लेखा तो लिख डाला लेकिन जोखा का काम ब्लॉगर बन्धुवों के ऊपर डाल दिया. ब्लॉगर बन्धुवों को भी जो लगा, उन्होंने अपनी-अपनी टिप्पणियों में जोख डाला.
साल २००९ का पहला दिन है. और देखिये कि पहला दिन ही वृहस्पतिवार निकला. मतलब ये कि साल २००९ की पहली चिट्ठाचर्चा का काम मेरे जिम्मे. हम तो धन्य हुए. कभी हिन्दी ब्लागिंग का इतिहास लिखा जायेगा तो इतिहासकार से चिरौरी करके ये बात मोटे अक्षरों में लिखवा लूँगा कि साल २००९ की पहली चिट्ठाचर्चा मैंने की थी.
भले ही लिखा गया इतिहास 'अजायबघर' में रखने के काम आए.
चलिए नए साल की पहली चिट्ठाचर्चा शुरू करते हैं.
नए साल का आना, पुराने साल का जाना, होली, दिवाली, विजयादशमी, क्रिसमस, ईद जैसे शुभ अवसरों पर हमारा देश ब्लॉग-प्रधान देश से बदलकर एसएमएस-प्रधान देश हो जाता है.
जीवन में बढ़ती एसएमएस प्रधानता पर विनीत कुमार जी की ये पोस्ट बांचिये.
एसएमएस लेन-देन के मामले पर विनीत जी लिखते हैं;
"जिस एसएमएस को आपकी गर्लफ्रैंड ने भेजा है, थोड़ी देर बाद उसी को आपका दोस्त भेज
देता है. एक-दो बार तो जीजू या मामू लोग भी वही मैसेज भेज देते हैं."
सही बात है. एक ही एसएमएस अगर गर्लफ्रेंड और जीजू भेज दें तो दिक्कत तो होनी ही है. आख़िर दोनों की फीलिंग्स में कुछ तो अलग रहना चाहिए.
विनीत का मानना है कि एसएमएस के इस चलन ने 'सेंटीपन' को 'बाजारू' बना दिया गया है. विनीत लिखते हैं;
"वही बाजारु सेंटी सा मैसेज या फिर हिन्दी पढ़नेवालों की भाषा में कहूं तो छायावादी टाइप की उपमानों से लदी-फदी भाषा में एसएमएस."
इन संदेशों में इस्तेमाल की गई भाषा के बारे में वे लिखते हैं;
"ऐसी हिन्दी पढ़ने की आदत छूट सी गई. चैनल में गलती से भी कोई ऐसी हिन्दी लिख देता
तो बॉस चिल्लाने लगते- कहां से ये खर-पतवार आ गए हैं, अरे भइया पढ़नेवाली हिन्दी
लिखो. इसलिए नए साल के मौके पर जब ऐसे एसएमएसों की बाढ़ आती है तो कुछ-कुछ ऐसा लगता है जैसे सालभर से लाला की दुकान में धूल खा रहे रंग के डिब्बों या फिर बची-खुची राखियों की खपत होली और रक्षाबंन के दिन हो रही है."
विनीत ऐसे संदेशों की तुलना उन साड़ियों से करते हैं, जिन्हें रईस टाइप लोग लेन-देन के लिए खरीदते हैं. विनीत लिखते हैं;
"मुझे याद है जब भी मैं घर जाता हूं और पापा या भैय्या के साथ दूकान पर बैठता हूं
तो शहर के रईस समझे जानेवाले लोग कहते हैं, बीस साड़ी. भैय्या पूछते हैं क्या रेंज
होगा. उनका सीधा-सा जबाब होता है, बस देने-लेने के काम के लिए चाहिए."
साड़ियों से ऐसे संदेशों के अपने तुलनात्मक दृष्टिकोण को आगे आगे बढ़ाते हुए विनीत लिखते हैं;
"एक बार मेरी मां को बहुत ही नजदीक की रिश्तेदार ने ऐसी ही साड़ी दी. पापा देखकर
झल्ला गए, उनकी बहन ऐसा भी कर सकती है. मां से कहा, रीता ने तुम्हें लेने-देनेवाली
साड़ी दे दी है, इसे मत पहनो, उसकी बेटी की शादी होगी तो यही साड़ी दे देंगे. मां भावुक किस्म की इंसान है, तुरंत सेंटी हो जाती है. उसने साफ कहा-भौजी ऐसा नहीं कर सकती है, इतना शौख से मेरे लिए खरीदी होगी, नहीं पहनेंगे तो बुरा लगेगा. मां ने वो साड़ी पहनने के लिए निकाल ली."
