सृजनशिल्पी ने चिट्ठाचर्चाकारों के लिए कठिन परिभाषाएँ तय कर दीं तो जहां रविरतलामी के भीतर के आदमी को रोना आ गया तो वहीं प्रभाकर पाण्डेय अपने भीतर के आदमी की असलियत बताने लगे -
दूध हो या व्हिस्की हो,
विष हो या अमृत हो,
पी लेता है ,
आदमी.
धन चाहे जैसा हो,
गोरा हो या काला हो,
पचा लेता है,
आदमी.
पर, लगता है यह असलियत तो मेरे अपने भीतर के आदमी की है! आप भी जरा कोशिश कीजिए अपने भीतर के आदमी के भीतर झांकने की...
और लीजिए, शुएब तो खुदा के भीतर झांकने की लगातार कोशिशें कर रहे हैं. उन्हें उनकी इन शानदार कोशिशों के कारण उर्दू चिट्ठा जगत में उनके जान-माल के लिए कई फ़तवे हासिल हो चुके हैं. परंतु हिन्दी चिट्ठाजगत उनकी हौसला आफजाई करता दीखता है.
आपके विंडोज़ में क्या लोचा है? कभी देखने की कोशिश की आपने? क्या कहा? लोचाईच लोचा है. चलो कोई बात नहीं, आप भी मुन्नाभाई के दूसरे नंबर के सरकिट हैं, जिनके पास कुछ ऐसे लोचे हैं-
1. बिल्लू भाई, तुम कम्प्यूटर में स्टार्ट का बटन लगाया, स्टाप का बटन भी लागने का।
2. तुम इदर सर्च का बटन लगाया, अपुन की बाईक की चाबी गुम हुई, अपुन बोत सर्च किया इस बटन से मगर नई मिली, जरूर इसमें कोई लोचा है।
3. तुम इदर री साईकिल का बटन लगाया पर अपुन के पास साईकिल नहीं बाईक है, तो अपुन को रीबाईक का बटन भी मांगता है।
4. इदर नोटपेड है पर पेन किदर है? इस पर कैसे लिखने का?"
बाकी का लोचा आगे चिट्ठे पर पढ़ने का. बंदे ने उधर भी बहुत मेहनत से लिखेला है.
कैलाशमोहनकर ने ग़ज़ल की दुनिया में एक बेहतरीन ग़ज़ल पेश किया है -
देखकर लोग मुझे नाम तेरा लेते है
इसपे मैं खुश हूं मोहब्बत का ये अंजाम तो हैवो सितमगर ही सही देखके उसको साबिर
शुक्र है इस दिल-ए-बीमार को आराम तो है
यहाँ शायर के बारे में भी दो पंक्तियाँ होतीं तो अच्छा होता, क्योंकि अकसर ऐसा हो जाता है -
वो पूछते हैं कि कौन है साबिर
अब बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या?
(असली शेर कुछ दूसरे स्वरूप में है.)
एक और ग़ज़ल में वे दिवार पर थोकर लगवा दिए, जिसे रमण ने दीवार पर ठीक से ठोकर लगवाया. बहरहाल, प्रयास स्तुत्य है, भरे ही हिज्जे में अटक जाता है. भुवनेश खुद कुछ कहने के बदले परसाईं की "खेती" कर रहे हैं, तो उधर कुंजीपट के सैनिक - नीरज - परसाईं से असहमत हो रहे हैं. इधर उड़ती चिड़िया के इंतजार युक्त सपने तो मेरे ‘अपने' सपने जैसे दिखाई देते हैं -
सपने देख-देख कर मन भी
और नहीं फिर बुन पाता है,
कड़वाहट-सी भर जाती है
जग नहीं बिलकुल भाता है।
कितना सही कहा है! मर्सीडीज़ बैंज सी क्लास के सपने देख देख कर अब तो मुझसे मारुति800 के भी सपने बुने नहीं जाते! मुँह में कड़वाहट ने तो पैर जमा ही रखा है - स्थाई! और, बिना हॉण्डा सिटी के जग कैसे भाएगा भाई! बहरहाल, आपके सपने कैसे हैं? मिठास युक्त? शक्कर या सैकरीन या शहद युक्त? तो हमें भी बताइए अपनी अगली प्रविष्टि में!
