अब देखिये न, ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत गए. जीत गए तो राष्ट्रपति भी बन गए. बन गए तो शपथ-ग्रहण कर लिया. शपथ ग्रहण कर लिया तो अब अमेरिका को वही चलाएंगे. लेकिन उनके राष्ट्रपति बनने से हम भारतीय भी बहुत खुश हैं. पिछले कई दिनों से समाचार चैनल, अखबार, रेडियो पर ओबामा छाये हैं.
ब्लॉग पर भी वही छाये हैं. बादल की तरह. उनके ऊपर पोस्ट की बरसात हो रही है.
आज तो अनूप जी ने भी ओबामा के ऊपर पोस्ट लिख दी है. वे लिखते हैं, एक ठो ओबामा इधर भी लाओ यार.
अब ये बात उन्होंने किससे कही है, ये अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है. 'इधर भी लाओ यार' से उनका मतलब ये तो नहीं कि वे कानपुर या लखनऊ के लिए ओबामा मांग रहे हैं. नहीं, ये बात मेरे मन में इसलिए आई कि अगर वे कानपुर और लखनऊ के लिए मांग रहे हैं तो ठीक नहीं.
आख़िर मायावती जी और उनके प्रशंसक उनकी तुलना ओबामा से पहले ही कर चुके हैं. खैर, अनूप जी अपनी पोस्ट में लिखते हैं;
अपने देश में भी लोग कहने लगे हैं यार एक ठो ओबामा इधर भी चाहिये। यहां भी आये तो कुछ काम बनें। ओबामा का मतलब अगर अल्पसंख्यक, अश्वेत, वंचित समुदाय से आने की बात है तो भारत में ऐसे कई ओबामा टुकड़ों-टुकड़ों में आये और कालांतर में अपनी गति को प्राप्त हुये। एक नहीं कई।
भारत में ओबामा अगर टुकड़े-टुकड़े में आयेंगे तो अपनी गति को प्राप्त होंगे ही. टुकड़े की गति क्या हो सकती है? टुकड़ा ख़तम हो जाता है. साबुत आते तो कुछ होता भी. टुकड़ा चाहे एक हो या कई, उसकी गति यही होनी है.
अनूप जी आगे लिखते हैं;
यह संयोग है कि आज अमेरिका की हालत पतली सी है। सेनायें फ़ंसी हैं। बैंको को डुबा या मिलके उनके लालों नें। अमेरिका धिरा है तमाम बवालों में। सो उनको ऐसा आदमी चाहिये जो फ़ालतू की फ़ूं-फ़ां में टाइम वेस्ट की बजाय अपनी हालत ठीक कर दे।
शब्दों के संयोजन पर ध्यान दीजिये.
बैंकों को डुबो दिया मिलके उनके लालों ने
अमेरिका घिरा है तमाम बवालों में
मेरे कहने का मतलब ये कि न चाहते हुए भी अनूप जी पोस्ट लिखते-लिखते कविता की तरफ़ चले थे. वो तो कोई ध्यान न दे इसके लिए इन दो लाइनों को पैराग्राफ का हिस्सा बना दिया.
वैसे कोई छायावादी विद्वान यह बात आसानी से साबित कर सकता है कि पहली लाइन में 'लालों' का मतलब कम्यूनिस्ट लोगों से है. अगर ऐसा हो गया तो अमेरिका के साम्राज्यवादी छायावादी विद्वान के हवाले से कह सकते हैं कि; "हमारे बैंक ठीक-ठीक चल रहे थे. 'लालों' ने उन्हें डुबो दिया.
अनूप जी का कहना है कि भारत और अमेरिका एक मामले में एक जैसे हैं. और वो है 'अभिमन्यु' का इंतजार करने के मामले में. इस बात को बताते हुए उन्होंने एक कविता लिख डाली है.