माँ के सेंटी होने की आदत को वे अपनी आदत से तुलना करते हैं. उन्होंने लिखा;
"औऱ मैं भी मां की तरह सेंटी होकर उसे पढ़ता हूं लेकिन क्या मैं उसकी तरह
इम्मैच्योर हूं कि ये जानते हुए भी कि इनलोगों ने मेरे लिए लेने-देनेवाले शब्दों का
इस्तेमाल किया है औऱ वो भी इसतर्क के साथ कि कल नेटवर्क जैम होगा, एसएमएस के दाम अधिक होंगे, उनसे बात करना कम कर दूं. नहीं, मैं चाहकर भी मां जैसा कुछ नहीं कर
सकता."
अपनी माँ द्बारा किसी की दी हुई साड़ी को 'सेंटी' होकर पहनना, विनीत को इम्मैच्योर लगता है.
खैर, उनकी इस पोस्ट पर एसएमएस के बारे में लिखी गई बातों को सुशील कुमार छौक्कर जी ने बहुत बड़ा सच बताया. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"यह बहुत बड़ा सच हैं जो आपने कह दिया हैं."
जहाँ सुशील कुमार जी ने इसे बहुत बड़ा सच बताया वहीँ वेद रत्न शुक्ल जी को विनीत जी की माताजी द्बारा उनकी बुआ को भौजी कहकर संबोधित करना कन्फ्यूज कर गया. उन्होंने अपनी टिप्पणी में विनीत जी से सवाल किया;
"आपकी माँ ने आपकी बुआ को भौजी क्यों कहा?"
शुक्ल जी के इस सवाल का जवाब अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है.
शुक्ल जी के सवाल का जवाब तो प्रकाशित नहीं हुआ लेकिन नारी ब्लॉग की साल २००९ की पहली पोस्ट प्रकाशित हो गई है.
रचना जी ने इस ब्लॉग की साल २००९ की पहली पोस्ट को नै पीढ़ी को समर्पित किया है. नारी ब्लॉग की तरफ़ से उन्होंने अपने पाठकों को २००९ की बधाई देते हुए बताया;
"नारी ब्लॉग अपने सभी पाठको को २००९ की बधाई देता हैं. २००९ मे भी हमारा प्रयास
रहेगा की हम सामाजिक व्यवस्था मे नारी के लिये समान अधिकार की बात को जारी रखे और आप का परिचय उन नारियों से करवाते रहे जिन्होने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की हैं."
हिन्दी ब्लॉग जगत में इस ब्लॉग के बारे में बताते हुए रचना जी ने लिखा;
"हम निरंतर प्रयास करते रहेगे की इस छोटी सी इन्टरनेट की दुनिया मे नारी के प्रति
शब्दों मे कहीं भी को अभद्रता ना हो."
नारी उत्थान के लिए किए गए कार्यों में सीमित ही सही लेकिन इस ब्लॉग का महत्वपूर्ण योगदान है. कम से कम हिन्दी ब्लॉग जगत इस बात से परिचित है.
रचना जी लिखती हैं;
"व्यक्तिगत लड़ाई और व्यक्तिगत क्षमा से ऊपर उठ कर सामाजिक कुरीतियों और सामाजिक उत्थान का समय हैं और ये ब्लॉग केवल एक छोटी सी कोशिश हैं इस उत्थान मे अपना सहयोग देने की."
सामाजिक ढाँचे में अभी नारी समझौता करते आई है. रचना जी इस बात को अपने शब्दों में बखूबी लिखा है. वे लिखती हैं;
"समझोते से जिन्दगी कटती हैं जी नहीं जाती. अपने अपने घरो मे बस एक बार अपने घरो की महिलाओ से पूछ कर देखे " क्या वो जिन्दगी जी रही हैं या काट रही हैं " और आप को जो जवाब मिले उसको पूरी इमानदारी और सचाई से यहाँ बांटे. आप की माँ का जवाब आप की सोच को सही दिशा दे सकता हैं बस कुछ मिनट माँ के साथ इस प्रश्न को पूछने मे लगाए."
अनुजा जी ने इस पोस्ट को उत्साहित करने वाला बताया. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"निश्चित ही यह पोस्ट और पहल उत्साहित करने वाली है. बधाईयां."
