वैसे अनूप जी की मानें तो जाड़े की वजह से ब्लागरों की फजीहत सबसे ज्यादा है. उनमें भी जो ब्लॉगर सुब्बे-सुब्बे चिट्ठाचर्चा करते हैं, उनकी फजीहत तो सबसे बड़ी. इसी फजीहत के डर से हम चिट्ठाचर्चा सुब्बो-सुब्बो नहीं करते. आराम से दोपहर तक शुरू करते हैं ताकि फजीहत से कुछ बचाव हो सके.
लेकिन आज अशोक पाण्डेय जी इंसान की फजीहत की बात नहीं कर रहे. वे तो चावल की फजीहत की बात कर रहे हैं. बासमती चावल की फजीहत के बारे में वे लिखते हैं;
"भारत सरकार की नीतियों ने हमारे बासमती चावल (Basmati Rice) का यह हाल कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसके खरीदार नहीं मिल रहे हैं।"
अर्थशास्त्र की समझाईस कौन दे सकता है? अभी पाँच महीने पहले तक पूरे विश्व में चावल की कमी का नगाड़ा बज रहा था. देश का पूरा चावल विदेश न चला जाए, इसके लिए सरकार ने सरकारी कदम उठाये थे. शुल्क-वुल्क बढ़ा दिया था. लेकिन इस शुल्क का असर क्या हुआ?
इसके बारे में पाण्डेय जी बताते हैं;
"निर्यात शुल्क के चलते पाकिस्तानी बासमती के मुकाबले भारतीय बासमती की कीमत 400 डॉलर प्रति टन ज्यादा हो गयी है। इस कारण खरीदार पाकिस्तानी बासमती को तरजीह दे रहे हैं और पिछले कुछ महीनों में भारतीय बासमती चावल को बाजार के एक बड़े हिस्से से हाथ धोना पड़ा.."
हाथ धोने का काम है सब. सरकार द्बारा शुल्क बढ़ाकर सरकारी हाथ धोने का परिणाम यह हुआ कि चावल को ही बाज़ार के एक बड़े हिस्से से हाथ धोना पड़ा.
पाण्डेय जी आगे लिखते हैं;
"करीब 5000 करोड़ रुपए के भारतीय बासमती चावल का खरीदार तलाश रहे इसके निर्यातकों की परेशानी का आलम यह है कि उन्हें 8000 रुपए प्रति टन के शुल्क के अलावा 1200 डॉलर प्रति टन के न्यूनतम निर्यात मूल्य से भी पार पाना पड़ता है।"
इन आंकडों में पॉँच हज़ार करोड़ रुपया पढ़कर अचानक राजू साहब की याद आ गई. उन्होंने भी बताया कि उनकी कंपनी में वो पाँच हज़ार करोड़ रुपया है ही नहीं जिसे लोग समझ रहे थे कि, है. घोर सत्यम.
खैर, पाण्डेय जी के अनुसार पकिस्तान में इस साल बासमती चावल की बम्पर फसल हुई है. हाय-हाय. हे अर्थशास्त्रियों, कहाँ हो? अभी चार-पाँच महीने पहले की बात है जब तुमलोग कहा करते थे कि पकिस्तान में चावल की ऐसी कमी होगी कि पुलाव और बिरियानी केवल करांची के नेशनल म्यूजियम में दिखाई देंगे.
सरकार की नीतियों की वजह से बासमती चावल को लगे इस धक्के को सतीश पंचम जी ने सरकारी आतंकवाद बताया. उन्होंने अपनी टिपण्णी में लिखा;
"अन्य क्षेत्र भी हैं जो सरकारी आतंकवाद झेल रहे हैं क्रषि क्षेत्र भी उसी का उदाहरण है। जानकारी अच्छी लगी।"
अर्थशास्त्रियों की इसी नासमझी की वजह से उनके पेशे को अच्छा नहीं माना जाता. जबसे चावल और साथ-साथ विश्व-अर्थव्यवस्था के बारे में इन्होने ऊट-पटांग कहना शुरू किया, शायद तभी से इनके पेशे को लोग सड़ा हुआ मानने लगे हैं.
ये बात मैं नहीं कह रहा. ये बात तो अभिषेक ओझा जी कह रहे हैं. आज अभिषेक जी ने सबसे अच्छे और सबसे बुरे माने जाने वाले पेशे के बारे में जानकारी दी.