मैं कह रहा था न कि कविता की तरफ़ पहले ही मुड़ चुके थे. शायद उस मोड़ से सुस्त कदम रस्ते जाते थे इसलिए ठिठक गए और वापस आ गए. लेकिन बाद में कविता लिख ही डाली. आप यहाँ पर कविता के अंश और उनकी पोस्ट पर पूरी कविता पढ़िये.
वे लिखते हैं;
लेकिन अभिमन्यु पैदा करने के भी
एक कायदे का बाप चाहिये।
ऐसा बाप जो कायदे सेउसकी मां को चक्रव्यूह भेदन की
कहानी सलीके से सुनाये।
ऐसे कि मां बोर न हो
जम्हुआकर सो न जाये।
सातों दरवाजे तोड़ने की कथा पूरी सुने फ़िर आराम से सो जाये
ताकि अभिमन्यु आये तो चक्रव्यूह के अंन्दर ही न मारा जाये।
कायदे का बाप चाहिए? तो फिर पहले अर्जुन का इंतजार करना पड़ेगा. वैसे भी ज्यादातर चांस यही है कि आज का अभिमन्यु (अमिताभ बच्चन की फिलिम आज का अर्जुन के तर्ज पर) चार द्वार तोड़कर बोलेगा; "पाँच बज गए. हमारी ड्यूटी ख़तम. अब कल दस बजे वापस आऊंगा तो आगे के द्वार तोडूंगा."
वैसे ओबामा को 'इधर' लाने के आह्वान से दिनेश राय द्विवेदी जी सहमत नहीं दिक्खे. उन्होंने तो अपनी टिप्पणी में एलान कर दिया कि;
हमें नही चाहिए ओबामा। हम अपना कुछ खुद बना लेंगे।
ये भी सही है. अभी डॉलर का भाव रूपये के मुकाबिले बहुत ऊपर है. ऐसे में नीति यही कहती है कि इंपोर्ट अभी बहुत मंहगा पड़ेगा. अपने देश में ही कुछ तैयार करना पड़ेगा.
अच्छा, ओबामा जी अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो ज्यादातर लोगों ने कहा कि ओबामा जी ने इतिहास रच दिया. लोगों की इस बात से एक बार फिर से साबित हो गया कि कविता-कहानी की तरह इतिहास भी रचा जाता है.
खैर, ओबामा जी ने इतिहास रचा इस बात को स्वीकार करने में एस एन विनोद जी को संकोच हो रहा है. वे लिखते हैं;
इतिहास रचा गया! बिल्कुल ठीक! इतिहास बराक ओबामा ने रचा, इसे स्वीकार करने में मुझे संकोच है. यूं भारत के प्राय: सभी समाचार-पत्र और टेलीविज़न चैनल पिछले दो दिनों देश को शिक्षित करते देखे गए कि 'ओबामा ने इतिहास रचा.
समाचार पत्र और न्यूज़ चैनल देशवासियों को शिक्षित कर रहे हैं और हम हैं कि उनके शिक्षक बनने के ख़िलाफ़ जब-तब उतर आते हैं. अपने संकोच के बारे में बताते हुए विनोद जी आगे लिखते हैं;
मैं समझता हूं ये अतिरेकी उद्गार है. अति उत्साह में ऐसा ही होता है. गुब्बारे के पिचक जाने के बाद ऐसे उत्साही कलमची स्वयं ही संशोधन को आतुर हो उठेंगे.
वैसे मेरा मानना है कि कलमची लोगों के जब उनके उद्गार को संशोधित करने का समय आएगा तो वे किसी और के द्बारा इतिहास रचवा रहे होंगे. पचास बहाने हैं इतिहास रचने के. और भी भ्रम है ज़माने में ओबामा के सिवा...
अपने संकोच को जिगासा में परिवर्तित कर विनोद जी आगे लिखते हैं;
हमारे भारत में मौजूद विदेशी मामलों के विशेषज्ञ 'ओबामा-उदय' को भारत के लिए हितकारी मान रहे हैं. इस बिन्दु पर सहज-जिज्ञासा यह कि क्या सचमुच अमेरिका, भारत का मित्र साबित होगा?
