आज की कुछ खास पोस्टों के जिक्र की शुरुआत शुऐब की पोस्ट से। शुऐब जब लिखते हैं तो अपना पूरा दिल अपने लेख में नत्थी कर देते हैं। अपनी बात भारत के त्योहार प्रधान देश होने की बात से शुरू करते हैं:-
क्या अजीब देश है हमारा, यहां कभी त्योहार खतम होने का नाम ही नही लेते कभी दीपावली की खरीदारी तो कभी रमज़ान की गहमा गहमी, कभी दशहरा तो कभी दर्गाग पूजा। पिछले चंद महीनों मे त्योहारों का जैसे एक सिलसिला चल रहा है।
त्योहारों के मेले में होते हुये वे धर्म की दुकान की पड़ताल करने पहुंच जाते हैं और अपने दिल का बटुआ खोलना शुरू करते हैं:-
भारत कोई ऐसा वैसा देश नही जहां हिन्दू-मुसलमानों के बीच सिर्फ दंगे ही होते हैं - भारत के हिन्दू और मुसलमान अपस मे लडते ज़रूर हैं मगर एक दूसरे के बगैर रह भी नही सकते। वैसे तो मैं सिर्फ नाम का मुसलमान हूं और हर दिन मुसलमानों मे उठता बैठता हूं लेकिन अपने देश के कल्चर को ही अपना धर्म और भारत को अपनी मां सम्मान मानता हूं। मैं ने हमेशा से हिन्दू को हिन्दू नहीं बल्कि अपना भाई माना है हालांकि दंगों के वक्त अपने हिन्दू भाईयों से मार भी खा चुका हूं।
लेकिन सच बात तो यह है कि वे अपने दोस्त से मिलवाना चाहते हैं आपको:-
यहां दुबई मे कहने को बहुत सारे दोस्त हैं मगर अपना जो सच्चा दोस्त है वो एक हिन्दू है, ज़रूरतों पर काम आने वाला, खुशी और दुःख मे साथ देने वाला हालांकि वो अभी तक मुझे मुसलमान ही समझता है फिर भी अपनी सच्ची दोस्ती निभाता है। हम पिछले चार वर्षों से साथ हैं लेकिन आज तक उस ने मुझ से ये नही पूछा कि दूसरे मुसलमानों की तरह तू नमाज़ क्यों नही पढता? जबकि मैं ने उस से पूछ डाला तू पूजा पाठ क्यों नही करता? उसने जवाब दियाः “हालांकि मेरे माता-पिता हिन्दू हैं और पूजा भी करते हैं लेकिन जब से मैं ने दुनिया देखा धर्म पर से विश्वास उठ गया। ये सारे लोग झूठे हैं जो सुबह शाम राम अल्लाह का नाम लेते हैं और छुप कर गलत काम भी करते हैं लेकिन मैं राम अल्लाह का नाम नही लेता सिर्फ अपने दिल की सुनता हूं जो बुरा लगे वो बुरा और जो अच्छा लगे वो अच्छा।”
यह पढ़कर भाटिया जी का दिल भर आया और संजय बेंगाणी मुस्करा उठे।
रत्नाजी मुनव्वर राना के बारे में लिखने से बचना भले न चाह रहीं हों लेकिन जाने-अनजाने टाल जरूर रहीं थीं। लेकिन पाठकों के दबाव और सूचना के अधिकार के आगे उनकी एक न चली और उनको मुनव्वर राना की शायरी के बारे में लिखना पड़ा। रसोई के खाने का मजा रसोई में ही है इसलिये आप बेहतर होगा कि रत्नाजी की पोस्ट पढकर ही मुनव्वर राना की शायरी का मजा लें लेकिन कुछ ऐसे शेर यहां मैं दे रहा हूं जिनको पढ़कर मुझे डर है कि आप आगे की चर्चा पढ़े बिना रसोई की तरफ़ जा सकते हैं:-
मैं इक फकीर के होंठों की मुस्कुराहट हूँ
किसी से भी मेरी कीमत अदा नहीं होती।
हम न दिल्ली थे न मज़दूर की बेटी लेकिन
काफ़िले जो भी इधर आए हमें लूट गए।
दिल ऐसा कि सीधे किए जूते भी बड़ों के
ज़िद इतनी कि खुद ताज उठा कर नहीं पहना।
मियां मै शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नरम भी कर लूँ तो झुंझलाहट नही जाती।
इश्क में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती
आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती।
अब मुझे अपने हरीफ़ों (प्रतिद्वंदी)से ज़रा भी डर नहीं
मेरे कपड़े भाइयों के जिस्म पर आने लगे।
ना कमरा जान पाता है न अंगनाई समझती है
कहाँ देवर का दिल अटका है भौजाई समझती हैं।
रत्नाजी की रसोई में जितना अच्छा बनता है उससे अच्छा यह भी है कि परसने में कोई कंजूसी नहीं - कहां भूखे का दिल अटका है, रसोई समझती है।