अभिषेक जी ने ये जानकारी वाल स्ट्रीट जर्नल में पढ़ी तो उन्होंने सोचा कि हमसब को बता दें.
उनकी मानें तो ये बताना महज एक बहाना था. उन्हें तो वाया इस बहाने अपने ठूठ होते ब्लॉग पर एक पोस्ट चिपकाना था.
अहा...ये तो कविता टाइप हो गया. लेकिन सच कहें तो ये 'पोएटिक इंजस्टिस' है.
वैसे ये बात भी मैं नहीं कह रहा, अभिषेक जी ने ख़ुद ही बताई है. वे लिखते हैं;
"ये ख़बर पढ़ी तो सोचा कि आप को भी बता दूँ... (इसी बहाने ठूंठ हो रहे इस ब्लॉग के
लिए एक पोस्ट भी मिल गई)"
खैर, अभिषेक जी की पोस्ट का लब्बो-लुवाब ये है कि गणितज्ञ के पेशे को दुनियाँ का सबसे अच्छा पेशा माना जाता है. वहीँ मुआ अर्थशास्त्री ग्यारहवें नंबर पर है.
होगा क्यों नहीं? चावल के बारे में ऐसा कहेगा तो होगा ही. लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आया कि इस जाड़े के मौसम में कौन ये सारी बातें बता रहा है?
पोस्ट पढ़ते-पढ़ते आगे बढ़ा तो पता चला कि मामला अमेरिका से निकला है. सर्वे-सर्वा अमेरिका सर्वे वगैरह कराने में बड़ा आगे रहता है. काश कि इस बात का सर्वे भी करवा लेता कि इराक़ पर आक्रमण किया जाना ठीक है कि ग़लत.
खैर, आते हैं अभिषेक जी की पोस्ट पर. जिस सर्वे का हवाला उन्होंने दिया है, उसके अनुसार गणितज्ञ पहले नंबर पर है और एक्चुअरी दूसरे नंबर पर. इसके बारे में अभिषेक जी लिखते हैं;
"वैसे एक्चुएरी का प्रोफेशन तो हमेशा से ही सबसे ज्यादा वेतन वाले पेशे में ऊपर
रहता आया है। लेकिन ये रैंकिंग केवल वेतन की नहीं है ये सबसे अच्छे (और बुरे) पेशे
की है। इस सर्वे में वेतन के अलावा काम का दबाव, परिवेश तथा रोजगार से जुड़े अन्य
पहलुओं को ध्यान में रखा गया।"
इतना बताने के बाद अभिषेक जी सवाल भी पूछते हैं. वे पूछते हैं;
"तो सबसे अच्छा कौन?"
इस सवाल का जवाब भी वे ख़ुद ही देते हैं. वे लिखे हैं;
"अरे साफ़ बात है इस ब्लॉग पर है तो क्या होगा? गणित !"
उनके सवाल और जवाब पढ़कर शिव कुमार मिश्र को डॉक्टर कलाम याद आ गए. बेचारे जब राष्ट्रपति थे तो जगह-जगह घूम-घूम कर इसी तरह से सवाल पूछते थे और इसी तरह से ख़ुद ही जवाब भी देते थे. यहाँ तक कि विधायकों के सामने भी ऐसा करते थे. बेचारे....
गणित पर अपने 'लट्टुआने' के बारे में सफाई देते हुए अभिषेक जी ने बताया;
"आप कहेंगे 'व्हाट? ये भी कोई पेशा है?अब पेशा नहीं है तो मैं इतना क्यों लट्टू हूँ
भाई इस पर, बिना पैसे के भला आजकल कुछ होता है आजकल ! खैर गणित तो सर्वव्यापक है, पेशा तो बस उसकी माया का एक रूप है :-)"
सच बात है. गणित तो सर्वव्यापक है. मायावती जी से लेकर लालू जी तक और बाजपेयी जी से लेकर ओमर अब्दुल्ला तक को गणित की पढ़ाई करनी पड़ती है. मतलब ये कि कितने अपने पास रहेंगे तो अपनी सरकार बन जायेगी.
वैसे भी लोकतंत्र में गणित से बड़ा विषय हो भी नहीं सकता. जहाँ ये सर्वे कराया गया है वो ठहरा दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र और जहाँ के हम, आप और अभिषेक जी हैं, वो ठहरा सबसे बड़ा लोकतंत्र.
ऐसे में गणित सबसे बड़ी.