अमेरिका किसका मित्र साबित हुआ है आजतक? मित्रता बहुत बलिदान मांगती है. और अमेरिका बलिदानी हो जाए ऐसा होने का चांस कमे है.
विनोद जी की इस पोस्ट पर द्विवेदी ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
इतिहास हमेशा जनता ही रचती है।
जनता भी गजब 'चीज' है. जो चाहे इसे खा जाता है. वैसे मेरा मानना है कि कविता रचते-रचते जब बोर हो जायेगी तो इतिहास भी रच ही डालेगी एकदिन. बस वो दिन कब आएगा, ये नहीं पता.
खैर, अमेरिकन ओबामा से आते हैं भारतीय अभिमन्यु पर. कुछ लोग नरेन्द्र मोदी को अभिमन्यु समझते हैं. इनमें से कुछ उद्योगपति भी हैं.
बड़ी बात है कि नहीं. आज संजय जी ने उनके राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के दस अवगुण गिनाने के बहाने नेता के गुणों पर प्रकाश डाला. हम तो सोचकर पोस्ट पढ़ें गए कि नरेन्द्र मोदी के अवगुण क्या-क्या हैं, ये पढ़ेंगे लेकिन संजय जी ने झांसा दे दिया.
उन्होंने नेता के गुण गिनाये. वे लिखते हैं;
नरेन्द्र मोदी के वे खास अवगुण जिनकी वजह से वे प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है. और जिन्हे लायक माना जा रहा है, उनमें यह मौजूद है….
इतना लिखने के बाद उन्होंने असली नेता के दस गुण गिनाये. ये गुण हैं;
1.नेता ऐसा हो जो भाई समान हो
2.नेता ऐसा हो जो जाति का कल्याण करे:
3.नेता ऐसा हो जो पानी-बिजली-सड़क देने का वादा करे और करता रहे:
4.नेता ऐसा हो जो जवाँ मर्द हो:
5.नेता ऐसा हो जो अपने परिवार से प्रेम करे:
6.नेता ऐसा हो जो दोनो हाथों से दान करे:
7.नेता ऐसा हो जो वफादार हो:
8.नेता ऐसा हो जो अल्पसंख्यको का हितेशी हो:
9.नेता ऐसा हो जो शान्तचीत हो:
10.नेता हो तो गाँधी हो:
संजय जी ने हेडिंग्स डालकर विवेचना भी लिखी है. ठीक वैसे ही जैसे हम परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर लिखते थे. विवेचना तो आप उनकी पोस्ट पर जाकर पढ़ लें.
संजय जी की ये पोस्ट शाश्वत जी की समझ में आ गई. उन्होंने अपनी टिप्पणी में एलान किया;
हम तो समझ गए, एक बार देश की साड़ी जनता भी समझ जाए तो मजा आ जाए
वैसे मेरा मानना है कि जनता कुछ समझती है तो भी और कुछ नहीं समझती तो भी, मज़ा ही आता है.
संजय जी की ये पोस्ट पढ़कर सूमो जी को लगा कि मोदी जी के जितने अवगुण संजय जी ने गिनाये, वे कम हैं. उन्होंने अवगुणों की लिस्ट आगे बढ़ाते हुए अपनी टिप्पणी में लिखा;
मोदी टेलीविजन वालों और मीडिया को आलतू फालतू देकर पालतू नहीं बनाता.
मोदी बहुत भ्रस्टाचारी है, दो दर्जन कुरते है इसके पास.
मोदी जी के अवगुण के बारे में जानकारी लेने गए केवल हमही निराश नहीं हुए. अनिल रघुराज जी भी निराश हो गए. जैसे हम निराश होकर चिट्ठाचर्चा में लिख बैठे कि हम निराश हुए वैसे ही अनिल जी चिटठा में लिख बैठे. उन्हें लगा कि अवगुण नहीं जान पाये तो सद्गुण की ही बात कर ली जाय.