सृजन शिल्पी ने व्यंग्य के प्रतिमान और परसाई में हरिशंकर परसाई के लेखन और उनकी सोच के बारे में विस्तार से चर्चा की है। व्यंग्य के बारे में लिखते हुये वे कहते हैं:-
व्यंग्य वही कर सकता है जो जगा हुआ है और अपने संस्कार एवं चरित्र से नैतिक है। हर कोई व्यंग्य नहीं कर सकता। व्यंग्य मजाक या उपहास नहीं होता, कटाक्ष भी नहीं होता और यह किसी का अहित चाहने की भावना से नहीं किया जाता। व्यंग्य में सुधार की दृष्टि अनिवार्य रूप से होनी चाहिए, यदि यह दृष्टि उसमें नहीं है तो वह कुछ और भले हो, परंतु व्यंग्य वह नहीं हो सकता।
मनीष एक खूबसूरत गजल के शेर सुना रहे हैं:-
पुराने ख्वाब पलकों से झटक दो सोचते क्या हो
मुकद्दर खुश्क पत्तों का, है शाखों से जुदा रहना
डा. रमा द्विवेदी कुछ अलग-अलग परिभाषायें देती हैं:-
कोई खुश है परिश्रम की रोटी कमाकर,
कोई खुश है हराम की कमाई पाकर।
कोई खुश है बैंक बैलेन्स बढाकर,
कोई खुश है अपनी पहचान बनाकर॥
इन परिभाषाऒं के बाद वे कुछ रिश्ते परिभाषित करती हैं:-
पल-पल रिश्ते भी मुरझाते हैं,
उम्र बढते-बढते वे घटते जाते हैं।
मानव कुछ और की चाह बढाते हैं,
इसलिए वे कहीं और भटक जातेहैं॥
इन रिस्तों तक तो प्रधानमंत्री जी नहीं पहुंचे लेकिन उनको लगे रहो मुन्ना भाई बहुत पसंद आयी जैसे कि प्रतीक ने खबर दी। खबर तो गूगल की रोटी वे भी अधपकी के बारे में भी छपी है न मानो तो देख लो राजेश की बूंदे और बिंदु।
आजकल के बच्चे कमउम्र में जवान हो जाते हैं। प्रत्यक्षा अभी कल अपना जन्मदिन मनाया(कौन सा यह नहीं बताया और इसपर नया ज्ञानोदय में छपी उनकी ताजा कहानी के परिचय में रवींन्द्र कालिया ने लिखा है- प्रत्यक्षा ने अपनी उम्र नहीं बतायी) और आज अपने बच्चे के भविष्य की चिंता में लग
गयीं। बच्चे की पेंटिंग देखकर वे वैसे ही चकित रह गयीं जैसे कभी हम लोग उनकी पेंटिंग देखकर हुये थे । और यही सब बताते हुये वे आलस्य के पल पीने लगीं (क्या च्वाइस है!):-
ऊन के गोले
गिरते हैं खाटों के नीचे
सलाईयाँ करती हैं गुपचुप
कोई बातें
पीते हैं धूप को जैसे
चाय की हो चुस्की
दिन को कोई कह दे
कुछ देर और ठहर ले
इस अलसाते पल को
कुछ और ज़रा पी लें
जिन्दगी के लम्हे
कुछ देर और जी लें
आज की चर्चा में अभी इतना ही। बाकी बचे चिट्ठों के बारे में चर्चा देखिये दोपहर तक। तब तक अपने विचार ही व्यक्त कर दीजिये कैसी लगी इतनी चर्चा!
आज की टिप्पणी:-
१.बहुत बढ़िया सोच है आप की। आप का पढ़ता हूँ तो लगता है, अपना ही पढ़ रहा हूँ — अब तो अपने चिट्ठों का रंग भी एक ही है।
धर्म के ढ़ोंग से दुनिया का कोई कोना नहीं बचा, अच्छा तब हो जब यह ढ़ोंग व्यक्तिगत क्रिया कलापों तक ही सीमित रहे और दूसरों को बदलने या मारने पीटने तक न पहुँचे। त्यौहारों का दौर अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों में भी शुरू हो चुका है। यहाँ अभी हालोवीन है, फिर थैंक्सगिविंग, फिर क्रिस्मस, हानक्का… नव-वर्ष तक यही दौर चलता रहेगा। इस बार दीवाली और ईद के साथ मेरी पिछले साल की कुछ ग़मग़ीन यादें जुड़ी हुई हैं।
रमन कौल
२.मौका ये त्योहार का, मची हर तरफ है धूम
क्या हिन्दु क्या मुसलमां, सभी रहे हैं झूम.
सभी रहे हैं झूम कि नेता सब खुशी से आते
मिठाई दिवाली की और ईद की दावत खाते
कहे समीर कि इनको देख है हर कोई चौंका
गले मिल ये ढ़ूंढ़ते, कल लड़वाने का मौका.
समीरलाल
आज की फोटो:-
आज की फोटो घुमक्कड़ की नजर से
क्या ये भी ब्लागर हैं
हम फूल हैं
आजकी फोटू में आपने दो लँगूर ही पसन्द क्यों किये, और लोग भी तो थे. :)
जवाब देंहटाएंकहां भूखे का दिल अटका है, रसोई समझती है।
जवाब देंहटाएंवाकई, रत्ना जी की प्रस्तुति का सार है इन पंक्तियों में.
चर्चा बढ़ियां चल रही है, फिर इंतजार है.