अभिषेक जी की इस पोस्ट पर गणितज्ञ के पेशे को मिले पहले नंबर ने अनूप जी को प्रभावित किया. उन्होंने ख़ुद को गणितज्ञ घोषित करते हुए कहा;
"वाह। हम तो पहिले नम्बर पर हैं। हमको बीस तक पहाड़े आते हैं।"
बीस तक के पहाड़े!
अनूप जी की बात पढ़कर शिव कुमार मिश्र सोचते रहे कि बीस तक का पहाड़ा कैसे? अनूप जी हाल ही में नैनीताल गए थे तो अपनी यात्रा वृत्तांत में केवल दो पहाड़ों का जिक्र किया था.
'अदबदाकर' उठाये गए इस प्रश्न का जवाब मिलना चाहिए. ऐसा नहीं हुआ गणितज्ञ होने के उनके दावे को शक की निगाह से देखा जाता रहेगा.
अनूप जी के जवाब आने तक उनके इस दावे को शक की निगाह से तो देख रहे हैं लेकिन शास्त्री जी के दावे को नहीं. जी हाँ, आज शास्त्री जी ने दावा किया कि खटाई के अनेक रूप होते हैं. अपनी पोस्ट में आज उन्होंने खटाई चर्चा की है.
ना ना. टिप्पणियों की वजह से मिलने वाली खटास की बात नहीं है यह. यह तो खाने वाले खटास की बात है. पाने वाले खटास की नहीं.
शास्त्री जी लिखते हैं;
"स्वाद की अधिकतम विविधता भारतीय भोजन की एक विशेषता है. यदि आप ने पश्चिमी और यूरोपीय देशों का खाना खाया हो तो आप एकदम समझ जायेंगे कि मैं क्या कहना चाहता हूँ."
आज तक पश्चिमी और यूरोपीय देशों खाना नहीं खाया. खाना तो क्या नमक तक नहीं खाया. अब शास्त्री जी की बात कैसे समझूं? खैर, कोशिश करता हूँ. आप में जिन्होंने यूरोपीय और पश्चिमी देशों का खाना खाया है, आशा है उन्हें समझने में किसी तरह की कठिनाई नहीं होगी.
खैर, शास्त्री जी आगे लिखते हैं;
"नीबू, अमचूर और इमली खटाई के प्रधान वाहक हैं, लेकिन हिन्दुस्तान में और भी कई फल हैं जो इस कार्य के लिये प्रयोग में लाये जाते हैं. उत्तरभारत की कैंथ तो अब बहुत कम दिखती है, लेकिन उम्मीद है कि कुछ लोग लुप्त होते कैंथ का पुनर्वास जरूर करेंगे."
कैंथ तो हमें भी बचपन में बहुत प्रिय थी. जब पक जाती थी तो बहुत बढ़िया सुगंध मिलती थी. लेकिन कैंथ अब लुप्त होती जा रही है, ये सुनकर दुःख हुआ. शास्त्री जी ने कैंथ के पुनर्वास की उम्मीद की है. सरकार को चाहिए कि व्यापक स्तर पर कैंथ बचाओ अभियान चलाये जिससे कैंथ की रक्षा हो सके.
दक्षिण भारत, खासकर केरल में खटास के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले एक फल की फोटो छपते हुए शास्त्री जी लिखते हैं;
"नीबू, कैरी और इमली के अलावा दक्षिण में खटाई के लिये कई और भी फल उपलब्ध हैं. इन में से एक को आप बगल के चित्र में देख सकते हैं. केरल में यह एक बहुत आम चीज है. इसका पौधा कहीं भी लगाया जा सकता है और एक तने का यह पेड छोटे से जामफल के पेड से छोटा होता है. पौध को लगाने के दो साल के अंदर फल देने लगता है. एक पेड पांच से दस परिवारों की जरूरत की पूर्ति कर सकता है."
इस पौधे के छोटे-छोटे फलों को खाने से शरीर की चर्बी कम होती है. शास्त्री जी ने बताया कि उन्हें जब भी मौका मिलता है, वे इस पौधे के फल खाते हैं ताकि चर्बी कम हो जाए.
इस फल का हिन्दी नाम तो उन्हें नहीं मालूम लेकिन मलयालम में बुलाए जाने वाला नाम है चीमा-पुली या इरुम्बिपुलि.