कुश जी को ये पोस्ट सकारात्मक और प्रेरणादायक लगी. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"नये साल की पहली ही पोस्ट सकारात्मक और प्रेरणादायक रही.. आशा है नया साल पुरानी कुरितियो के बंधन से मुक्त होकर स्वच्छन्द रूप से उभर कर सामने आए.. "
हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि साल २००९ में ये ब्लॉग अपनी सार्थकता सिद्ध करता रहेगा.
आज रवीश कुमार जी ने पटना के प्रसिद्द कार्टूनिस्ट पवन के बारे में लिखा है. रवीश कुमार जी पवन को बिहार का आर के लक्ष्मण बताते हैं.
पवन के बारे में रवीश लिखते हैं;
"पटना गया था। जिससे मिलता वही हिंदुस्तान के कार्टूनिस्ट पवन की चर्चा करता. पवन
ने ये लिख दिया है. पवन ने वो लिख दिया है. पवनवा के पढ़े के नहीं."
पवन की कार्टून प्रदर्शनी की चर्चा टीवी और तमाम मीडिया में पहले भी हो चुकी है. पवन बहुत प्रतिभाशाली कार्टूनिस्ट हैं. उनकी भाषा के बारे में रवीश लिखते हैं;
"बिहार की बोलियों के मिश्रण से तैयार पवन की भाषा बेजोड़ है। भाषा बनने के बाद दुनिया में पैदा हुए व्याकरणविदों को शायद ही पवन का लैंग्वेजवा पसंद आए मगर जब
व्याकरण का दरवाजा टूटता है तभी भाषा जीवंत होती है."
सच है. अभी दो दिन पहले ही (और शायद हमेशा ही) भाषा को लेकर बहस चलती ही रहती है. चलनी ही चाहिए. आख़िर भाषा तो केवल मूर्खों के हाथों में 'सुरक्षित' रहती है. और कोई समाज नहीं चाहेगा कि भाषा इस तरह से 'सुरक्षित' रहे.
इस तरह से 'सुरक्षित' भाषा की जगह अजायबघर होती है.
यूजीसी के एक फरमान के बारे में बनाये गए पवन के कार्टून की बात करते हुए रवीश लिखते हैं;
"यूजीसी का फरमान आया कि अब पीएचडी करना मुश्किल होगा. तो इस पर पवन व्यंग्य
करते हैं कि बिहारो में हो? मैं कहता हूं बिहार की जगह बिहारो ही लिखना चाहिए. क्योंकि बिहार के लोग बोलते ही ऐसे हैं."
रवीश जी की पवन से मुलाकात नहीं हो सकी. इसका उन्हें पछतावा है. वे लिखते हैं;
"पवन से मिल नहीं सका. इसका अफसोस रहेगा. आवेंगे अगली बार तो भारती प्रकाशन का
हिंदी व्याकरण गंगा जी में फेंक देंगे. कर्ता ने कर्म को. ने को से हे पू. भाग साला."
उनकी इस बात से लगा जैसे अभी भी कितनी सारी बातें हैं जिनपर पत्रकार को भी पछतावा हो सकता है.
रवीश जी द्वारा भारती प्रकाशन के हिन्दी व्याकरण को गंगा जी में फेंक देने की घोषणा पर रवि रतलामी जी ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"हम तो पहले से ही फेंक चुके हैं - काहे कि पहले ही समझ में नहीं आता था साला..."
सही बात है. आख़िर रवि जी रवीश जी से पहले हिन्दी चिट्ठाकार बने थे. बने तो क्या थे, वे तो हिन्दी चिट्ठाकारिता के आदि-पुरूष है. वैसे भी रवि का एक्शटेन्शन रवीश होता है. ऐसे में व्याकरण की किताब गंगा में फेंकने का उनका हक़ पहले बनता है.
अच्छा हुआ आदि-पुरूष लिखा. व्याकरण पर जाता तो शायद आदि-मानव लिख बैठता.
व्याकरण और भाषा की बात से याद आया कि ब्लॉग को चिटठा कहा जाना उचित है या नहीं, इस बात पर बहस चलती रहती है. मेरा मकसद उस बहस को आगे बढ़ाने का जरा भी नहीं है. ऐसे बड़े काम अनुभवी और बड़े लोग करते हैं.
मैं तो केवल ये सोच रहा था कि चिटठा और चिट्ठाकार का कोई कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दे तो क्या होगा?
