शनिवार, जनवरी 31, 2009

आओ विचारें मिलकर सभी

सोच रहा हूँ कहाँ से शुरूआत करूँ, कहीं ये विचारों का मर जाना तो नही। कह नही सकता शायद इसकी वजह ३-४ दिन से कुछ ना पढ़ पाना हो। सपनों का मर जाना, हो सकता है खतरनाक हो लेकिन आजकल उससे कहीं अधिक खतरनाक है नौकरी का चले जाना, कम से कम अमेरिका में तो ऐसा ही लगता है।

फिर सोचता हूँ कि मैंगलौर के उस पब में जिसका पता हमें अभी अभी चला है अगर घंटी होती तो क्या कोई बजाने जाता? घंटी का तो पता नही लेकिन सालों पहले गोडसे ने जो एक ट्रिगर दबाया था उसकी गूँज आज तक सुनायी देती है जिसमें अहिंसा के पुजारी की हिंसात्मक मौत हुई थी।

हिंसा की बात चली तो मुझे तालिबानी याद आ गये, बेचारे हो सकता है कहीं बैठे बदनामी का घूँट पी रो रहे होंगे। जो अमेरिकी सेना नही कर पायी वो भारतीय मीडिया और ब्लोगरस ने कर दिखाया। क्योंकि जिस हिंसा को तालिबानी नाम दिया वो वैसा ही है जैसे ऊँट के मुँह में सामने जीरा।

खैर ये बेतरतीब विचार तो यूँ ही फैले रहेंगे, इस बार चर्चा की फोरमेलिटी करके जा रहे हैं, फुरसतिया को फुरसत में ना होने की भी नही बता पाये। चलते चलते स्कूल के वक्त पढ़ी मैथिलीशरण गुप्त की ये कविता आर्य आपके लिये पोस्ट कर जाते हैं -

हम कौन थे, क्या हो गये, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें मिल कर, यह समस्याएं सभी।

भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है।

यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े।

वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा।

संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में।

वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे।

अगले शनिवार फिर मिलेंगे लिखते लिखते, तब तक हंसते रहें मुस्कुराते रहें, फासलें कम करें और पास आते रहें।

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12 टिप्‍पणियां:

  1. आपने स्वयं ही इसे फॉर्मेलिटी चर्चा कहकर आधी टिप्पणियाँ तो खुद ही कर लीं :)

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  2. चिंता कोनी। काम करो,नौकरी बचाओ। चर्चा तो होती ही रहेगी।
    इत्ती करी बहुत है जी! वो कहते हैं न विषय प्रवृर्तन हो गया। चर्चा अब हो जायेगी।

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  3. चलो आज छोटी सी चर्चा ही सही !

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  4. चर्चा तो चर्चा है। छोटी हो या बड़ी। अच्छा किया जो हाजिरी दे दी। बाकी काम अनूप जी शाम होते-होते पूरा कर डालेंगे। मैं भी चला नौकरी बचाने...। :)

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  5. "आओ विचारें आज मिल कर समस्याएं सभी" वाली चर्चा।
    धन्यवाद ।

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  6. धारण कर केशरिया बाना
    हाथों में ले चूहा-कुंज़ी
    उठे निट्ठल्ले से खिल
    लिखते गर्भित-चर्चा

    तो निट्ठल्ला,चला काम पर
    अउर, हम दें टीप्पन्नी ?

    :)यह भी ज़रूरी है.. :)


    कविता विकृतिकरण
    स्व. श्यामनारायण पाँडेय जी
    से क्षमायाचना सहित - साभार !

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  7. नौकरी के चले जाने की खतरनाकियत का अहसास मुझे सरकारी क्षेत्र में होने पर भी हो रहा है। और मैं सोचता हूं कि अगर हर व्यक्ति यह आकलन करे कि कम से कम में किस प्रकार स्तरीय जीवन जिया जा सकता है तो चौकाने वाले रेवेलेशन सामने आयें।

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  8. बढ़िया तो है चर्चा-ऐसे ही करते हैं. शाबाश बालक, लगे रहो..अगले शनिवार को फिर मुलाकात होगी. :)

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  9. कोई नी.. नौकरी रहेगी तो पैसे रहेंगॆ, पैसे रहेंगे तो अन्तर्जाल रहेगा, अन्तर्जाल रहेगा तो बिलागरी रहेगी। डोंट वरी, बी हैप्पी।

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  10. बेहद सटीक एवं सामयिक आलेख लेकिन गुप्त जी की इस कविता के लिये विशेष बधाई स्वीकारें......

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  11. घणा जरुरी काम है कि काम करते हुये चर्चा की गई. कम ज्यादा से जरुरी है नियमितता. और वो मौजूद है. घणी बधाई.

    रामराम.

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  12. by god ji aaj kal naukari ki chinta bahut bhaari chinta ho gai hai. sabhi ki naukri bachi rahe prabhu !

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