इस फल के बारे में जानकारी मिलने पर हिमांशु जी ने बताया कि चित्र देखने से पहले उन्होंने इस फल को नहीं देखा था. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"यह फ़ल तो मैंने देखा ही नहीं था, इस चित्र के पहले.अगर यह खट्टा है, तो मै जरूर
इसे चखना चाहूंगा.धन्यवाद, जानकारी के लिये."
खट्टेपन के लिए हम सभी जितने लालायित रहते हैं मीठेपन के लिए वो लालसा नहीं रहती.
खट्टेपन की बात चाली तो आपको बताऊँ कि रौशन जी का मन खट्टा हो गया है. कम्यूनिस्ट विचारधारा के समर्थक उनके मित्र की वजह से उनके मन में विचार उठा कि;
क्या हमारा राष्ट्रीय ध्वज साम्प्रदायिक है?
पहले लोग साम्प्रदायिक हो लेते थे. बाद में लोग जानवरों को भी साम्प्रदायिक बताने लगे. वो तो अच्छा है कि जानवरों के ऊपर चुनाव जीतने-हारने का प्रेशर नहीं होता नहीं तो पता नहीं क्या हो जाता.
लेकिन ऐसा भी क्या है कि साम्प्रदायिक होने की राह पर कुछ इतनी तेजी से आगे बढ़े कि ध्वज वगैरह को भी साम्प्रदायिक बताने लगे?
जी हाँ, रौशन जी के कम्यूनिस्ट विचारधारा के समर्थक मित्र का यही मानना है. इस बारे में रौशन जी लिखते हैं;
"उन्हें इस बात पर आपत्ति थी। उनका कहना हुआ कि राष्ट्रीय ध्वज में भगवा रंग उन्हें
नही पसंद है इससे साम्प्रदायिकता की झलक मिलती है।"
चलिए बात केवल झलक तक पहुँची. खैर, रौशन जी इसके बारे में अपनी राय लिखते हैं. उनका मानना है कि;
"हमें उन मित्र की राष्ट्रीय ध्वज सम्बन्धी सोच पर ऐतराज न होता अगर उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज को साम्प्रदायिक बताने की अपनी सोच के पीछे कारण सिर्फ़ उसमे भगवा रंग का होना न बताया होता । तब ये सिर्फ़ उनकी सोच होती जो किसी के लिए सही और किसी के लिए ग़लत होती अगर वो भगवे के साथ हरे रंग का भी जिक्र कर देते।"
इस तरह की बहस बड़ी रंगीन होती होगी. हरा, भगवा, केशरिया और न जाने कितने रंगों से सराबोर. ऐसी बहस छेड़ने वालों को मजा भी खूब आता है.
लगता है जैसे बहस छेड़ने वाला ये सोचते हुए बहस छेड़ता है कि; "इस्स...आज दोपहर के खाने में अचार और पापड नहीं मिला. मुंह का स्वाद ही ख़राब हो गया....कोई बात नहीं. कोई मित्र मिले तो राष्ट्रीय ध्वज पर बहस छेड़कर मुंह का स्वाद ठीक कर लूँ."
खैर, रौशन का मानना है कि बात अचार और पापड़ की नहीं है. ऐसी बातों की वजह ये है कि लोगों को राष्ट्रीय ध्वज के विकास के बारे में जानकारी नहीं है. वे लिखते हैं;
"बहरहाल ऐसी सोचें राष्ट्रीय ध्वज के विकास की प्रक्रिया की जानकारी के अभाव के
चलते होती है या फ़िर किसी एकमानसिकता में इतना रंग जाने पर कि और रंग दिखाई ही न पड़ें."
उनकी इस पोस्ट को पढ़कर राजीव महेश्वरी जी को लगा कि रौशन जी को ऐसे मित्र से बचकर रहने की ज़रूरत है. उन्होंने अपनी टिप्पणी में रौशन जी को सुझाव देते हुए लिखा;
"भाई जान , आप इन कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक मित्र से बच कर रहो."
उनकी टिप्पणी पढ़कर लगा जैसे उन्होंने कोई राज की बात पूरी महफ़िल के सामने नहीं बल्कि रौशन जी से अकेले में कही. ये सोचते हुए कि; "इस मित्र से नहीं बचेंगे तो ये आपको ही एकदिन साम्प्रदायिक घोषित कर देगा."
लेकिन ऐसे बचकर रहने से तो मित्रता टूटने का चांस बढ़ जायेगा. देखेंगे कि राष्ट्रीय ध्वज की वजह से दो मित्रों का जोड़ा बिछड़ गयो रे....टाइप हिसाब हो जायेगा.
