बुधवार, अक्तूबर 11, 2006

रामू..एक गिलास पानी लाना

कवित्तमय आकाश हुआ, जब बोले कवि राकेश
आज हम भी लिखते चलें, कर पालन आदेश.
कर पालन आदेश कि अब हम क्या लिख डालें
राकेश जी के सामने, क्या अब भांग ही खा लें.
कहे समीर कि अब न कर समय का अपव्यय
मेरे बस का नहीं कि समां हो जाये कवित्तमय.

--समीर लाल 'समीर'

अब देखिये न! कल की चर्चा मे गीत सम्राट राकेश खंडेलवाल जी ने जो धुन छेड़ी कि बस छा गये. पूरी चर्चा कविता में. हम तो बस वाह वाह करते रहे. फिर हम सोचे कि अब तो कई दिनों तक वो कविता लिखने से रहे, थक गये होंगे. मगर वो कोई और होंगे जो थकते हैं, राकेश जी तो अपनी थाली में सुबह सुबह ही कविता का एक नव दीप लिये नजर आये. नाम धरे : नींद के साथ शतरंज मानते हैं जरुर खेली होगी, नींद के साथ शतरंज नहीं तो सुबह सुबह कहां से नई कविता आ जाती.

उधर दूसरी तरफ से आवाज आ रही थी, मुझे भी कुछ कहना है, हम पहुँचे तो अनूप भार्गव जी अपनी पांच मुक्तकों की माला सजाये बैठे थे, वाह जनाब, एक से एक मुक्तक और वो भी सब तुम्हारे लिये. अब जब तुम्हारे लिये हैं तो पढ़ो न:

प्रणय की प्रेरणा तुम हो
विरह की वेदना तुम हो
निगाहों में तुम्ही तुम हो
समय की चेतना तुम हो ।....


जैसे ही वहाँ से चले कि एक और कुण्ड्ली मचलने लगी:

नारद जी बस आ रहे, है हफ्ते भर की बात
क्या बदलेगी रुप भी, यह चिट्ठा चर्चा पात
यह चिट्ठा चर्चा पात कि अब आप बता दो
चलती रहे ज्यूँ आज या नव रुप सजा लो
कह समीर कि हमरा वैसा होगा हर कारज
जैसी आम सहमति, जब आ जायेंगे नारद.


--समीर लाल 'समीर'

इसी विषय पर एक पूरी की पूरी पोस्ट लेकर आये फुरसतिया जी.चिट्ठा चर्चा, नारद और ब्लाग समीक्षा इस विषय पर चर्चा करते हुये कहते हैं कि:

नारद का मह्त्व अलग है, चिट्ठाचर्चा के उद्देश्य अलग हैं।दोनों बराबरी और तुलना की बात करना मेरे ख्याल में दोनों के साथ अन्याय करना होगा। अगर समानता की बात ही करें तो शायद यह कहना ठीक होगा कि अगर नारद एक समाचार पत्र है तो चिट्ठाचर्चा उसका तीसरा पन्ना मतलब सम्पादकीय पेज। दोनॊं का अपना महत्व है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं न कि एक दूसरे के स्थानापन्न।
नारद में अन्य तमाम सूचनाऒं के साथ-साथ नयी पोस्टों का विवरण रहता है। यह आटोमैटिक औरा यांत्रिक है जबकि चिट्ठाचर्चा व्यक्तिपरक है।


और फिर कुछ इतिहास के पन्नों में झाकते हुये:

चिट्ठाचर्चा की शुरुआत गतवर्ष जनवरी में हुयी थी। इसकी शुरुआत के कारण और परिस्थियां पहली पोस्ट में बताये गये हैं। उस समय न नारद शुरू हुआ था न देसीपंडित। शुरू में यह मासिक सा था और काफ़ी दिन हम अकेले इसे लिखते रहे। जीतू, अतुल, देबू, रमणकौल समय-समय पर इसमें कुछ-कुछ योगदान देते रहे। पहले हम यह करते थे कि बारी-बारी से अपने-अपने हिस्से का लिखकर एके ही पोस्ट में प्रकाशित कर देते थे। धीरे-धीरे साथियों का उत्साह कम होता गया और यह अनियमित हो गया।


आप भी देखें इस पोस्ट को और इस विषय पर अपने विचार अवश्य दें.

तब तक नजर पड़ गई कविराज पर. हम से खफा हो कर मुँह फुलाये बैठे थे. लिख मारे हमें ईमेल और बना दी उसकी पोस्ट एक पाती, समीर भाई के नाम. ऐसा जबरी छात्र तो हमारे जीवन में कभी नहीं आया, हालांकि कईयों को पढ़ाये हैं.

आपकी कुण्डलियाँ पढ़-पढ़कर हमारा मन व्याकुल हो उठा है कुण्डलियाँ लिखने को, मगर हम ठहरे इसमे बिलकुल अनाड़ी, क्या करें??? सोचा कविताएँ लिख लेता हूँ, हाइकु लिख लेता हूँ तो कुण्डलिया क्यों नहीं लिख सकता?

