शायर भाइयों की माने तो दोस्त बहुत खतरनाक होते हैं. शायर भाइयों ने अपने शेर में हमेशा यही लिखा है कि उनके दोस्त उनकी पीठ में जब-तब छूरा-वूरा घुसा देते हैं. मतलब यह कि दोस्त चाहे जो हो, पुलिस हो या चोर, हमेशा दगा ही देता है. आप किसी भी शायर का लिखा हुआ पढ़ लें, दोस्तों द्बारा पीठ में खंजर वगैरह घुसेड़ने के ऊपर हर शायर ने कम से कम दस शेर तो पक्के तौर पर लिखे होंगे.
वहीँ दूसरी तरफ़ जानकार टाइप लोग भेद खोलते हुए कहते हैं; "पुलिस वालों की दोस्ती और दुश्मनी, दोनों बुरी." मतलब यह कि बाकी के प्रोफेशन वालों से डरो या न डरो, लेकिन पुलिस वालों से ज़रूर डरो. इन जानकारों की मानें तो ब्लॉगर तक से उतना डरने की ज़रूरत नहीं जितना पुलिस वालों से है.
लेकिन शायद व्यंगकार को इन जानकार टाइप लोगों पर भरोसा नहीं है. इसीलिए वो पुलिस वालों से दोस्ती कर बैठता है. लेकिन इस दोस्ती के क्या नतीजे हो सकते हैं?
ये बात आज अलोक जी ने अपनी पोस्ट में बताई है. अलोक जी लिखते हैं;
पुराना मित्र है यू पी पुलिस में, कल आकर कहने लगा-अबे प्लीज, गुंडे के तौर पर तुझे वालात में बंद करना चाहता हूं, हो जा,कसम दोस्ती की।
दोस्ती की कसम दिलाकर लोग हवालात में बंद करने पर उतारू हैं! कसम से, ऐसा पहली बार सुना.
अपनी पोस्ट में आलोक जी बता रहे हैं कि किस तरह से टारगेट-पूर्ति के लिए पुलिस वाले दोस्तों तक को हवालात में बंद होने के लिए राजी कर रहे हैं. आलोक जी आगे लिखते हैं;
अब तक टारगेट साबुन बेचने वालों को मिलते थे, अब पुलिस थाने वालों को भी टारगेट
मिलने लगे हैं। इस हफ्ते सौ, अगले हफ्ते दो सौ। पुलिस कारपोरेट हो रही है।
पुलिस कारपोरेट हो रही है! बताईये, लोग घपला वगैरह करने के लिए कारपोरेट-गति को प्राप्त करते हैं. लेकिन अब पुलिस कारपोरेट हो रही है. अपने किए गए घपलों से सतुष्ट नहीं होगी.
पुलिस की इस कारपोरेटता की वजह से कैसे-कैसे सीन दिखाई पड़ सकते हैं?
आलोक जी तमाम सीन दिखाते हैं. एक नमूना देखिये;
एक ही बंदा कई थानों के टारगेट पूरे करवा रहा है। रिपोर्ट यह बनेगी, रात में कमलानगर थाने में जेबकटी के बाद मुजरिम ने थाना छत्ता का रुख किया और वहां राहजनी की वारदात को अंजाम दिया फिर वहां से मुजरिम आगरा कैंट चला गया, और वहां जाकर वारदात की। इस तरह से एक मुजरिम ने तीन थानों का टारगेट पूरा कर दिया।
अलोक जी की पोस्ट को लेकर तमाम लोगों ने शंका व्यक्त की. कई लोगों को ये लगा कि मामला कुछ और ही है. मतलब यह कि आलोक जी को थानेदार किसी और 'जुरम' में हवालात में बन करना चाहता था लेकिन आलोक जी टारगेट वाला रीजन देकर मामले को घुमा रहे हैं.
समीर भाई ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
मन्ने तो लागे है कि कोई लफड़ा हो लिया है और आप बदनामी बचाने के लिए यह लेख लिख मारे हो ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे.
सनद के तौर पर ब्लॉग पोस्ट से बढ़िया क्या हो सकता है? ब्लॉग पोस्ट वक्त पर काम आएगी. आख़िर हर ब्लॉग पोस्ट में वक्त लिखा रहता है. तारीख के साथ-साथ समय भी.