इसलिए उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के हवाले से बताया कि मोदी जी में एक सद्गुण है. वो क्या है? वे लिखते हैं;
संजय भाई ने नरेन्द्र मोदी के पाँच अवगुण गिनाये तो मुझे लगा कि क्यों न उनका एक सद्गुण गिना दिया जाए। आज ही इंडियन एक्सप्रेस में एक रिपोर्ट छपी है जो बताती है कि वे झूठ बोलने में ज़बरदस्त महारत रखते हैं। उनके सत्य की कलई ख़ुद उन्हीं के सरकारी विभाग ने खोली है। आप भी यह रिपोर्ट पढ़ें और उनके इस सद्गुण की दाद दें। शुक्रिया।
अच्छा, जिन्हें भ्रम हो कि ऊपर दिया गया पैराग्राफ पोस्ट की झलक है, मैं उनका भ्रम कोसों दूर फेंकते हुए ये बताना चाहता हूँ कि ये केवल एक पैराग्राफ नहीं है. ये पूरी पोस्ट है.
अनिल जी की ये पोस्ट पढ़कर मुझे अपने सीए के शुरुआती साल की ट्रेनिंग की याद आ गई. हुआ ये कि हम नए-नए ऑडिटर बने थे. एक चाय कंपनी की ऑडिट करने गए. रूटीन ऑडिट थी. डेबिट साइड में एक फिगर वाऊचर में तो था, कैशबुक में नहीं था. हमें लगा कि मैं नया आर्टिकिल क्लर्क हूँ. ऐसे में 'ऑडिट नीति' ये कहती है कि अपने सीनियर से सलाह लूँ. सीनियर फर्म के पार्टनर भी थे.
मैंने अपने सीनियर से कहा; " सर, ये फिगर कैशबुक में डेबिट साइड में दिखाई नहीं दे रहा है." उन्होंने फट से कहा; "तो क्रेडिट साइड में चेक कर लो."
मतलब ये कि अवगुण पढने को नहीं मिले तो सद्गुण पढ़ लो. लेकिन कुछ पढ़ो ज़रूर.
अनिल जी की इस पोस्ट पर पंगेबाज जी ने टिप्पणी में लिखा;
अरे वाह आपकी तो लाटरी निकल आई .. मोदी गरियाऊ समीती के चेयर मैन को और क्या चाहिये बधाई हो जी . वैसे आपको कसम है कभी भि ये अंधो वाला चशमा उतार कर किसी और मुख्यमंत्री या देश के केंद्रीय मंत्रियो की करतूते ना देखना. अगर दिख भी जाये तो गांधी के बंदरो की प्रतिमूर्ती बने रहने का आपका इत्ते साल का अनुभव किस काम आयेगा लगे रहो चिढनखोरी मे :)
इस टिप्पणी को लिखने के बाद पंगेबाज जी को लगा कि उन्होंने छोटी टिप्पणी लिखी है. इसलिए वे लौटकर आए और इससे भी बड़ी एक टिप्पणी लिख डाली. आप टिप्पणी अनिल जी के ब्लॉग पर जाकर पढ़ लें.
संजय भाई को ये बात अच्छी नहीं लगी कि उन्होंने तो मोदी जी के दस अवगुण गिनाये और अनिल रघुराज जी ने अपनी पोस्ट में उनकी संख्या पाँच बताई. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;
यार आप भी ना...जितना होता है उससे कम कर देते हो. मैने मात्र दस कारण बताए और आपने उसके भी कम कर पाँच कर दिये.
उनकी इस टिप्पणी पर अनिल रघुराज जी ने कुशल मीडिया-कर्मी की तरह अपनी गलती मानी और अपनी पोस्ट में दिए गए नम्बर ऑफ़ अवगुण में सुधार किया.