राज की बात से आगे चलकर अब आज की बात करते हैं. आज की बात भी नहीं है. ये तो बाप की बात है.
जी हाँ, आज डॉक्टर कमलकांत बुधकर जी ने लड़के और उसके बाप (या फिर बापों की) बात की है.
उनकी मानें तो पाकिस्तानी आतंकवादी श्री कसाब जी के दो तरह के बाप हैं. एक है असली बाप और दूसरे हैं कई सियासती बाप. वे लिखते हैं;
"आख्रिर पडौ़सी देश के बापों ने माना तो सही कि लड़का उनका ही हैं। वे तो मान ही
नहीं रहे थे कि लड़का उनका है। बहुत समझाया। समझाते समझाते डेढ़ महीना हो गया। पर भाईलोग नन्ना की रट ही लगाए बैठे थे । लड़के के असली बाप ने शुरू में ही कह दिया था कि लड़का उसका है, पर उस देश के बापों ने लड़के के बाप को सूचित किया कि नहीं, लड़का तुम्हारा नहीं है। जब हम कह रहे हैं कि तुम्हारा नहीं है तो तुम भी कहो कि लड़का तुम्हारा नहीं है। पर लड़के बाप सियासी बापों की तरह बेगैरत नहीं था। उसने प्रेसवालों को बता दिया कि वही लड़के बाप है और वह लड़का उसीका है।"
जिनलोगों ने इस बात को मानने से इनकार कर दिया कि लड़का उनका नहीं है, उन्हें कमलकांत जी गांधारी के वंशज बताते हुए लिखते हैं;
"गांधारी के वंशज, आंखें बन्द कर लीं और समझ्ा लिया कि दुनिया में रात हो गई। अब
उन्हें कोई नहीं देखेगा।"
सुबूत देने की बात पर वे लिखते हैं;
"अब भला बताओ कि ये कोई बात हुई? लड़का तुमने पैदा किया, पाला पोसा बड़ा किया और सबूत हम दें कि लड़का तुम्हारा है। भाईजान, साफ बात यह है कि इस लड़के की पैदाइश में हमारा कोई हाथ नहीं है। बल्कि हम तो यहां तक कहते हैं कि इस तरह कसब-कसाई सीमापार ही पैदा किये जाते हैं। इधर नहीं।"
ये सीमा होती ही है ऐसी. जो कुछ भी बुरा होता है वो हमेशा सीमापार ही होता है. कारण यह है कि हम सीमा के इसपार हैं.
दुनियाँ बनानेवाले क्या तेरे मन में समाई...तुने काहे को सीमा बनाई,,?
सीमा लुभाती भी है. शायद यही कारण है कि हमलोग भी सात समुन्दर पार वाली सीमा के उस पार बैठे लोगों से चिरौरी करते हैं. इसके बारे में वे लिखते हैं;
"दुनिया में असली को लोग मानते नहीं पर नक़ली को सब मानते हैं। पड़ौसियों की भी यही आदत है। अपने घर परिवार के असली बापों को नकार देते हैं और सात समुन्दर पार बैठे
महाबापों की चिरौरी करते हैं। उन्हें अपना असली बाप मानते हैं।"
अब चलते हैं कविताओं के उपवन में.
भाई, कविताओं का तो उपवन ही हो सकता है. कविताओं का वियावान थोड़े न होगा. कहाँ कविता और कहाँ वियावान.
तो कविताओं के उपवन में पढिये भूतनाथ जी (नहीं भाई, राजी थेपडा जी ) की गजल. पूरी गजल ही सवालों का गुलदस्ता है. वे लिखते हैं;
गर खे रहा है नाव तू ऐ आदमी
गैर के हाथ यह पतवार क्यूँ है...?
तू अपनी मर्ज़ी का मालिक है गर
तिरे चारों तरफ़ यः बाज़ार क्यूँ है...??
'गाफिल' उपनाम से लिखने वाले भाई राजीव जी इस गजल का समापन करते हुए लिखते हैं;
हम जानवरों से बात नहीं करते "गाफिल"
आदमी इतना तंगदिल,और बदहाल क्यूँ है ??