जी हाँ, प्रशांत ने कल अपनी पोस्ट में इन्हीं दोनों का कच्चा चिट्ठा खोलकर रखा. अपनी पोस्ट में उन्होंने अपने ब्लॉग और तमाम उन ब्लागर्स की चर्चा की जिनसे साल २००८ में उनका संपर्क बना.
उनकी इस पोस्ट में तमाम चिट्ठाकारों के बीच अपना नाम पाकर शिव कुमार मिश्र धन्य हुए. उनकी इस 'धन्यता' में उस वक्त और इजाफा हुआ जब प्रशांत ने शिव कुमार मिश्र को बड़ा ब्लॉगर बताया. प्रशांत ने लिखा;
"कई बार इनसे बातें करने की इच्छा होती थी मगर हर बार संकोच कर जाता था.. सोचता था इतने बड़े ब्लौगर हैं..."
कितने बड़े? इस बात को लेकर अभी भी शिव कुमार मिश्र असमंजस में हैं. यही सोच रहे हैं कि पता नहीं कितने बड़े हैं? 'इतने' बड़े लिखते समय प्रशांत के दोनों हाथ कहाँ होंगे? या फिर प्रशांत ने एक हाथ ही ऊपर किया होगा तो कितना ऊपर किया?
अपनी इस पोस्ट में प्रशांत ने अनीता जी, यूनुस जी, दिनेश राय द्विवेदी जी, अजित वडनेरकर जी, अरुण अरोरा जी, लवली कुमारी जी, अभिषेक ओझा जी, विकास कुमार जी, पूजा उपाध्याय जी, मसिजीवी जी, शास्त्री जी, जी विश्वनाथ जी, अलोक पुराणिक जी के बारे में भी लिखा लेकिन किसी को 'इतना' बड़ा ब्लॉगर नहीं बताया.
उनकी इस बात को पढ़कर शिव कुमार मिश्र ये सोचते रहे कि काश हिन्दी ब्लागिंग के इतिहासकार का नाम अभी पता रहता तो उसे इस पोस्ट कि लिंक ज़रूर भेजते और 'इतने' बड़े ब्लॉगर को बोल्ड करके भेजते. इस घटना के चलते आज उन्होंने लंच में दो रोटी ज्यादा खाने का मन बना लिया है.
प्रशांत की इस इस पोस्ट को पढ़कर अरविन्द मिश्रा जी असमंजस में पड़ गए हैं. उनके अनुसार अपनी अथ चिट्ठाकार चर्चा के लिए उन्होंने इनमें से कई लोगों को सेलेक्ट (दोस्तों से सलाह-मशविरा करने के बाद?) कर रखा है. वे प्रशांत से कहते हैं;
"मेरे चिट्ठाकार चर्चा स्तंभ की तो आपने बिजली ही गुल कर दी ..आपने उन कई शख्सियतों को ले लिया जो मेरे भी सेलेक्शन में हैं -अब उन्हें छोड़ दूँ क्या -आपने इतना अच्छा लिख ही दिया है."
एक लेखक ने दूसरे लेखक के स्तम्भ की बिजली ही गुल कर दी. आज पता चला कि पुराने ज़माने में साहित्यकार ढिबरी और दिया जलाकर क्यों लिखते थे.
नया साल आया. लेकिन ज्यादातर चिट्ठाकारों ने यही लिखा है कि केवल कैलेंडर ही बदला है. बाकी कुछ नहीं. ऐसे में कविताओं की शरण में जाना जरूरी हो गया है. कवि-मन हमेशा सर्जन में विश्वास रखता है. बदलाव में विश्वास रखता है. संभावनाओं में आस्था जताता है.
इस बात पर आज हिमांशु जी ने कविता लिखी है. वे लिखते हैं;
विचारता हूँ
सारी विषमताओं को
गाड़ दूंगा जमीन में,
विश्वास लेकर जी रहा हूँ
नए वर्ष के आगमन पर
कि सारे अंधेरे
सम्पूर्ण दर्प,
आच्छादित कालिमा से विचार
-सब कुछ तिरोहित हो जायेगा।
कविता का समापन करते हुए हिमांशु जी लिखते हैं;
सुशोभित वांगमय संकलित हो
हमारे स्वागत की चेष्टा करेगा,
हम स्वयं में विराट और सुरभित हो सकेंगे
सोच-सोच मधु की तरह घुलता जा रहा हूँ मैं.