वैसे एक बात मैं बता चलूँ. संजय जी और अनिल जी की पोस्ट पढ़कर मुझे लगा कि व्यंगकारों की संख्या में बढोतरी होती जा रही है. ये अच्छा है.
कुछ कवितायें पढ़िये.
बसंत आने को है. हर साल जब बसंत के आगमन का समय नज़दीक आता है, कवि-कवियित्री कवितायें लिखते हैं. सही बात भी है. सावन और बसंत अगर कवियों से कवितायें न लिखवा ले तो दो कौड़ी का सावन और ढाई कौड़ी का बसंत.
लेकिन ऐसा क्यों है कि हाल के सालों में बसंत पर लिखी गई कवितायें पढने से लगता है जैसे उसके आने पर लिखी गई कविताओं में शिकायत ही रहती है. लगता है जैसे ज्यादातर कवियों और कवियित्रियों ने इस बात पर सहमति भर ली है कि बसंत अब बसंत नहीं रहा.
आप पूर्णिमा बर्मन जी की कविता पढ़िये. हमें उनकी कवितायें बहुत पसंद हैं. पूर्णिमा जी ने बसंत की तीसरी कविता लिखी है जो उनके अनुसार;
पिछले साल दूसरी व्यस्तताओं के चलते रह गई, इस बार वसंत बीतने से पहले प्रस्तुत है-
हरी घास परग
दबदी टाँगों से कुलाचें भरता
कोयल सा कुहुकता
भँवरे सा ठुमकता
फूलों के गुब्बारे हाथों में थामे
अचानक गुम हो गया वसंत
मौसमों की की भीड़ में बेहाल परेशान
बिछड़ा नन्हा बच्चा
जैसे मेले की भीड़ में खो जाए माँ
तो क्या अब बसंत ऋतुराज नहीं रहे? वे आगे लिखती हैं;
मौसम तो सिर्फ छे थेडॉक्टर अमर ज्योति जी की गजल पढ़िये.
जाने पहचाने
लेकिन भीड़ के नए मौसम
वसंत बेचारा क्या जाने
.....................................
.....................................
वसंत
नन्हा दो माह का बच्चा
इस भीड़ में गुम न होता तो क्या होता?
बाग़बां बन के सय्याद आने लगे;
बुलबुलों को मुहाजिर बताने लगे।
भाईचारा! मुहब्बत! अमन! दोस्ती!
भेड़ियों के ये पैग़ाम आने लगे।
आपसे तो तक़ल्लुफ़ का रिश्ता न था;
आप भी दुनियादारी निभाने लगे!
दर्द वो क्या जो गुमसुम सा बैठा रहे!
दर्द तो वो है जो गुनगुनाने लगे।
शैलेश जैदी जी की गजल पढ़िये. वे लिखते हैं;
तत्काल कोई बीज भी पौदा नहीं बना.आज बस इतना ही. सोचा था कि आज चर्चा जल्दी करूंगा. लेकिन आज बंगाल बंद होने के कारण आफिस में कर्मचारियों की कमी है. लिहाजा काम करने की वजह से वक्त नहीं मिला. इसलिए चर्चा करने में और देर हो गई. आज फिर से साबित हो गया कि;
दुख क्या अगर प्रयास सफलता नहीं बना.
माना कि लोग उससे न संतुष्ट हो सके,
फिर भी वो इस समाज की कुंठा नहीं बना.
वो है सुखी कि उसके हैं ग्रामीण संस्कार,
वो अपने गाँव-घर में तमाशा नहीं बना.
मैन प्रपोजेज
नेता डिस्पोजेज
सब ठीक है यूँ ही चर्चा चलने दो!