उनकी इस गजल पर बवाल जी ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"बड़ी बात कही गाफ़िल आपने. यक्ष प्रश्न है ये."जहाँ भूतनाथ जी सवालों से भरी गजल लिखी वहीँ योगेश स्वप्न जी ने अनुरोध करते हुए लिखा;
मुझको अपने सपनों में ,आने की इजाज़त दे दो ना
घड़ी दो घड़ी बात करूँ , इतनी तो मोहलत दे दो ना
मुझको............................................................
वे आगे लिखते है;
कब से पड़ा हुआ दोज़ख में , तेरे लिए दिल की मलिका
तेरे दिल में जगह मिले, इतनी तो जन्नत दे दो ना
मुझको...........................................................
उनकी इस रचना पर भी बवाल जी ने टिप्पणी की. उन्होंने लिखा;
"सुन्दर कविता है जी आपकी."
उनकी टिप्पणी पढने से लगा जैसे ये टिप्पणी कम और सर्टीफिकेट ज्यादा है.
सोचा तो था कि आज एक लाईना लिखने का समय निकालूँगा लेकिन लगता है मुश्किल है.
कल की चर्चा मसिजीवी जी करेंगे. आप सबसे वृहस्पतिवार को फिर मुलाकात होगी.
बहुत बेहतरीन चर्चा रही, आपने तो ठंड मे भी गर्मा गर्म और विस्तृत चर्चा की. धन्यवाद आपको.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बेहतरीन चर्चा !!!! विस्तृत चर्चा की. धन्यवाद !!!!
जवाब देंहटाएंइस्स...आज दोपहर के खाने में अचार और पापड नहीं मिला. मुंह का स्वाद ही ख़राब हो गया....कोई बात नहीं. कोई मित्र मिले तो राष्ट्रीय ध्वज पर बहस छेड़कर मुंह का स्वाद ठीक कर लूँ."
जवाब देंहटाएंअनूप जी की बात पढ़कर शिव कुमार मिश्र सोचते रहे कि बीस तक का पहाड़ा कैसे? अनूप जी हाल ही में नैनीताल गए थे तो अपनी यात्रा वृत्तांत में केवल दो पहाड़ों का जिक्र किया था.
उपरोक्त दोनो पंक्तियो के लिए 100 नंबर.. इन दो पंक्तियो को पढ़कर ही पता चल जाता है क़ी चर्चा किसने क़ी.. वैसे आज का हाल बतौ तो हमे बचपन में हमारे मोहल्ले क़ी उमराव जान क़ी याद आ जाती है.. मोहल्ले के सब बनके नौजवान सुबह से ही उसके घर के आगे चक्कर काटना शुरू कर देते थे.. और उमराव जान थी क़ी सर्दियो में दोपहर में एक बजे बाद नाहकार बाल सुखाने बालकनी में आती थी.. और सभी लड़के उसका दिदार पाकर धन्य हो जाते थे..
ठीक वैसा ही हाल आपकी चर्चा का होता है...
वाह, इस चर्चा की उमरावजानियत (@ कुश की टिप्पणी) पर कुर्बान!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चर्चा के लिए बधाई...........
जवाब देंहटाएंचर्चा की उमरावजानियत पर मैं भी कुछ कहता लेकिन ज्यादा लिखा तो लोग कहेंगे अपने पोस्ट की चर्चा हुई इस लिए कह रहा हूँ :-)
जवाब देंहटाएंवैसे चर्चा तो शानदार है ही !
जवाब देंहटाएंहोरे राम.. बेहद छकाऊ चर्चा !
आज शिवभाई ने कमर कस कर ऎसी चर्चा की है.,कि
आजका चर्चाकोर्स पूरा करने में पसीने आ गये.. क्या आपको भी ?
इंपार्टेन्ट और मोस्ट इंपार्टेन्ट पोस्ट ने ही डेढ़ घंटे को उलझा लिया !
शाम को देखा यही गनीमत है !
आज तो आपने घणी लम्बी चर्चा की। खूब धूप सेंकी होगी। बढ़िया है।
जवाब देंहटाएंहेल्लो शिव भईया ! चर्चा का शीर्षक देख कर पहले तो घिग्गी बंध गई कि आज जरूर खिचाई होती है. डरते डरते पढना शुरू किया तो हिम्मत बंधी. आधा पढते पढते मन सामान्य हो गया और डर काफूर हो गया.
जवाब देंहटाएंहां पूरी चर्चा फिर एक बार और पढी ! सशक्त चर्चा है.