उनकी इस कविता की अन्तिम लाइन पी एन सुब्रमनियम जी लिखते तो कुछ अलग लिखते. ऐसा उन्होंने अपनी टिप्पणी में बताया है. अपनी टिप्पणी में उन्होंने लिखा;
"सुंदर रचना. यदि हम होते तो अंतिम पंक्ति यों बनती: :सोच-सोच गुड की तरह गलता जा
रहा हूँ मैं."
कवियों की स्वतंत्रता की नाप लम्बी होती है. कई कोस की. कवि स्वतंत्र रहता है, डूबने को, उतराने को, तैरने को, बैठने को, मशाल जलाने को, अन्याय की मशाल बुझाने को.
यहाँ तक कि घुलने को...और गलने को.
अब देखिये न. जहाँ एक तरफ़ हिमांशु जी मधु की तरह घुलना चाहते हैं वहीँ सुब्रमनियम साहब गुड़ की तरह गलना चाहते हैं....
परिस्थितियां एक ही हैं. लेकिन यही तो कवि की स्वतंत्रता है.
कविता की शरण में आ गए हैं तो नव-वर्ष पर लावण्या जी की लिखी कविता पढ़िए जो उन्होंने दिनकर जी के संस्मरण के साथ लिखी है. लावण्या जी ने अपनी पोस्ट में पब्लिश किया है;
स्वागत नव वर्ष, है अपार हर्ष , है अपार हर्ष !
बीते दुख भरी निशा , प्रात : हो प्रतीत,
जन जन के भग्न ह्र्दय, होँ पुनः पुनीत
स्वागत नव वर्ष, है अपार हर्ष, है अपार हर्ष !
भेद कर तिमिराँचल फैले आलोकवरण,
भावी का स्वप्न जिये, हो धरा सुरभित
स्वागत नव वर्ष, है अपार हर्ष, है अपार हर्ष !
कोटी जन मनोकामना, हो पुनः विस्तिर्ण,
निर्मल मन शीतल हो , प्रेमानँद प्रमुदित
स्वागत नव वर्ष, है अपार हर्ष, है अपार हर्ष !
ज्योति कण फहरा दो, सुख स्वर्णिम बिखरा दो,
है भावना पुनीत, सदा कृपा करेँ ईश
स्वागत नव वर्ष, है अपार हर्ष, है अपार हर्ष !
राकेश खंडेलवाल जी की कविता पढ़िए. उन्होंने नव वर्ष का प्रथम काव्य-सुमन माँ के चरणों में रखा है. वे लिखते हैं;
हंस वाहिनी के इंगित से शब्द संवरते मुक्ता बन करआज के लिए बस इतना ही. अगले वृहस्पतिवार को चर्चाने आता हूँ फिर से. आप सबको नए वर्ष की ढेर सारी शुभकामनाएं.
और परों की छुअन, भावना उनमें सहज पिरो जाती है
कलम उजागर कर देती है श्वेत श्याम अक्षर का अंतर
और नजर शब्दों को आकर प्राण सुरों का दे जाती है
राकेश जी की कविता का उल्लेख जरूरी था इस चर्चा में. उनकी कविता की पूरी सुन्दरता उसकी भाषा-भावगत अभिव्यंजना में है. समेटिये उनके काव्य-पराग को -
जवाब देंहटाएं"शतदल की पाँखुर पाँखुर से, बिखरे हैं सहस्त्र शत अक्षर
और ओसकण के स्पर्शों से सँवर गईं मात्रायें पूरी"
नये वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ इस चिट्ठा-चर्चा के लिये आभार .
आप सभी को नववर्ष की शुभकामनाएँ| नए साल में हम उनको न भूलें जो आतंकवादियों द्वारा मार दिए गए और उनको भी जो कल मारे जाने वाले हैं|
जवाब देंहटाएंनव वर्ष मंगलमय हो!
जवाब देंहटाएंयह इस लिये लिख रहा हूं कि यह बार बार ठेल चुका हूं अनेकानेक पोस्टों पर। और अब लगता है कि कब ये नयी पोस्टें बन्द हों और कब ये एसएमएस। लोगों से फोन पर नया साल कहते और प्रत्यक्ष हाथ मिलाते भी थक गये।
बड़ी ऊर्जा ले लेता है नया साल।
नये साल मे इस मंच से सभी ब्लागर्स को नये साल की घणी रामराम। पहली ही चर्चा लाजवाब रही ! बहुत बधाई और शुभकामनाएं आपको इस चर्चा के लिये ।
जवाब देंहटाएं"हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि साल २००९ में ये ब्लॉग अपनी सार्थकता सिद्ध करता रहेगा."