वंदेमातरम् में वायुसेना की पचहत्तरवीं सालगिरह पर हुए शानदार समारोह का शानदार विवरण है. यह संयोग ही है कि इसी दौरान कारगिल युद्ध के समय भारतीय वायुसेना के प्रमुख रह चुके, रिटायर्ड एयर चीफ मार्शल ए. वाई. टिपणीस ने अपने ताजा आलेख में थलसेना पर गंभीर आरोप लगाए हैं. देखना दिलचस्प होगा कि यह विवाद कहाँ तक तूल पकड़ता है. उन्मुक्त दो महान कवियों के बीच के विवादों की चर्चा कर रहे हैं. वैसे, किसी भी दिए गए दो कवि के बीच विवाद तो होता ही है - भले ही ‘प्रकट' में न हो - 'मन' में यह विवाद होता ही रहता है - तेरी कविता मेरी कविता से अच्छी कैसे? वैसे, चिट्ठाकारों के मन में (भई, मेरे जैसे,) भी यह विवाद होता रहता है - तेरे चिट्ठे पे मेरे चिट्ठे से ज्यादा टिप्पणियाँ/हिटकाउंटर-संख्या कैसे?
इस दफ़ा की टिप्पणी में संजय की टिप्पणी देना अत्यंत जरूरी है. बताएँ क्यों? हर चिट्ठे पर संजय अपनी टिप्पणी से छाए हुए हैं. उनकी यह टिप्पणी छायाचित्रकार पर:
मिथक हुए मौन.
सही कहा हैं,
समय से बलवान कौन?
और इस चर्चा का चित्र देश दुनिया से, जो टायलेटगेट कांड के बारे में यह बता रहे हैं कि विश्व शतरंज चैंपियनशिप मुकाबले में भाग लेने के लिए टॉयलेट में भी जुगाड़ बनाए रखने पड़ते हैं!
और, अंत में व्यंज़ल, जिसकी फ़रमाइशें अकसर होती रहती हैं :
कैसा है तेरे भीतर का आदमी झांक जरा
फल यहीं है, प्रयास को पहले आंक जरारोते रहे हैं भीड़ में अकेले पड़ जाने का
मुखौटा छोड़, दोस्ती का रिश्ता टांक जरा
फिर देखना कि दुनिया कैसी बदलती है
चख के देख अनुराग का कोई फांक जरादौड़ कर चले आने को लोग बैठे हैं तैयार
दिल से बस एक बार लगा दे हांक जरा**-**
कैसे समझेंगे तेरे विचारों को लोग रवि
अपने अबूझे चरित्र को पहले ढांक जरा
(पुनश्च: सृजनशिल्पी की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश की है मैंने. यह प्रयास कैसा है यह तो पाठक और सृजनशिल्पी ही बता पाएँगे. वैसे भी मेरा यह प्रयास ‘प्रथम और अंतिम' की तरह दीखता है - अपने चिट्ठा लेखन से भी ज्यादा गंभीर, ज्यादा कठिन!)
बहुत बढिया लिखा
जवाब देंहटाएंआपसे यही उम्मीद थी :-)
परवर्तित रुप में बहुत अच्छा है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं-प्रेमलता
हमे तो पसन्द आया, अब सृजनशिल्पीजी भी अनुमोदन कर दे बस.
जवाब देंहटाएंचिट्ठा चर्चा का नया रूप बहुत अच्छा है मगर लैपटॉप के स्क्रीन पर दांयी ओर के विजेट नजर नहीं आते।
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन और व्यंजल के तो क्या कहने:
जवाब देंहटाएं"जनता समझेगी तेरे विचारों को भी रवि
अपने अबूझे चरित्र को पहले ढांक जरा"
-वाह
आपने मेरे द्वारा सुझाए गए मानदंडों पर खरा उतरने की कोशिश की, यह आपका बड़प्पन है। मुझे पूरा विश्वास है कि धीरे-धीरे चिट्ठा चर्चा की इस विधा का विकास होता जाएगा और आने वाले दिनों में हमें बेहतर से बेहतर समीक्षाएँ पढ़ने को मिलेंगी।
जवाब देंहटाएं