरे शहर /तुम मेरे क्या हो? अब चूंकि कविता में लिखा है वर्ना ये तो तुम्हारा नाम क्या है बसन्ती टाइप सवाल है।
उधर घुघुतीजी अपने बसने के लिये शहर की तलाश कर रहीं हैं। वे बताती हैं:
हम जैसे लोग जो सारा जीवन खानाबदोशों की तरह एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त जाते रहे वे किस शहर को चुनें ? उसपर यदि परिवार के सदस्य अलग अलग प्रान्तों के हों तब तो यह निर्णय और भी कठिन हो जाता है। सबसे सरल लगता है कि जहाँ भी हो उसके सबसे नजदीकी शहर में रहो।
उधर देखिये जाट भाई के साथ क्या हुआ? वे चले थे सहस्र धारा , पहुँच गए लच्छीवाला । बीच में क्या वाकये हुये खुदै देखिये।
राधिकाजी का मानना है:
एक अच्छी लड़की यह कभी नही चाहती की उसका पति बहुत स्मार्ट हो,या बहुत पैसे वाला हो ,वह बस इतना चाहती हैं की उसका पति उसे ह्रदय से प्रेम करे ,उसे पति के रूप में एक मित्र की जरुरत होती हैं ,जो उसकी सारी बाते सुने ,उसकी हर छोटी बड़ी खुशी में अपनी खुशी जाहिर करे ,उसके दुःख को अपना कहे,जब वो रोये तो अपने पति के कंधे पर सर रखकर रो सके ।
इस पर एक अनाम टिप्पणीकार ने लिखा है कि उनकी समस्या है कि वे अपनी पत्नी को बहुत चाहते हैं लेकिन उनके कने उसके लिये टैम नहीं है।
अब फ़िल्म पत्रिकारिता पर अविनाश वाचस्पति का लिया हुआ साक्षात्कार बांच ही डालिये।
दिगम्बर नागवा का अपना सपना है:
बन सकें जो लक्ष्य प्रेरित बाण हम
कर सकें जग का कभी जो त्राण हम
सार्थक हो जाएगा जीवन हमारा
कर सकें युग का पुनः निर्माण हम
कथाकार लवलीन को याद कर रहे हैं कथाकार सूरजप्रकाश!
अजित वडनेरकरजी सिक्के की कहानी सुना रहे हैं:
एक अन्य स्वर्णमुद्रा थी गिन्नी जिसका चलन मुग़लकाल और अंग्रेजीराज में था। दरअसल गिन्नी का सही उच्चारण है गिनी जो कि उर्दू-हिन्दी में बतौर गिन्नी कहीं ज्यादा प्रचलित है। मध्यकाल में अर्थात करीब 1560 के आसपास ब्रिटेन में गिनी स्वर्णमुद्रा शुरू हुई। इसे यह नाम इसलिए मिला क्योंकि अफ्रीका के पश्चिमी तट पर स्थित गिनी नाम के एक प्रदेश से व्यापार के उद्धेश्य से ब्रिटिश सरकार ने इसे शुरू किया था।
जमाल लिखते हैं:
कल रात को किया वो इन्तेजार कैसे,
मर मर के जी लिया तू बार बार कैसे|
शैलेश भारतवासी का इंटरव्यू सुनिये- लक्ष्य छोटे हों या बड़े, पूरे होने चाहिए
फ़ोटोग्राफ़ी में भी क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं और उस पर लोग प्रतिक्रिया कैसे करते हैं यह देखिये प्रवीन जाखड़ की आपबीती पोस्ट में:
रात के अंधेरे में तीन चौकीदार और मैं अकेला चमकीले चिल्के छलकाता हुआ। कुछ फव्वारों की तस्वीरें खींची। कुछ पुल के बड़े खंभों की उदासी को कैद किया। पर बात नहीं बनीं। वहीं एक फव्वारे की मैंने कुछ तस्वीरें ली थी। इन्हीं तस्वीरों में से किसी एक में एक बूंद कुछ ऐसी दिखाई दे रही थी, जैसे कोई धूमकेतू हो। आइडिया लगाया और लग भी गया। मैं ठीक फव्वारे के ऊपर कैमरा सैट करके लगातार तस्वीरे खींचने लगा। डेढ़ घंटे तक लगातार 140 से ज्यादा तस्वीरें खीचने के बाद नीचे देखा, तो घुटनों तक जूते और पैंट पूरे भीग चुके थे। इतने की जूते तो अगले चार दिन पहन भी ना पाओ।
विजय तिवारी तो डरा ही रहे हैं अपने दोहे से:
भूख,प्यास, दुख, बेबसी, मजबूरी का साथ।
कर्महीन इंसान के, लिख जायेगा माथ॥
एक लाइना
- घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें... : चलो किसी ब्लाग पे चल के टिपियाया जाये
- अभी तो मैं जवान हूं : एक बनता हुआ मकान हूं
- उनकी वंश-बेल आप बढ़ाएँ :हम तो अभी बैठे हैं भन्नाये
- तेली को लाट किसलिये ?: शास्त्रीजी पोस्ट लिख सकें इसलिये
- वह कौन था? :कम से कम मैं तो न था जी!