जवाब देंहटाएंआप नए नारी ब्लॉग की पोस्ट इस मंच विवरण दे कर जो स्नेह इस ब्लॉग को दिया हैं उसके प्रति आभार . स्नेह बनाए रखे हम अपने कर्तव्य मे कमी नहीं आने देगे . और सामजिक उत्थान मे आप सब को सहयोग चाहिये ताकि "नारी " समांतर चले आगे पीछे नहीं .
आप को नया साल शुभ हो .
चर्चा मे २ बेक लिंक निरंतर दिखते हैं
जवाब देंहटाएंइस चर्चा के चर्चे
रामपुरिया का हरयाणवी ताऊनामा ...
Monday, December 29, 2008 at 4:44 AM Posted by ताऊ रामपुरिया. kudarat ka kahar1. रात भर बर्फ़ गिरती रही kudarat ka kahar 2 सुबह जब बाहर झांका तो नजरें अवाक और दिल परेशान ...
चर्चाकारःताऊ रामपुरिया atDecember 29, 2008 5:02 AM
सत्यार्थमित्र: गाली के बहाने ...
कोई ख़ास वज़ह या तकनीक मे समस्या हैं , देबाशीष , ध्यान दे प्लीज़
बीता वर्ष बीत गया,
जवाब देंहटाएंलाभ कम हानि ज्यादा दे गया,
रार तकरार भी बहुत कर गया,
अपराध और अवसाद से जी भर गया,
बस अब बहुत हुआ,
नव वर्ष से खेल अब ये बन्द हुआ,
मिला हाथ से हाथ और दिल से दिल
ज़ज्बात और सरोकारों से हिलमिल
आओ भारत को हम फिर से सजाऎ
सौहार्द औ व्यापार में फिर लाभ कमाँए
विनीत ऐसे संदेशों की तुलना उन साड़ियों से करते हैं, जिन्हें रईस टाइप लोग लेन-देन के लिए खरीदते हैं. विनीत लिखते हैं;
जवाब देंहटाएंblog aapkaa achchaa hai ,lekin kyaa ye part main nahi prakaashit kar sakte...
आदरणीय शिव जी, वर्ष २००९ की चर्चा का नारियल तोड़ने की बधाई। हम भी प्रसाद पाने के लिए लाइन में खड़े हैं। सभी आदरणीय चिठ्ठाकारों को नमन और हार्दिक शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएं...................................................
यह ‘बैक-लिंक’ का चक्कर मुझे भी समझ में नहीं आ रहा है। सत्यार्थमित्र पर भी नीचे अनेक चिठ्ठों का लिंक छप रहा है जिसका कारण/आधार पता नहीं चल पा रहा है।
मजा आ गया ! आभार ! नया वर्ष सुखद हो !
जवाब देंहटाएंकई वाक्य ऐसे हैं चर्चा में जिससे समझ सकते हैं चर्चा शिवबाबू ने की है। एक ये वाला
जवाब देंहटाएंअच्छा हुआ आदि-पुरूष लिखा. व्याकरण पर जाता तो शायद आदि-मानव लिख बैठता
शानदार ऐतिहासिक शुरुआत साल की। कम खाओ लेकिन अच्छा खाओ की तर्ज पर कम ब्लाग की चर्चा करो लेकिन कायदे से करो।
ई ज्ञानजी दो दिन पहले इस बात का हल्ला मचाते दिखे थे कि नयी पीढ़ी जल्दी ऊब जाती है। वे हाथ मिला के एक दिन में ही हाथ मिलाने से ऊब कर क्या यह साबित करने चाहते हैं कि वे नयी पीढी के हैं। :)
सभी ब्लॉगर बन्धुओं को नव वर्ष की शुभ कामनाओं सहित
जवाब देंहटाएंवेद रत्न शुक्ला जी से ,'' कुछ तो इंसानियत बरतो , देख नही रहे बच्चा पहले से ही एस.एम.एस.के दुख से कितना दुखी है | किस दुनिया men हो क्या टीवी सीरियल नही देखते? वहाँ देवरानी-जेठनियाँ एक दूसरेको पारंपरिक संबोधन जिजि , जीजी , या दीदी दिद्दि तथा छोटी से पुकारने के स्थान पर एक दूसरे को 'भाभी 'सम्बोधन दे रही है | अपनी दकियानूसी दुनिया से बाहर आकर जानिए की अब ''बुआ, मौसी ,चाची आदि सभी ko 'आंटी' और उनके 'अर्धांग' ko आंटा' माफ़ करिए ' अंकल ' में जनरलाईज कर दिया गया है | बच्चे की तो केवल कलम यानी कीबोर्ड पर उंगली ही फिसली है , संबोधन का सोंधापन तो है ;अगर 'आंटी ' लिखता तो आप क्या ' प्रश्न सुख [[ चुटकी सुख ]] कहाँ पाते ? शौक को शौख टाईपा उसपे कोई सबाल काहे नाही kiye ? ठंड रख ठंड , देखते नही बच्चा इम्मैच्योर से मैच्योर होंने की कोशिश कर रहा है !!
