बुधवार, अक्तूबर 25, 2006

पहली नज़र का प्यार

इधर पिछले कुछ दिनों से आप एक से एक उच्च स्तरीय चिट्ठा चर्चा पढ़ रहे हैं. अतूल भाई, राकेश जी, रवि जी, अनूप जी और फिर मुनिवर जीतू भाई के साथ साथ संजय और पंकज बैगाणी बंधु, सब नये नये तरीकों से झंड़े गाड़ते रहे और हम सोचने लगे कि अब हमारा तो गुजारा मुश्किल है, क्या करें क्या न करें की स्थिती लगातार बनी रही. फिर भी लिखना तो है ही, वादा दिया हुआ है तो मुकरें कैसे, तो चलिये, बस लिख ही देते हैं. तो शुरुवात एक कुंडलीनुमा रचना से:

मौका ये त्योहार का, मची हर तरफ है धूम
क्या हिन्दु क्या मुसलमां, सभी रहे हैं झूम.
सभी रहे हैं झूम कि नेता सब खुशी से आते
मिठाई दिवाली की और ईद की दावत खाते
कहे समीर कि इनको देख है हर कोई चौंका
गले मिल ये ढ़ूंढ़ते, कल लड़वाने का मौका.

-समीर लाल 'समीर'


पटाखों का धुऑ अभी छंट ही रहा था कि ईद का जश्न शुरु हो गया. लोग डूबे हुये हैं त्योहारों का जश्न मनाने में. इसी भीड़ को छांटते हुये हम भी चल पडे़ देखने कि क्या गतिविधियां रहीं चिट्ठा जगत में.

सबसे पहले मुलाकात हुई भाई लक्ष्मी गुप्ता जी, बड़े सारे प्रश्न लिये अपनी राग में गाते हुये मिले:

इतनी बार दिवाली आई

अंधकार पर ज्यों का त्यों है

इतना मधु उपलब्ध

कण्ठ फिर सूखा क्यों है

इतने आशा दीप जले पर

ऐसी अंध निराशा क्यों है

इतनी बार……


और जैसे ही हम आगे बढ़े, तो रत्ना जी से मुलाकात हो गई. अब तो वो विडियो लगाना सीख गईं हैं ब्लाग पर तो बस संभलिये, लगातार कुछ न कुछ मिलता रहेगा. ज्यादा लिखना भी नहीं पड़ेगा और हिट पोस्ट तैयार, वाह भई, क्या तरीका निकाला है..:)
आज वो दिखा रहीं है..एक शाम मुन्नवर राना के नाम,वाकई दर्शनीय है.

इसी पोस्ट पर हमारी बात से सहमत अनूप शुक्ल जी लिखते है:

रत्नाजी, ये फोटो लगाना सीखा आपने, चलचित्र लगाना सीखा आपने उसके लिये बहुत-बहुत बधाई. लेकिन आप लिखना काहे भूल गयीं! अरे फोटू लगाने, चलचित्र लगाने का मतलब यह नहीं कि लिखें न! अनुरोध है कि विस्तार से मुनव्वर राना के बारे में लिखें.

ई छ्त्तीसगढ़ पर जिया कुरेशी ने देशी दवा का दर्द बढ़ेगा की बात करते हुये बताया:

फार्मा सेक्टर की कई मल्टीनेशनल कंपनिय़ों को भारत में ब़डे पैमाने पर अपने उत्पाद लांच करने का अवसर जल्दी मिलने जा रहा है, ऐसा इसलिए संभव हो रहा है कि भारत सरकार जल्द ही 5 वर्षीय़ डाटा संरक्षण की अनुमति देने की तैयारी में है।

सृजन शिल्पी एक अत्यंत विचारोत्तेजक लेख 'भूख' लेकर आये जो कि अगर आप पढ़ेंगे तो एक ही सांस में पढ़ जायेंगे और पीछे न जाने कितने सवाल साथ हो लेंगे. सृजन शिल्पी जी को बधाई.

भूख ही है जिसके कारण मजबूर होकर इंसान दूसरे इंसानों की दासता स्वीकार करता है और औरतें वेश्यावृति के कलंक को अपनाने के लिए विवश हो जाती हैं। आज भी मनुष्य को सबसे अधिक मजबूर भूख ही करती है। भूख एक निर्मम सच्चाई है। विवेकानन्द जैसे महान तपस्वी साधक को भूख ने कई बार अत्यंत विचलित किया था।


लेख के अंत मे आपने बाबा नागार्जुन की अत्यंत प्रसिद्ध कविता ‘अकाल और उसके बाद’ में भूख और गरीबी से बदहाल परिवार की दशा का वर्णन किस तरह से किया है, यह बताया:

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।


भुवनेश भाई बोले कि मुझे कुछ कहना है, हम भी कुछ थोड़ा बहुत कहेंगे तो वो शुरु हुये गिद्ध भोज पर और कहते ही चले गये, मगर कहे बहुत अच्छा हैं तो हम भी नहीं टोके:

वो जमाने हवा हुए (या कहें बस हवा होने ही वाले हैं) जब किसी समारोह या उत्सव में लोग साथ बैठकर पंगत में भोजन किया करते थे। पर आजकल लोगों को ये तरीका आउटडेटेड लगने लगा है, हालांकि आज भी कुछेक आउटडेटेड टाइप लोग अपने यहाँ शादी-विवाह में इसी तरीके से मेहमानों को भोजन कराते हैं।


फिर इसके फायदे बताते हुये कहते हैं:

वैसे गिद्ध-भोज के भी अपने फ़ायदे हैं। बेचारे जवान लङकों को वॉलन्टियर्स की तरह बार-बार भोजन परोसने जैसा पकाऊ काम नहीं करना पङता और वे हर आने वाली लङकी को आराम से प्रत्येक एंगल से निहार सकते हैं। कई युवा जोङे तो एक-दूसरे को अपने हाथ से खाना खिलाकर अपने भावी जीवन की रिहर्सल कर रहे होते हैं( वैसे शादी के बाद ऐसा कुछ नहीं होता)।

उधर क्षितिज जी अपने पहली नजर के प्यार का आंकलन कर रहे हैं और एक सज्जन से मिल कर उनसे पीछा छुड़ा कर अभी अभी कुछ हल्का महसूस करना शुरु किये हैं.

सुखसागर में जानिये पाण्डवों के हिमालय गमन के बारे में, तो उधर इंडिया गेट पर चिंता व्यक्त की जा रही है कि नारायण अपने सुरक्षा सलाहकार हैं कि पाक के

सृजन शिल्पी फिर अवतरित हुये और इस बार वो लाये: मुहम्मद साहब का आखिरी संदेश और कबीर के राम

आज के जुगाड़ में नुक्ता चीनी बता रहे हैं कि बनाओ अपना गूगल खोजी और अपने सागर भाई कैसे छुट जाते सो वो ले आये कि नोटपेड को डायरी में कैसे बदलें पूरा स्टेप बाई स्टेप समझा गये और रमण भाई ने लोगों की नजरंदाजी को ध्यान में रखते हुये बता दिया कि जब .LOG टाईप करें तो ध्यान रखें कि वह केस सेंसिटिव है.

हिन्दी चिट्ठे और पोड्कास्ट प्रविष्टियों की जानकारी देता रहा. मगर अब नारद के वापस आ जाने पर इसकी कितनी महत्ता है, यह कहना तो मुश्किल ही है. वैसे इस चिट्ठे पर एक लेख भी छपा है, पौत्री का बाबा से मिलन इस लेख में न्याय मूर्ति एम.सी.देसाई की जीवनी पर आधारित है. साथ ही उनकी पौत्री किरन देसाई द्वारा रचित २००६ के बुकर पुरुस्कार प्राप्त कृति The Inheritance of Loss का भी जिक्र है.

चलते चलते हमें प्रभाकर गोपालपुरिया ईश्वर को तलाशते नजर आये, ईश्वर कहां है? :

मैंने किए तप, पूजा-पाठ भारी,
उपवास रखे कई-कई दिन,
यहाँ तक कि नहीं पिया पानी,
फिर भी ना मिले, ना दिखे,ना बोले,
त्रिपुरारी,दीनदयाल,वामनरूपधारी ।...........


और शुऐब भाई ले कर आये अपना कालम ये खुदा है-३६, ईद का भाषण, वाह भई वाह.

तथा गीत सम्राट राकेश खंडेलवाल जी आधुनिकीकरण पर अपने उसी मनोहारी अंदाज में गीत गाते मिले:

रोता कासिद गई हाथ से नौकरी
काम ईमेल से चल रहा आजकल
कोई संदेस बन्धता गले में नहीं
इसलिये हो रहा है कबूतर विकल
अब पड़ौसी के बच्चों को मिलती नहीं
टाफियां, या मिठाई या सिक्का कोई
सिर्फ़ आईएम पर और मोबाईल पर
इन दिनों है मोहब्बत जवां हो रही...........