जवाब देंहटाएं---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
हां ये बढ़िया था, ओबामा ओबामा ओबामा बजा.....कल कहीं ओबामा का बाजा न बज जाए| जिस तरह की हाइप है उसे देखकर तो मुझे लगता है कि सब कुछ सुनियोजित है, आज उन्हें मसीहा बताओ, कल कुछ कमी रह जाए तो भर पेट गरियाओ| अच्छा है|
जवाब देंहटाएंहमारे यहाँ जिस तरह सारे न्यूज़ वाले हमारे पीछे पड़े हैं कि ओबामा ये है, वो है, तुर्रमखां है, बस एक कहावत याद आती है...बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना|
हमारे यहाँ जब किसी के घर शादी होती है तो बुतरू सब लूझ जाता हैं, शामियाना बढ़िया है, बैंड बढ़िया है, चाची कुर्सी ले लीजिये, भइया हम ले आते हैं, ताकि बियाह में एक दो पेप्सी जादा मिल जाए पीने को|
बहुत वृहद चर्चा.बधाई.
जवाब देंहटाएंरामराम.
ये कहलाई भीषण चर्चा. ऐसी कि पढ़ लो तो पोस्ट पढ़ने की जरुरत ही न रह जाये. अब हम तो खैर पहले ही पोस्ट पढ़ लिए हैं तो क्या करें. :)
जवाब देंहटाएंओबामा-मोदी-कविता
जवाब देंहटाएंडेबिट-क्रेडिट-वसन्त
सरस चिठ्ठाचर्चा का यह
आदि से अन्त!
काफी कुछ समेटा है आपने.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा.
इसे कहते हैं घुस के चर्चा करना. डिटेल्ड चर्चा.
जवाब देंहटाएंएक बात है बंधू....आप चर्चा बहुत विस्तार से करते हैं....लेकिन करते बहुत बढ़िया हैं....बात भी सही है...इतने सारे ब्लोग्स की समीक्षा कम शब्दों में कैसे की जा सकती है...पाठकों से ब्लॉग की खास खबरें छूट न जाए आप इसका कितना ध्यान रखते हैं...साधू वाद ...
जवाब देंहटाएंनीरज
बहुत खूब चर्चा!
जवाब देंहटाएंक्या तो शानदार चर्चा कर डाले आप। या फ़िर कहें कि कर के डाल दिये। शुक्रिया भी कह दें काहे कि आप हमारे ब्लाग की चर्चा बहुत कड्डाले। कोई अभी तक टोंका काहे नहीं अच्छा नहीं लग रहा है।
जवाब देंहटाएंजैसा आपसे बतियाये आप बंगाली चिट्ठों के बारे में भी कभी -कभी लिखा करें।
वाह वाह !
जवाब देंहटाएंआप इतने चिट्ठों की चर्चा कैसे कर लेते हैं !
सुंदर चर्चा रही. आभार.
जवाब देंहटाएंचर्चा तो चर्चा है, कुछ भी कहीं से भी शुरू की जा सकती है. चर्चा में अंततः. कुछ सार्थक निष्कर्ष निकले तो सोने पे सोहागा और नही तो हम चर्चे के चर्चे लिख ही देते हैं. आज कुछ दिमागी खुराक में मज़ा नहीं आया अनूप जी. लेकिन इसका मतलब ये नही है कि चर्चा निरर्थक है.
जवाब देंहटाएं- विजय
Vistrit aur sundar charcha...
जवाब देंहटाएंLekin tum hamesha vyngkaar hi rahoge....kahin se bhi vyangy khoj hi loge......
मुझे व्यंग्य पढ़ना अच्छा लगता है. मगर लिख नहीं पाता. जाहिर है मैं न तो फुरसतीया और न ही पोराणिक, शिवकुमार या समीरलाल बन सकता हूँ. काश!...
जवाब देंहटाएंलम्बी चर्चा...और बहुत दिनों बाद पढ़ी गई चर्चा. मेरा चिट्ठा भी शामिल देख और आनन्द आया. ऐसा होना नहीं चाहिए मगर क्या करें है तो इंसान ही ना :)
ओबामा मोदी और बसंत
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा अच्छा अंत
अमर ज़ैदी की रचनाये अच्छी
दिल मे बस जाता बस अंत
यह सब क्या जाने बसंत