आशा है रचना जी की पुरानी शिकायत दूर हो गई होगी एक शुद्ध टिपण्णी चर्चा
रचना जी को सलाह देने की धृष्टता का रहा हूँ , आशा है अन्यथा ना लेगी { १.} पहली बात जिस प्रकार पुरुष प्रधान लेखन में स्त्री समाज का सामूहिक उल्लेख आधी दुनिया कर के किया जाता है वैसे ही आप भी पुरुष समाज का उल्लेख आधी दुनिया कह कर करें ; [२]. जब पुरुष पत्नी के लिए अर्धांगिनी लिख सकते है तो स्त्री पति के लिए 'अर्धांग ' क्यों नही लिख सकती ?
याद रखिए अमेरिका ने ईंग्लैंड की गुलामी से मुक्त होते ही भाषा एवं व्यवहार के स्तर पर अँग्रेज़ों की बहुत सी बातों वा परम्पराओं को उलट दिया था | नारी ब्लॉग का उद्देश्य बहुत अच्छा है ,शुभ-कमनाएँ |
पवनवा का ढूँढई कै खातिर पूर पटनवा घुमैन पै उकरे का पाएँन नैखे |और रही व्याकरण की बात तो भाषा पहले से थी 'पाणिनी 'का व्याकरण बाद मे आया |
किसी के बारे में तो नही पर''" चिट्ठा चर्चा " को तो अवश्य ब्लाग ना कह कर '' चिट्ठा "कहा जाना चाहिए , क्यों कि अब इसमें प्यार भरी चिक-चिक { चिट-चिट ] ठक -ठक पर्याप्त-मात्रा में होने लगी है , और यदि दोनो की उत्पत्तिके बारे में अजित वडनेकर जी से जानकार कर संधि करेंगे तो आशा है " चिट्ठा " शब्द ही बनेगा !
उँ हुँ किस बात के बड़े ब्लॉगर उससे पहले मेरी चौपाल पे आशीर्वाद ले के गये सोचो बड़ा कौन ? [ अपन मुँह मियाँ-मिट्ठू बनने मे कुछ लगता थोड़े ही है.]
रतलामी जी फिर '' स' पर आ की मात्रा लगाई यहाँ तक तो ठीक ठाक , लेकिन ' हाय राम रे ' फिर से !!! वो नही लिखा तो पर्यायवाची से काम चलाने के चक्कर में पूरा-पूरा महा-मंत्र ही जप बैठे | ] हम नही सुधरेंगे [
लागत बा अरविन मिसिर आपन बिजुरिया ठीक करै खातिर खंभवा पै चढ़ा रहिन तभै पीडी बचवा आपन पोस्टावे ठेल दिहिन | इनवेर्टर्वा लाई लेव मिसिर | जे पहले मारे वै हिए मीर |
भाए हमे तो हिमांशु जी का मधु और पी एन सुब्रमनियम साहब का गुड़ दोनो चाहिए , अदरक भून के मधु केसाथ खाएँगे और जाड़े के दिन है गुड़ की चाय पिएँगे बड़ी स्वस्दिष्ट बनती है लौंग ,छोटी बड़ी एलायची , दालचीनी ,तुलसी पत्ता ,आदि मिला कर बनाउंगा | भाई मुझे तो मज़ा आ जाएगा | कविताएँ इतीमिनान से पढ़ने की चीज़ है|
यह कमेंट नही कमेंटा है
ईस्वी के २००९ वर्श्ःअ की पहली चर्चा आपको इतिहासपुरुष तो बना ही चु्की।
जवाब देंहटाएंसार्थक समग्र चर्चा।
मेरी टिप्पणी में कृपया ‘वर्ष’ को यों पढ़ें.
जवाब देंहटाएंमत झुलसाना न भरमाना
जवाब देंहटाएंहर घर में खुशियाँ दे आना
आए तो स्वागत नवल वर्ष
अबके आँसू मत दे जाना !