भारतीय झंडे को जो व्यक्ति सांप्रदायिक कहता है उसे तो हर चीज सांप्रदायिक ही दिखेगी. अफसोस है कि इस तरह के लोग बहुतों को अपने मिथ्या तर्क से प्रबावित कर देते हैं
लिखते रहें !!
सस्नेह -- शास्त्री
सत्यम! राजू भाई तो बहुत जल्दी टूट गये और स्वीकार कर लिया, कितने घाघ अभी रजाई ओढ़ कर बैठे हैं| जाड़ा बीतने का इन्तेजार करें बस|
जवाब देंहटाएंठीक ठाक चर्चा है
जवाब देंहटाएंलिखते रहें !!बधाई....
माइयो, इतनी लंबी चर्चा? 31 दिसंबर तक कर दी होती तो पिछले साल की सब से लंबी चर्चा का खिताब मिल जाता।
जवाब देंहटाएंवैसे इस साल इसे यह खिताब मिल जाए तो भी सोने में सुहागा ही है जी।
चाहे लंबी हो लेकिन मजा आ गया जनाब बिलकुल डूब के की है और आज के महत्वपूर्ण विषयों का भी समावेश हो गया।
माफ करें पढते पढते देर हो गई . लगता है गोद में लट्टू ( लैप टॉप ) लेकर धूप में जा बैठे :)
जवाब देंहटाएंबुधकर साहेब जोश में कुछ सिद्धांत भूल गये ,अगर वे शकुनी के वंशज कहते, तो पुराणिक सन्दर्भ सही होता,परंतु उन्होने ने गांधारी के वंशज कह कर 'खुद को मुझ को अन्य भारतीयो को लपेटे में ले लिया ' यह उसी तरह हुआ की भूत सांस्ड विनय कटियार श्रीमती सोनियगांधी के विदेशी मूल की आलोचना करने के चक्कर में गंधारी का अपमान कर बैठे थे | गंधारी के युग में गंधार एक राज्य के रूप में भारत एवं आर्यावृत का अंग माना जाता था और गंधारी यहाँ की भारत के दिल दिल्ली यानी हस्तिनापुर की बहू थी अतः उसके वंशज तो आप और हम ही तो हुए |
जवाब देंहटाएंरही गंधारी की सत्य निष्ठा , तो हम आप उस 'देवी ' के स्तर तक पहुँच ही नही सकते जिसने केवल यह जानकर कि भारतवर्ष के हस्तिनापुर का राजा उसका पति देख नही सकता तो उसने भी 'दृष्टि त्याग ''स्वीकार कर लिया | नारी पूज्यते के देश सब से पहले नारी ही अपमानित होती है |
अपने बारे में वे स्वयं आप ही कहते हैं '' हिन्दीभाषी क्षेत्र हरिद्वार में जन्मा एक मराठीभाषी हूं '' अर्थात मराठा वही जो शिवा जी थे ,जिनके बारे में प्रसिद्ध कथा अवश्य पढ़ी होगी किस प्रकार उन्हो ने शत्रु के परिवार की नवजवान स्त्री को सासम्मान उनके घर भेज दिया | मैं समझता हूँ कि मुझे आगे कुछ कहने कि आवश्यकता नही है ? वे स्वएँ समझदार हैं !
सब बांच लिये। ये अच्छी बात है कि फ़जीहत से बचने की कोशिश की जाती है और चर्चा सुबह की जगह दोपहर को होती है लेकिन फ़जीहत बच के कहां रहती है। हो ही जाती है। और हम पहाड़े बोले हैं पहाड़े जी। जिसे अंग्रेजी में टेबल कहते हैं। टेबल बोले तो मेज नहीं। :)
जवाब देंहटाएं@ अनुप जी , भाई ये सब क्या हो रहा है ? आप क्या सोचे आप बोलेंगे "टेबल बोले तो मेज नहीं " और यहाँ सब मान लेंगे ?
जवाब देंहटाएंनहीं जी, टेबल बोले तो मेज :)
पहाड़ और पहाड़े के फेर में फंसकर की गयी चर्चा लाजवाब रही।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब चर्चा रही शिव कुमार साहब आपकी. और ये मेरी टिप्पणी ही है सर, (सर्टिफ़िकेट) नहीं, क्या करूं अन्दाज़ सूफ़ियाना है ना.
जवाब देंहटाएंआप का जाना पहचाना शेर है ना इस बाबत--
उस मय से नहीं मतलब, दिल जिससे हो बेगाना
मक्सूद है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है