अलोक जी के अनुसार पुलिस द्वारा टारगेट-पूर्ति के लिए किए जा रहे प्रयास समस्या के रूप में सामने आयेंगे. लेकिन हमें चिंता करने की ज़रूरत है नाही. कारण?
कारण यह है कि हमें समस्या को समूल नष्ट करने का औजार मिल गया है. जी हाँ, अजित भाई ने आज मट्ठा शब्द के सफर के बारे में लिखा है. वे लिखते हैं;
मट्ठा यूं तो दही से बना स्वादिष्ट पेय होता है पर यह इतना प्रभावी है कि किसी
वनस्पति की जड़ों में इसे पानी की जगह डाला जाए तो वह समूल नष्ट हो जाती है।
मट्ठा दही से बनता है. दही मंथन से तैयार किया जाता है. वैसे समूल से नष्ट करने की बात पर पता नहीं क्यों मुझे अमुल की याद आ गई. पता नहीं अमुल वाले मट्ठा बनाते हैं या नहीं. वे दही बनाते हैं. मक्खन बनाते हैं. मैंने अभी तक उनका बनया हुआ मट्ठा नहीं देखा. शायद नहीं बनाते.
शायद इसलिए नहीं बनाते कि अगर वे मट्ठा बनाते और उसका नाम अमुल रख देते तो उसकी बिक्री होती ही नहीं. कैसे होती? जिस प्रोडक्ट की पहचान 'समूल' के साथ जुड़ी हो, उसका नाम अगर अमुल रहेगा तो कौन खरीदेगा?
वैसे तो मट्ठा एक तरल पदार्थ होता है लेकिन अपनी पोस्ट में अजित भाई मट्ठा के धातु की बात करते हुए लिखते हैं;
मट्ठा बना है संस्कृत की मथ् या मन्थ धातु से जिसमें आघात करना, हिलाना, घुमाना,
रगड़ना, मिश्रण करना जैसे अर्थ हैं। संस्कृत का मन्थनः या हिन्दी का मन्थन/मंथन शब्द इससे ही बना जिसमें यही सारे भाव समाहित हैं। मन्थ् से बने मन्थर शब्द का अर्थ
होता है धीमा, मन्द, विलंबित, टेढ़ा, वक्र, जड़, मूर्ख आदि। कैकेयी की कुब्जा का नाम कूबड़ की वजह से ही पड़ा था। उसका दूसरा नाम था मन्थरा जो इसमें शामिल वक्रता या टेढ़ेपन के भाव के चलते ही उसे मिला होगा।
मट्ठा शब्द के बारे में पढ़कर आपको ज़रूर लगेगा कि शब्दों का सफर भी अद्भुत होता है. अब मंथ को ही ले लीजिये. कहाँ-कहाँ से गुजरते हुए कहाँ तक जा पहुँचा है. बीच में न जाने किन-किन को अपने साथ लपेट लिया है.
इतने अद्भुत सफर के बावजूद शब्दों को न दिन में चैन और न रात में आराम. पता नहीं कितनी दूरी और तय करनी होती है.
मंथ शब्द के बारे में अजित जी आगे लिखते हैं;
मन्थ् का एक अन्य अर्थ है क्षुब्ध करना। अगर दही बिलोने की प्रक्रिया देखें तो मथानी की उमड़-घुमड़ से तरल में जिस तरह का झाग उत्पन्न होता है, जैसी ध्वनि पैदा होती है उससे क्षुब्ध करने का भाव भी स्पष्ट हो रहा है। मन्थन का अर्थ हिन्दी में आम तौर पर विचार-विमर्श होता है। भाव वही है कि किसी मुद्दे पर समग्रता के साथ विचार-विमर्श करना ताकि निष्कर्ष रूपी रत्न प्राप्त हो सकें।
आज समझ में आया कि अपने ब्लॉग जगत में ही न जाने कितने विमर्शों के पीछे ये मंथ यानी मट्ठा ही है. कई विमर्श वास्तव में लोगों को क्षुब्ध कर देते हैं. लेकिन एक बात और है. ब्लॉग जगत में शायद बहस, विचार-विमर्श वगैरह चलाकर उसकी जड़ में मट्ठा डाल दिया जाता है. नतीजा ये होता है कि सारे विमर्श समूल नष्ट हो जाते हैं. और हम दूसरे विमर्श की खोज में निकल पड़ते हैं.