- मेरे बाद जमाना क्या पूछेगा कभी उसकॊ :यही कि क्या सोच के अपने ब्लाग पर कापी-ताला लगाया था?
- आज एक बार सबसे मुस्करा के बात करो:तो कोलगेट मंजन के पैसे वसूल हो जायें
- केले को लपेट कर रोटी संग खाना, या फिर कभी गुड़ से रोटी चबाना, अच्छा लगता है : लेकिन यहां तो केले में कविता लपेट दी गयी
- जाने क्यों हर शय कुछ याद दिला जाती है : आजकल मुई नींद भी जरा कम ही आती है
- सिक्का- कहीं ढ़ला, कहीं चला : सब जगह बिना टिकट
- जैसे खो गया सब कुछ उनका : लेकिन FIR न करवायेंगे
- कोहरा-रोमानियत : घर पहुंचते ही मामला रोमानी हो गया!
- आप ही कन्धा आप ही जनाजा :जो उठायेगा उसका तो बजेगा बाजा
- कैसे गर्व करें अपने सुरक्षा बलों पर: सुरक्षा बलों में भर्ती होकर देखें
बूझ लिया और जान लिया पहचान लिया भी : तो बताते काहे नहीं जी !- मेरी उड़ान : शुरू होती है अब!
- 1 को 1 क्यूँ लिखतें हैं, 2 क्यूँ नहीं? : फ़िर 2 को क्या लिखेंगे?
- फोटोग्राफी कहां से सीखी? : बोलते काहे नहीं!
- अपना भी कोई एक घर होगा:जिसे बेचा जायेगा
- रामखिलावन दूध में पानी क्यों मिलाता है? :क्योंकि उसके यहां पानी सुबह-सुबह आ जाता है
- पुरानी पीढ़ी और नयी पीढ़ी के बीच :लगाओ तो जरा एक सीढ़ी
- आतंकियों से कड़ी सजा मिलनी चाहिए रेपिस्टों को...: मिलेगी भैया बहुत कड़ी मिलेगी लेकिन जुर्म तो साबित हो पहिले
- झारखंड के बर्खास्त जज को राहत देने से इनकार : वाह -वाह सुप्रीम सरकार
- राखी सावंत की फूहड़ता से सशंकित था जबलपुर : एक राखी से डर गया शहर!