बस दुकान बंद कर ही दी थी हमने, बत्ती बुझा दी, गल्ला बंद और फुरसतिया जी टपके कि भईया, हमऊ को सुन जाओ. हमने बहुत समझाया कि कल सुनाना और वैसे भी तुम सुनाते बहुते लंबा हो, अब घर जाने दो, तो वो मुँह फूला लिये. अब उनको नाराज छोड़ कर जाना तो अच्छे खाँ के बस की बात नहीं तो हम क्या चीज है, बैठ गये सुनने.
कहिन वो पॉलीथीन से सुबह सुबह मार्निंग वाक पर मुलाकात हुई थी, उसी की कथा है. हम कहे, यार, यह सब क्या लिखते हो? कल को गोबर पर लिखोगे फिर न जाने क्या क्या. कुछ तो टापिक ठीकठाक जैसे फूल पत्ते आदि पर लिखा करो.

तुरंत दो मुँह जवाब सांट दिये कि आप ही तो वो झोला पर लिख कर हमें बिधवाये हो, तबहिं तो लिखना पडा़.

घर-घर वासी, गली-निवासी, नाली-प्रवासी, मैदान-विलासी पालीथीन की महिमा से कौन अभागा परिचित नहीं है? दसो दिशाऒं में आपकी पताका फहरा रही है। मैदान की सारी घास के ऊपर आपका उसी तरह से कब्जा है जैसे पूरे देश को जड़ता और भ्रष्टाचार ने अपने चंगुल में कर रखा है। बतायें देवी मैं आपके लिये क्या कर सकता हूं?


आगे पॉलीथीन को टरकाने की कोशिश में बताते हैं:

अच्छा मैं लिखने की कोशिश करूंगा। लेकिन तब जबकि समीरजी एक कुंडलिया लिखेंगे इस पर और राकेश खंडेलवालजी चार लाइन की कविता।
आप भी एकदम मिडिलची बुद्धिजीवियों की तरह बात करते हैं जो कि यह चाहते हैं कि पहले देश से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाये, भाई-भतीजा वाद खत्म हो जाये, सारी स्थितियां सुधर जायें तब वे देश सेवा के काम में जुटें। देश के लिये कुछ करने की सोचें। अरे समीरजी को, राकेशजी को जो लिखना होगा वो तो लिखेंगे ही। आप अपना काम करिये न! लिखिये न कुछ मेरे बारे में।


अब हमारे पास कोई जवाब नहीं बस लेख के माध्यम से पॉलीथीन पर कुंड़लीनुमा लिखने की फरमाईश पूरा करने के सिवाय.तो पेश है:

झोले की पोती पॉलीथीन महिमा

अंग्रेजी नामों का झंडा, घर घर जाकर लहराय
झोला का बेटा तो झोला, पोती पॉली कहलाय
पोती पॉली कहलाय कि सब उसके गायें भजन
फल फुल सब्जी किताब, सबहि का ढ़ोये वजन
कहे समीर कि इससे प्रदुषण फैले है मनमर्जी
फिर भी प्रचलन में क्यूँकि, आईटम है अंग्रेजी.

--समीर लाल 'समीर'



आज के लिये इतना ही, बाकी समाचर लेकर हम फिर आयेंगे, देखते रहें चिट्ठा चर्चा.


आज की टिप्पणी:

अनुनाद, नुक्ताचीनी पर:

दादा, आपने अच्छी जानकारी दी, इसके लिये धन्यवाद।
किन्तु मुझे लगता है कि इस समय हिन्दी के लिये एक ऐसे यन्त्र की जरूरत है जो-
१) अनयूनिकोडित हिन्दी पृष्ठों को भी खोज सके, और
२) बिना किसी फांट डाउनलोड के उन पृष्ठों को दिखा सके। (यदि लगे हाथ यूनिकोडित भी कर दे तो सोने पे सुहागा)


राकेश खंडेलवाल , प्रभाकर गोपालपुरिया पर:

हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा
मान्यता दी बिठा बरगदों के तले
भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे
घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले
धूप अगरू की खुशबू बिखेरा किये
और गाते रहे मंगला आरती
हाथ के शंख से जल चढ़ाते रहे
घंटियां साथ में लेके झंकारती

भाग्य की रेख बदली नहीं आज तक
कोशिशें सारी लगता विफल हो गईं
आस भरती गगन पर उड़ानें रही
अपने आधार से कट विलग हो गई.



आज की तस्वीर:
आज किसी भी चिट्ठे पर कोई तस्वीर नहीं छपी, तो पुरानी तस्वीरों की तलाश में हम जब निकले, तब अतुल भाई के ब्लाग सात समंदर पार से यह टीप लाये:


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1 टिप्पणी:

  1. बहुत खूब. यह सच है कि कुछ चिट्ठे तो हम चिट्ठा चर्चा पढ़ के पढ़ते हैं. आपकी कुडलियां पर तो गजब की महारत हो गयी है. बिंदास.

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