खैर, अजित जी की इस पोस्ट से समीर भाई को जो ज्ञान प्राप्त हुआ उसके लिए उन्होंने अजित जी की जय-जयकार की. उनकी जय-जयकार सुनकर लगा जैसे उन्होंने ज्ञान के बदले गुरुदक्षिणा में जय-जयकार देने की थान ली थी. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;
दही बिलोने से घी मिलता है। इसी तरह वैचारिक मन्थन से सत्य की प्राप्ति होती है।
--जय हो स्वामी अजित जी की. ज्ञान प्राप्त कर लिया.
एक ब्लॉगर को क्या चाहिए? टिप्पणियां?
शायद केवल टिप्पणियों से काम नहीं चलता. उसे सबकुछ चाहिए. टिप्पणियां आयें. टिप्पणियां उसके पोस्ट के समर्थन में हों. उसके लिखे को अद्भुत बताया जाय.
आज प्रताप जी ने यही लिखा है. उनके लिखने का मतलब यह कि अपने ख़िलाफ़ टिप्पणियां पाकर ब्लॉगर बिदक जाता है. प्रताप जी लिखते हैं;
मैं अपने ब्लॉग पर दुनिया भर के लोंगो पर ऊँगली उठाता हूँ ..मैं राय कायम करता
हूँ ...घटनाओं के बारे में ...लोगों के बारे ...लोगों के विचारों के बारे में ...लोगों के फैसलों के बारे में । जो मुझे नही पसंद आता मैं सबका प्रतिकार करता हूँ अपनी लेखनी से और सदा यही चाहता हूँ कि मैं जो कुछ भी सोचूँ ...जो कुछ भी कहूं...जो कुछ भी लिखूं .... मुझे पढने वाले हमेशा उससे सहमत हों...उसे सराहें...हमेशा मेरे सुर में सुर मिलाएं ।
सच लिखा है उन्होंने. हममें से ज्यादातर की हालत यही है. प्रताप जी की पोस्ट पर समीर भाई ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
अरे, आप तो सच्चे और कठोर ब्लॉगर निकले. हम तो यूँ ही हल्के में ले रहे थे. अभिनन्दन साहेब!! अब से संभल कर आयेंगे आपके सामने..तारे जमीं पर..टाईप. :)
समीर भाई को अगर संभलने की ज़रूरत पड़ जाए तो समझिये कि मामला गंभीर है. और दूसरी बात ये कि समीर भाई को अधिकार है कि वे ब्लॉग हलके के किसी भी सदस्य को 'हल्के' में ले सकते हैं. मेरा मानना है कि समीर भाई जितने 'विशाल' हैं, अगर वे किसी को हल्के में नहीं लेंगे तो और कौन लेगा....:-)
वैसे इस पोस्ट के बहाने ही सही, अपने ब्लॉगर-गुणों पर एक बार हमें मंथन करने की ज़रूरत है. मट्ठा डालकर हाथ झाड़ लेने से काम नहीं चलेगा.
चुनाव नज़दीक हैं. ऐसे में नेता और जनता, के पल्टी मारने का समय नज़दीक आता जा रहा है. लेकिन आज हमारे ज्ञान भइया गंगा के पल्टी मारने की बात लिख रहे हैं. उनके शहर इलाहाबाद में गंगा मैया ने पलती मार दिया है.
वे लिखते हैं;
अब गंगा विरल धारा के साथ मेरे घर के पास के शिवकुटी के घाट से पल्टी मार गई हैं
फाफामऊ की तरफ। लिहाजा इस किनारे पर आधा किलोमीटर चौड़ा रेतीला कछार बन गया है। यह अभी और बढ़ेगा। गंगा आरती लोग अब गंगा किनारे जा कर नहीं, शिवकुटी के कोटितीर्थ मन्दिर के किनारे से कर रहे हैं।
गंगा की आरती मन्दिर के किनारे से हो रही है. गंगा जी स्लिम हो गई हैं. वे आगे लिखते हैं;
फिर भी इलाहाबाद से वाराणसी दक्षिण तट से पैदल होते हुये उत्तर तट पर बाबा विश्वनाथ
के दर्शन कर लौटने का सपना है। शायद कभी पूरा हो पाये!