- ट्रक ड्राईवर की philosophy :जो सामने आये उसे ठोंक दो
- यहां है सारी मिठाइयां -और भी बहुत कुछ् :डायबिटीज वाले भी देख सकते हैं
- ऐसा नहीं है खुदा: कि सड़क पर चला भी न जा सके
और अंत में
आज काफ़ी दिन बाद चर्चा की। कई पोस्टें देखी। कुछ का जिक्र ऊपर किया।
मजे की बात है कि लोग अक्सर टिप्पणी करते हैं कि कैसे चर्चाकार इत्ते ब्लाग देखकर चर्चा करते हैं। आज मैं खुद सोच रहा था कि क्या लिखें क्या छोड़ें।
पिछले दिनों लिखना-पढ़ना सब स्थगित सा रहा। ब्लाग जगत में भी आजकल कम सक्रियता है। लोग कम लिख रहे हैं, कम टिपिया रहे हैं। शायद जाड़े के कारण ऐसा हो। सर्दी में सब कुछ सिकुड़ जाता है।
अब लगभग सभी दिन के लिये एक चर्चाकार साथी के जुड़ने से चिट्ठाचर्चा के नियमित बने रहने की संभावनायें बढ़ गयीं हैं। कुश के नियमित होने के बाद वुधवार का दिन उनके लिये हो जायेगा। इसके बाद हम नियमित-अनियमित चर्चा करते रहेंगे। समीरलाल भी तो हैं और पुराने लोग भी जुड़ेंगे ही फ़िर से। फ़िर शायद जोड़ियों में लोग चर्चा करने लगें।
फ़िलहाल इत्ता ही। आप मौज करें। कल आपको मिलेंगे शिवकुमार मिश्र परसों मुलाकात होगी मसिजीवी से। इसके बाद शनिवार को तरुण और इतवार को आर्यपुत्र आलोक कुमार।
ऊपर का चित्र पल्लवी त्रिवेदी के ब्लाग से और नीचे के कार्टून चिट्ठाजगत के सौजन्य से हैं।
यहाँ चर्चा पढना अधूरा छोडकर पहले भागता भागता बदहवास कलकत्ता गया . डर था कहीं देर न हो जाय . वहाँ शिव जी को टिप्पणी हाथ में पकडाई . चौकस बोला . तब वापस आया हूँ . कम्प्यूटर का क्या भरोसा ? टिप्पणी न पहुँची तो लेने के देने पड जाएं .
जवाब देंहटाएंबाकी हमें लगता है कि चर्चा के इत्ते सारे फॉलोअर केवल अपना फोटू दिखाने के लिए हैं :)
सुन्दर चर्चा!!!
जवाब देंहटाएंलोग कम लिख रहे हैं, कम टिपिया रहे हैं। शायद जाड़े के कारण ऐसा हो। सर्दी में सब कुछ सिकुड़ जाता है।
कल रात को किया वो इन्तेजार कैसे,
जवाब देंहटाएंमर मर के जी लिया तू बार बार कैसे|
" वाह वाह , क्या अंदाज है, वैसे मर मर के जीने का नाम ही जिन्दगी है..."
regards
बढियां राउंड अप !
जवाब देंहटाएंसहस्त्र नहीं सहस्र धारा
जवाब देंहटाएंआर्यपुत्र आलोक सहस्र धारा कर दिया लेकिन मालिक ये तो जाट भाई का कापी/पेस्ट किया गया था। :(
जवाब देंहटाएंआज की एकलाइना बहुत मजेदार बन पड़ी हैं। काश मैं भी ऐसा लिख पाता कि...
जवाब देंहटाएंbahut sundar charcha....
जवाब देंहटाएंबहुत लाजवाब चर्चा. लगता है ठंड मे सब कुछ सिकुड गया है.:)
जवाब देंहटाएंओहो तो आप वापस आ ही गये.. हमे तो लगा की आप फिर से नैनीताल उड़ गये.. बहुत दीनो बाद एक लाइना दिखी है.. आनंद तो आना ही था..
जवाब देंहटाएंविवेक भाई कलकत्ता गये थे तो हमे भी बता देते.. हम भी टिप्पणियो का एक पार्सल आपके साथ भिजवा देते..
अनूप जी की चर्चा के बारे में कुछ कहना तो सूरज को दिया (दिया मिर्ज़ा नही) दिखाने जैसा है.. चिट्ठा चर्चा पर अब नये नये रंग देखने को मिल रहे है..
पर अभी मुझे इंतेज़ार है गुरुवर डा. अमर कुमार जी की चिट्ठा चर्चा का.. वो करे चर्चा तो हम भी रस पान कर ले.. उनकी अलाय बलाय चर्चा का...