ओ नवल वर्ष ओ धवल वर्ष
शिशु सा आकर्षण ले आना
"रचना जी को सलाह देने की धृष्टता का रहा हूँ , आशा है अन्यथा ना लेगी { १.} पहली बात जिस प्रकार पुरुष प्रधान लेखन में स्त्री समाज का सामूहिक उल्लेख आधी दुनिया कर के किया जाता है वैसे ही आप भी पुरुष समाज का उल्लेख आधी दुनिया कह कर करें ; [२]. जब पुरुष पत्नी के लिए अर्धांगिनी लिख सकते है तो स्त्री पति के लिए 'अर्धांग ' क्यों नही लिख सकती ?याद रखिए अमेरिका ने ईंग्लैंड की गुलामी से मुक्त होते ही भाषा एवं व्यवहार के स्तर पर अँग्रेज़ों की बहुत सी बातों वा परम्पराओं को उलट दिया था | "
जवाब देंहटाएंबिना मांगे किसी की सोच और शैली पर सलाह देना कितना उचित हैं ?? आप ख़ुद सोचे .
दूसरी बाते मे स्त्री को एक इकाई मानती हूँ जो को ख़ुद मे सम्पूर्ण हैं . आप पति -पत्नी के रिश्ते से आगे पुरूष और स्त्री के नए संबंधो को शायद नहीं देखते हैं . जो लोग देखते हैं वो भी केवल "देह्तर "संबधो को ही जानते हैं . समाज मे स्त्री आज बॉस भी हैं , जूनियर भी हैं , सिंगल भी हैं , तलाक शुदा भी हैं . सो उसको पुरूष से अलग करके भी देखे . बाकी आप जो चाहे वो देखे या समझे अपर सलाह मुझे तर्क एके साथ दे और जिस विषय पर मै लिख रही हूँ वहाँ दे "
and after this
"जिस प्रकार पुरुष प्रधान लेखन में स्त्री समाज का सामूहिक उल्लेख आधी दुनिया कर के किया जाता है वैसे ही आप भी "
अभी दो दिन पहले जिस टिपण्णी को लेकर मेने चर्चा पर आपति उठाई थी उसमे कहा गया था की
" लगता है महिलाएं भी पुरुषों का मुकाबिला गाली-गलौच में भी करना चाहती हैं! करें, जरूर करें, कौन रोकता है। पुरुषों की तरह सिगरेट पियें [पश्चिम में तो पुरुषों से अधिक महिलाएं ही पीती हैं तो भारत में पीछे क्यों रहें], शराब पियें, आगे बढ़कर अपने लिए एक रेड लाईट एरिया[ चाहें तो रंग बदल लें] खोल लें .... तभी ना, यह कहा जा सकेगा कि स्त्री भी पुरुष से कम नहीं!! "
अब आप कह रहे हैं की "नारी भी पुरुषों की तरह दुनिया का बटवारा आधी दुनिया मे कर दे "
नाहीं साहब ये बटवारा करना आप जैसे पुरुषों का चलाया हुआ अभियान हैं हम तो बराबरी और समानता की बात कर रहे हैं !!!!!!!!!!!!!!!!
उसने साफ कहा-भौजी ऐसा नहीं कर सकती है,
जवाब देंहटाएंइतना शौख से मेरे लिए खरीदी होगी, नहीं पहनेंगे तो बुरा लगेगा।
विनीत की पोस्ट कल ही देख ली थी पर पोस्ट मे कही भी गलती नहीं लगी संबोधन मे . भौजी होकर उनकी माँ ऐसा नहीं करसकती की नन्द की दी हुई साड़ी ना पहने
अब ''ANYONAASTI '' जी टीवी के सीरियल मे सब पुरूष इतने "spineless" क्यूँ होते हैं अगर दिखाए गये सब महिला चरित्र एक दम सच हैं तो सब पुरूष चरित्र भी सच ही माने जायेगे ना .!!!!!!!!!!!
पूरी चर्चा में शिव कुमार मिश्रा जी का स्टाइल चरम पर रहा.. नव वर्ष की पहली चर्चा बरबस ही होंठो पर मुस्कान ले आई.. आशा है ये मुस्कान पूरे साल बनी रहे... अनूप शुक्ल जी से सहमत हू.. शब्द बाय शब्द..
जवाब देंहटाएंचिट्ठाचर्चा को नववर्ष की शुभकामनाएं.
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