उनके इस पदयात्रा के सपने में कई ब्लॉगर बन्धुवों ने अपने सपनों को जोड़ लिया है. अनूप जी की माने तो उनका सपना तो और विकट था. वे तो गंगोत्री से गंगासागर तक पैदल नापने की सोच रहे थे. लेकिन फिलहाल वे इलाहबाद से बनारस तक की यात्रा पर राजी हो गए हैं. अपनी टिप्पणी में वे लिखते हैं;
अईला! हम तो गंगोत्री से गंगासागर पैदल नापने की सोचे बैठे हैं। चलिये इस गर्मी में
चला जाये इलाहाबाद से वाराणसी!
उनके इस आह्वान पर तमाम लोग राजी हो गए हैं. मतलब ये कि अब के बरस गरमी में पदयात्रा पर न जाने कितनी पोस्ट पढने को मिलें. भाग एक से भाग...... तब तक पढ़ते रहे जबतक आप ख़ुद भागने के लिए तैयार न हो जाएँ.
संगीता पुरी जी ने बताया कि किस तरह से गत्यात्मक ज्योतिष ने पाठकों का विश्वास जीत लिया है. उन्हें ब्लॉगर बन्धुवों ने बधाई दी. हमारी तरफ़ भी संगीता जी को बधाई. यही कामना है कि गत्यात्मक ज्योतिष देश और समाज के भले के लिए प्रयासरत रहे.
ज्योतिष की शायद इसी बात से प्रभावित होकर अपने आदित्य ने आज अपनी जन्म कुंडली सबके साथ शेयर की.
उसकी जन्म कुंडली पढ़कर आप जान सकते हैं कि आदित्य के केस में शनि, बुध, शुक्र वगैरह कहाँ-कहाँ कौन से भाव में हैं. किसका क्या भाव है. पढ़कर हमें पता चला कि आदित्य का प्रवासी योग बना है क्योंकि;
"शनि छटेश सप्तमेश व्यय भाव में केतू के साथ है......"
प्रवासी योग की बात पर हमें याद आया कि आदित्य के ब्लॉग पर सबसे ज्यादा टिप्पणियां अपने समीर भाई ने की हैं. ऐसे में कहा जा सकता है कि प्रवासी योग में केवल शनि वगैरह का हाथ नहीं है. कोई इस बात आगे न बढाए, शायद इसीलिए शायद आज समीर भाई ने आदित्य की पोस्ट पर अभी तक टिप्पणी नहीं की.
वैसे प्रशांत ने आदित्य को सलाह दी कि जन्म कुंडली वगैरह के चक्कर में पड़ने की ज़रूरत नहीं है. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;
ना बिटवा.. अपना जनमपत्री खुद बनाना.. इससे भी बढ़िया..(मेरे जन्मपत्री में जो भी लिखा था उसमे कुछ भी सही नहीं निकला.. :D)
चलिए अब कविताओं की तरफ़ रुख करते हैं.
इंदिरा अग्रवाल जी की कविता पढिये. वे लिखती हैं;
जब भी तुम
उंगली उठाकर
लगाते हो दोष
मुझ पर
तुम्हारी
मुड़ी हुई उंगलियां
करती हैं इशारा
तुम्हारी ओर
कि.... तीन गुना
कलुष भरा है
तुम्हारे अंदर
मुझसे ज्यादा॥
डॉक्टर महेंद्र भटनागर की कविता पढिये. वे लिखते हैं;
घबराए
डरे-सताए
मोहल्लों में / नगरों में / देशों में
यदि -
सब्र और सुकून कीबहती
सौम्य-धारा चाहिए,
आदमी-आदमी के बीच पनपता
यदि -
प्रेम-बंध गहरा भाईचारा चाहिए
........
आज के लिए इतना ही. अगले वृहस्तिवार को फिर से मिलेंगे. पहले भी मिल सकते हैं. कोई बाटा के जूता का दाम थोड़े न है कि पंचानवे पैसा लगा ही रहेगा. न उससे कम न ज्यादा.
पहिले ही मिलेंगे.
आज की धिंचक चर्चा एकदम झिक झिक्का फ्रेश चर्चा थी|
जवाब देंहटाएंडॉक्टर महेंद्र भटनागर की कविता शायद पूरे ब्लॉगजगत के लिये है, शायद!