बाकी सब खेरियत.. जल्द ही आएँगे.. बुधवार रिजर्व रखिएगा
अनूप जी, नमस्कार.
जवाब देंहटाएंइतनी ठण्ड में तो बस इतना ही लिखा गया है. मस्त चर्चा.
"आगे पूजा अपने शहर से पूछती हैं- मेरे शहर /तुम मेरे क्या हो? अब चूंकि कविता में लिखा है वर्ना ये तो तुम्हारा नाम क्या है बसन्ती टाइप सवाल है।"
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार!
और मैंने जो लिखा था, वो तो टिप्पणी न करने पर उत्पन्न होने वाली संभावित परिस्थिति की कल्पना थी. चर्चा न करने पर ऐसा कुछ होने का चांस कम है. और वैसे भी वो सब तो एक कल्पना है. आख़िर ब्लॉगर भी उसी समाज से आता है जहाँ से पापड न मिलने पर हत्या कर देने वाले आते हैं. ऐसे में.....
एक लाइना तो जबर्दस्त रही, मजा आ गया।
जवाब देंहटाएं(ट्रक ड्राईवर की philosophy :जो सामने आये उसे ठोंक दो)
(1 को 1 क्यूँ लिखतें हैं, 2 क्यूँ नहीं? : फ़िर 2 को क्या लिखेंगे?)
2 को 1 कह लेगें, इसमे क्या परेशानी है! :)
जवाब देंहटाएंअई अईयो,आप्प ठाँड से सीकूरा बट गुडी-गुडी चर्चा करता जी !
एक लाइना बहुत अच्छी लगी
जवाब देंहटाएं" कथाकार लवलीन को याद कर रहे हैं कथाकार स्वयंप्रकाश "
जवाब देंहटाएंलवलीन को स्वयंप्रकाश ने नहीं सूरजप्रकाश ने याद किया। परिवर्तन कर दें।
बढ़ियाँ है ....
जवाब देंहटाएंकानपुर की सर्दी में भोर-भोर कैसे लिख लेते हैं महाराज?
जवाब देंहटाएं@ कुश , अरे भाई हम तो इमरजेंसी में गए थे . यहाँ जान के लाले पडे हुए थे तो आपको बताने का ध्यान और समय न था . नाजुक मौका था बिना चप्पल के ही भाग गए .
जवाब देंहटाएंबाकी आप परेशान न हों आपकी टिप्पणी वहाँ मौजूद थी . हमने शिव जी की मेज पर देखा उसे . देखो जिरॉक्स भी करा लाए हैं :
"साहब ये लीजिए हमारा कमेंट.. बच्चे पे दया दृष्टि रखना.."
पहचाने ? यही है ना ?
वैसे नाराज तो हो रहे थे . कह रहे थे . "कुश ने टिप्पणी के नाम पर दिया भी तो क्या दो .. " :)
शानदार चर्चा ! कार्टून बहुत अच्छे लगे !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चिट्ठाचर्चा है सारी पोस्ट समेट ली है जब सबकी बात हो तो पढ़ने का ज्यादा मन होता है और अभी भी पढ़ रहा हूँ . पर एक बात कहना चाहूँगा कि मेरे शहर में राखी सावंत के अश्लील शो के ख़िलाफ़ शहर जबलपुर के नवयुवको द्वारा जबरजस्त प्रदर्शन किया और शो को निरस्त किया गया . मेरा शहर डरा नही है बल्कि जबलपुर ने एक मिसाल कायम की है और लोगो को एक संदेश दिया है कि भारतीय संस्कृति के अनुरूप शो किए जाए . समाज में नित नए अश्लील कार्यक्रम बढ़ते जा रहे है उनका विरोध किया जाना चाहिए . मेरे ब्लॉगर भाई विजय तिवारी जी जबलपुर द्वारा ऐसे कार्यक्रमों के बारे में समाजहित में अपनी पोस्ट में सराहनीय जानकारी दी है वह ख़बर सभी के लिए प्रेरणास्पद है . संस्कारधानी से संबोधित शहर जबलपुर "कुल मिलाकर मेरा शहर डरा नही है" कहना चाहता हूँ बल्कि अश्लीलता के ख़िलाफ़ सभी को अच्छा संदेश दिया है . . यह शहर पत्थरो के शहर के नाम से भी जाना जाता है जहाँ जीवट लोग बसा करते है .
