आज जब कि पूरा देश सा रे गा मा देखने में जुटा है तो रमन कौल अपना वोट तो संचिता को देने की बात कर ही रहे हैं, आपसे भी अनुरोध करते हैं कि अपना वोट संचिता को ही दें। इसके पहले वे पूंजीवादी बनाम समाजवादी सर्वेक्षण कर चुके हैं। आज जब पूंजीवाद और समाजवाद में नाम के अलावा भेद कर पाना मुश्किल होता जा रह है तो ऐसे सर्वेक्षण में कैसे वोटिंग की जाये !
क्या खूबसूरती है
ये बेचारे क्रिकेट के मारे आज की एक बेहतरीन पोस्ट रही। मुरैना के भुवनेश धीरे-धीरे करके जमते जा रहे हैं हास्य-व्यंग्य लेखन में। राष्ट्रपति कलाम की तुलना में सचिन का देश के विकास में ज्यादा योगदान है यह बात व्यंग्य भी है और विडंबना भी:-
लोग राजनीति में नैतिकता और इसमें अच्छे लोगों को आना चाहिए जैसी कुछ बातें कर रहे थे। इतने में एक महाशय को राष्ट्रपति कलाम साहब का खयाल आया और उसने उनके सादा जीवन, उच्च विचारों और देश के लिए उनके योगदान की तारीफ़ कर दी। अन्य लोगों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिला दी। जब ऐसी बातें सुन-सुन कर इनके कान का दर्द बहुत बढ़ गया तो ये उबल पड़े- " किसने कहा आपसे कि कलाम ने देश का सबसे ज्यादा भला किया है, सचिन को तो लोग ऐसे भुला देते हैं जैसे उसने कुछ किया ही ना हो। जितना योगदान सचिन ने इतनी छोटी सी उम्र में देश के लिए दिया है उतना कोई माई का लाल सात जन्मों में भी नहीं दे सकता!"
किसी ने उनसे पूछ लिया कि- "बताईये सचिन का देश के विकास में क्या योगदान है उसने तो सिर्फ़ अपना ही भला किया है पैसे कमाकर।"
ये भड़क गये बोले- " अच्छा आपको उसका योगदान ही नजर नहीं आ रहा उसने कितने मैच जिताये सब भूल गये, आजकल के पढ़े लिखे लोग भी ये बात नहीं समझते। लानत है। "
भेड़ाघाट
लेकिन इस सब हास्य व्यंग्य से अलग पंकज बेंगाणी अपनी दुकान खोले बैठे हैं। प्रतीक ने एक नयी बात उठायी कि अगर हिंदी को देवनागरी की जगह रोमन लिपि में लिखा जाये तो कैसे रहेगा। बहुत बाहियात बात है यह कुछ ऐसा विचार है पंकज बेंगाणी का जो कहते हैं:-
बकवास बात है। हिन्दी को देवनागरी में ही लिखा जाना चाहिए। जो है वही है। देखिए पहली बात जो जिसकी चीज उसीको सोहे... रोमन में हिन्दी कभी ढंग से पढी नहीं जा सकती.. sms ya email तक ठीक है। बाकि हिन्दी देवनागरी लिपि में ही बेहतर है।
जो लोग हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने के पैरोकार हैं उनकी मानसिकता गुलामी की है। हिन्दी की अपनी लिपि है और वही रहनी चाहिए... आज युनिकोड आने के बाद इतने सारे संजाल हिन्दी में भी बन गए हैं। तो रोमन में लिखने की क्या जरूरत है? और हमारी तो खुद की लिपि है.. कोई फ्रेंच या जर्मन या स्पेनिश थोडे ही है।
भेड़ाघाट
उन्मुक्त हरिवंशराय बच्चन के इलाहाबाद के बारे में विचार बता रहे हैं और उधर जीतेंद्र को नैनों ने ठग लिया । अब यह बात जीतेंद्र को हम कैसे बतायें कि उनके ब्लाग के नये रंग रूप ने हमें ठग लिया है और हम यही नहीं समझ पाये अभी तक कि टिप्पणी कहां / कैसे करनी है।