जवाब देंहटाएंजिस तरह से आपने इन चिट्ठाकारों की रचनाओं की समीक्षा की और हमे जानकारी दी .....वो बहुत अच्छा लगा .....चर्चा बेहतरीन रही
जवाब देंहटाएंअनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
काफ़ी विस्तार मे चर्चा की है । थोडी लम्बी हो गई है पर पढने मे अच्छी लगी ।
जवाब देंहटाएंयह तो सरासर जूता कम्पनियों के साथ अन्याय हुआ है ( बाटा को छोडकर ) :)
जवाब देंहटाएंवैसे चर्चा की बात करें तो वाकई बमचक चर्चा है यह !
रोचक चर्चा.. मजा आया..
जवाब देंहटाएंआदित्य को शामिल करने के लिये आभार..
रंजन
BAHUT BADHIYA..... MAJA AAYA
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक चर्चा .
जवाब देंहटाएंरामराम.
जवाब देंहटाएंई कोनो चर्चा है ?
शुरु होते ही, दोस्त और दोस्ती पर प्रश्नचिन्ह ...?
हे गिरधारी, हे बृजबिहारी, जरा अपने अर्जुनवा के सूचित तो करो ।
अउर अब हमहूँ टिप्पणी काहे देई भाई ?
जाओ, आज जाकर अपने दुश्मनों से लेयो !
कतई मट्ठी, मिट्ठी, बमचक चर्चा रही.. हम भी सोचते हैं एक ठो कुंडली बनवा ही लें.. आज तलक कंप्यूटर जी द्वारा बनाई से काम चला रहे हैं..
जवाब देंहटाएं@कोई बाटा के जूता का दाम थोड़े न है कि पंचानवे पैसा लगा ही रहेगा. न उससे कम न ज्यादा.
एकदम सही कहा.. बस कूटन(Couton's) की तरह 50%+49% का डिस्काउंट न देने लगिएगा ..
@ हे गिरधारी, हे बृजबिहारी, जरा अपने अर्जुनवा के सूचित तो करो
जवाब देंहटाएंई वाक्य त प्रमोद जी लिखते हैं. आज ई वाला वाक्य डॉक्टर साहेब के पास से बरामद हुआ. अईसे ही थोड़े न कहा गया है कि भाषा त बहते पानी के समान होत है. मतलब आज हियाँ त कल हुआँ.....:-)
अऊर हम दोस्त और दोस्ती (माने बोंधु आर बोंधुत्व) पर कौनो प्रश्नचिन्ह नहीं लगाये हैं. हम त उन शायर लोगन का बात किए हैं जे सब प्रश्नचिन्ह लगता है.....:-)
एक ही दिन में दो -दो चर्चाये ? काहे मिश्रा जी ?
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया संक्षिप्त में
जवाब देंहटाएंकहते है की जड़े फ़ैल रही है फैली है तो उन्हें नष्ट करने के लिए उनकी जड़ो में मठ्ठा डाल दो बराबर होई जाएगा .
जवाब देंहटाएंआज पूरा दिन दस चिट्ठो में समाचार ,छह चिट्ठो में पहेली ,9 चिट्ठो में गीत ,ओर एक में सविता भाभी .उनका जिक्र नही किया .
जवाब देंहटाएंमेरा मानना है कि समीर भाई जितने 'विशाल' हैं, अगर वे किसी को हल्के में नहीं लेंगे तो और कौन लेगा....:-)
जवाब देंहटाएं-’विशाल’ = ’विशालकाय’
कृप्या भक्तगण सुधार कर पढ़ें. :)
-वाकई बमचक चर्चा है. बधाई हो बधाई.
वाहवा........ क्या बात है........... इधर आकर तबियत झक्कास हो गई..........
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएं@ शिवभाई
नहीं, ऎसी बात नहीं है । हमारे षड़यंत्र वाले ब्लाग पर पर एगो अमिता जी का नाम देखे होंगे । दिन भर में थाउज़ैन्ड टाइम्स वह बृजबिहारी को गोहराती रहती है, सो यहाँ उनके ही मुखारविन्द से कापी पेस्ट किये हैं ।
यहाँ हवा उड़ी थी, अज़दक पर पहुँच गये... तो समझो चले ही गये,
मों सम ज़ाहिल को कहाँ अज़दक को काम ? :)
कभी कभार तो आपही पढ़ने से छूट जाते हैं !
वैसे भी श्री बाँकेलाल द्वापर में ही अपने रथ पर अर्ज़ुन समेत " यह दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे.." गाते हुये देखे जा चुके हैं । सो, उनको सूचित तो करना है न ? आपभी अपने महाभारतीय डायरी में संशोधन कर लें !