जवाब देंहटाएंआपका भाई
महेंद्र मिश्रा जबलपुर.
वाह, वाह, सभी जोश में लिख पढ़ रहे हैं। सिर्फ हम ही हैं जो कोहरे में सिकुड़ रहे हैं। :-(
जवाब देंहटाएंचिटठा चर्चा अपने नाम को सार्थक करता हुआ अपने में विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है ब्लागर्स को माला की तरह पिरोने में अपना दायित्व निर्वहन कर रहा है. " चिटठा चर्चा " के कार्टून और एक लाईना एक दम सटीक दिखे . सबको यथोचित सम्मान भी दिया जा सके , यह भी ध्यान रखा गया है.
जवाब देंहटाएंबधाई
आपका
डॉ. विजय तिवारी " किसलय " जबलपूर, म. प्र.
जवाब देंहटाएं@ कुश भाई..
इस ठाँडी में भी दिखा दिया न,भाईगिरी ? अमाँ मुझे कहाँ फ़ँसा रैया है ?
यह पढ़्ते ही मेरा चेहरा भी ज्ञानदत्त जी के सेल्फ़-पोट्रेट जईसा होरिया है ! बोले तो :-(
"तेली को लाट किसलिये ?: शास्त्रीजी पोस्ट लिख सकें इसलिये"
जवाब देंहटाएंहा, हा! इस बार हम ने अनुमान लगा लिया था कि आपका एक-लाईना क्या होगा.
उत्तर की ठिठुरती ठंड में इतने गर्मजोशी से चर्चा चलाने के लिये आभार!!
कार्टून बहुत अच्छे रहे.
सस्नेह -- शास्त्री
पल्लवी जी पहले लिखती हैं फिर कहती हीं तब सोचती हैं , , मैं तो सुना और पढ़ा भी था और बताया भी गया था कि पहले सोचो फिर कहो तब लिख कर रखलो ' ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे '|कहने बताने वाले सभी शुरू में ही इक्कठे हो गये तो बाद में एक लाईना ही बचेगा || फिर भी धन्यवाद कि.......चलिए पाँचो नमाज़ तो ही होगई और शायद इसी लिए
जवाब देंहटाएंलगता है
चिट्ठा : ' चर्चा ' औ ' जगत ' दोऊ बड़े , पाठक पड़ा दुविधा मा के पै जाय ,
धन्न-धन्न चिट्ठा चर्चा गुरु , मोर परान बचायो 'विपर दुई केर कल्पना बताय||
लाजवाब .......एक लाइनें रोचक लगी।
जवाब देंहटाएंसुंदर चर्चा,
जवाब देंहटाएंकितनी भी ठण्ड हो ब्लॉग की गरमी उँगलियों में जान डाल ही देती है और ख़ुद ब ख़ुद के बोर्ड पर चलने लगती है.
बधाई स्वीकारें.
रजनीश के झा
http://rajneeshkjha.blogspot.com/
'' गोस्वामी जी '' आप का काम तो होगया ,आपका " वो ssss .वाला आदमी इस सुदामा को दे दें'' , निश्चिंत रहें कृतघ्न नही हूँ , आभार प्रकट करने के लिए लिस्ट में [ही....लि..] दूसरा नाम आप का हीरखूँगा ||
जवाब देंहटाएंबहुत खूब..... अजी चर्चा जितनी मस्त , एकलाईना उतनी ही जबरदस्त रही.
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक चर्चा रही साहब. इसी तरह होना चाहिए, जिसमें सार समाहित हो. हिन्दी चिट्ठामंडल मंच पाइन्दाबाद.
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