गिरिराज जोशी आजकल बहुत सक्रिय हैं। परिचर्चा में हुये कवितागीरी का हवाला देने के साथ-साथ अपने कुछ पसंदीदा शेर पेश किये।
हमारी बात वे अपने शब्दों में कहते हैं:-
हमने गुजार दी ताउम्र जिनकों समझने में
वो कहते है नहीं कोई सुलझा हुआ हमसा ॰॰॰
रीतेश अपनी कविता में जीवन के अकेलेपन को दूर करने की बात करते हैं:-
तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
अकेले फ़ूल से उपवन नहीं बना करते
सात रंगों के साथ से बनता है इन्द्र्धनुष
जीवन गुलशन कर लीजिये
इस बेखुदी में क्या रख्खा ह
रजनीजी जिंदगी का खाका खींचते हुये कहती हैं :-
इस कोने से उस कोने तक
इस मकान से उस चौराहे तक
हर रोज़ बाँग लगाती है ज़िन्दगी
गली में कस्बे सी समाती है ज़िन्दगी
प्रभाकर पांडेय ने भी अपने कुछ पसंदीदा शेर पोस्ट किये मुझे जो सबसे ज्यादा जमा वो है:-
अगर ये जिद है कि मुझसे दुआ सलाम न हों,
तो ऐसी राह से गुजरो जो राहे आम न हो ।
आपने ये जो ऊपर के फोटू देखे वे हमारे कालीचरण भोपाली जी के खींचे हुये हैं। बाकी फोटू भी आप यहां देख सकते हैं।
आज की टिप्पणी:-
1. यह शो देखता रहा हूँ, जहाँ नन्हे गायको को सुनना काफी अच्छा लगता हैं, वहीं झुठी नौक-झौंक तथा अभिजीत का लहरी से विवाद मन को खट्टा करता रहा
हैं. जजो में पक्षपात भी देखने को मिला.ऐसे शो में वोटींग कमाई का माध्यम हैं जो विजेताओं के चयन को बुरी तरह से प्रभावित करता हैं. कई अच्छे गायक बाहर हो गए तो कुछ उतने अच्छे न होते हुए भी बने हुए हैं. हालमें संचिता जीत की हकदार हैं पर निर्णय वोट से होना हैं.
संजय बेंगाणी
2.सा रे गा मा मेरा भी पसंदीदा कार्यक्रम है । २००५ में हिमानी, विनीत, देबजीत और हेमचन्द्र के गाये गीतों का बहुत लुत्फ उठाया था हम सब ने ।
http://indianspirit.blogspot.com/2005/12/sa-re-ga-ma-challange-2005.html
हालांकि बच्चों वाला सिलसिला मुझे २००५ के शो की तुलना में काफी फीका लगा ।
रही बात जजों की नौटंकी की तो रियाल्टी शो के नाम पर ये लोग संगीत सुनने का मजा बिगाड़ देते हैं और भाग लेने वालों के साथ जो होता है उसकी बानगी तो आपने बखूबी पेश की ही है । सन २००५ के सा रे गा मा के विजेता के चुनाव के पहले देबजीत को असम से मिलने वाले वोटों का नाटकीय ढंग से दिखा कर सनसनी पैदा करना हो या इंडियन आइडल - I में पंजाब के एक प्रतिभागी की वेश भूषा को ले कर की गई फराह खान की तल्ख टिप्पणी हो ये भोंडापन संगीत प्रतिस्पर्धाओं का अभिन्न अंग बनता जा रहा है। इस बारे में गुस्से में आकर ये पोस्ट लिखी थी
http://indianspirit.blogspot.com/2005/09/are-we-really-entertained-on_25.html
मनीष
आज की फोटो:-
आज सबेरे जब मैंने कुछ फोटो लगाये थे तो संजय बेंगाणी की टिप्पणी थी कि दो ही (बंदर) क्यों दिखाये। उनकी शिकायत दूर करने के लिये मैं बाकी साथियों के फोटो भी लगा रहा हूं ये भी घुमक्कड़ ने ही खींचे हैं:-
पियो जी खोलकर
वे दो हैं और हम तीन
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