हम भी पावती धर आये हैं:

देखा था गुगल चैट पर, कल ही आपको कविराज
पेंडिंग पड़ा निवेदन भी, एक्सेप्ट कर लिया आज.
एक्सेप्ट कर लिया आज कि अब हम लिखेंगे लेख
कुण्ड़ली पर जो अल्प ज्ञान है तुम भी लेना देख
कहे समीर कि हमरा तो सिर्फ़ कुण्ड़लीनुमा लेखा
नियम लगे हैं बहुत से, जब असल कुण्डली देखा


--आज शाम को आपको कुण्ड़ली के नियमों पर एक लेख समर्पित कर रहा हूँ.तैयारी रखें.:)

और आज ही उनकी इस पाती पर कुण्डली सिखाते हुये क्लास ली जायेगी. :)

क्या आपने कभी नीली गाय देखी है? अरे, नील गाय नहीं, भई, वो कोई नीली थोड़े न होती है, यहां देखें. हमारे छाया चित्रकार जी भी जो न दिखायें सो कम.

आँखों की निलिमा अभी उतरी भी नहीं थी, बैठ लिये इलाहाबाद प्रतापगढ़ वाले रुट की बस में: भैंस देखी, ताल देखे, कद्दु, नींबू, कठहल देखे. पूरा गांव और गंगा का किनारा सब देख आये, एक ही ट्रिप में.

जहां एक ओर कालीचरण जी रिडिफ पत्रिका से खफा दिखे और रमण जी यूट्यूब के अधिग्रहण का समाचार दे रहे हैं तो वहीं राजेश जी कुछ बून्दें, कुछ बिन्दु पर एक विज्ञापन कंपनी को ललकारते दिखे कि हिम्मत है तो बिहार मे ऐसा करके दिखाओ.

संजय बेंगाणी नये कानून पर अपने व्यंगात्मक लहजे में जबरदस्त बात कह गये : रामू..एक गिलास पानी लाना:

अरे रे रे.. कैसे कैसे ऊटपटागं कानून ले आते हैं और इनसे प्रभावित होने वालो से पूछा तक नहीं जाता. आजके बाद एक आम भारतीय बीबीजी किसे प्यार से कहेगी,”रामू…एक गीलास (ग्लास) पानी लाना.”


भाई पंकज बेंगाणी अपनी तरकश कथा सुना रहे हैं:

तरकश को महज एक समूह ब्लोग बनाने की मंशा कभी नहीं थी हमारी। हम आज भी नई नई चिजें तरकश पर लाने की लगातार कोशिष कर रहे हैं।

आज के जुगाड़ लिंक भी बेहतरीन हैं, यहाँ तक कि नाईजिरियन लेटर भेजने का भी जुगाड़ बताया गया है. अब ऐसे ऐसे जुगाड़ बतायेंगे तो नशा तो आयेगा ही, सो छुटपुट साहब नशा, चिट्ठा लिखने का पर चहक उठे.

मन की बात ने कवि सेनापति पर बहुत सुंदरता से बात की:

हिंदी-साहित्य के इतिहास में ऐसे अनेक कवि हुए हैं जिनके कृतित्त्व तो प्राप्त हैं, परंतु व्यक्तित्त्व के विषय में कुछ भी ठीक से पता नहीं है। भक्तिकाल की समाप्ति और रीतिकाल के प्रारंभ के संधिकाल मे भी एक महाकवि हुए हैं जिनके जीवन के विषय में जानकारी के नाम पर मात्र उनका लिखा एक कवित्त ही है, ऐसे श्लेषाधिराज महाकवि 'सेनापति' के विषय में लिखना आज 'मन की बात' है।


प्रभात टंडन जी तो सुबह से ही विडियो देखने बैठ गये, आप भी देखें और वहीं दुसरी तरफ सागर भाई S-8 और S-1 में ही हिन्दी अंग्रेजी में कन्फ्यूजियाये दिखे और बोनस मे बुद्धु के खिताब से नवाजे गये..

भाग कर जाकर एस वन के टी टी को पकड़ा तो पता चला कि अभी तक उन्होने किसी को सीट दी नहीं थी। सारा सामान और परिवार को लेकर एस एक में आये और बुद्धु कहलाये सो बोनस में…..।


कविराज हाजिर थे ब्लागर हाईकु लेकर मगर कल उनकी हाजिरी नहीं लग पाई तो आज लगाई जाती है.

हालत नौनिहालों की एक फरमाईशी आयटम है जिसे पेश किया रत्ना जी ने अपनी रसोई से.

प्रतीक भाई अमूली विज्ञापनों के साथ टाईम पास करते रहे और रचनाकार लाये
रामेश्वर कंबोज जी की चुनिंदा रचनायें:

सगे जो होते हैं
जरा जरा सी बात पर
मुँह मोड जाते हैं ,
हम चाहें उन्हें मनाना
पर वे साथ छोड़ जाते हैं.
इन सुखों ने और सगों ने
मौका मिलने पर
मुझको बार बार ठगा है,


अब जब हम अपनी दुकान समेट की चौपाल वाले अनुराग जी चिल्लाये मै भी मै भी. हम कहे ठीक है, चलो तुम भी.

तुम धरा हो।

सुर्य के ही इर्द गिर्द डाला है तूने सजग डेरा
भक्ति में खुद को भिगो, लेती रही उसका ही फेरा



तो अब हम चलते हैं और आप:

चिट्ठा बांचे आराम से, गर नहीं बचा कोई काम
हम को अब पाती लिखना है, कविराज के नाम



आज की टिप्प्णी:

सृजन शिल्पी, मन की बात पर:
बहुत खूब! साधुवाद, रीतिकाल के महान कवि सेनापति के कवित्त रस को प्रस्तुत करने के लिए।

किन्तु सेनापति के ऋतु वर्णन के प्रसिद्ध छंद वे माने जाते हैं जिनमें श्लेष का वर्णन नहीं है। श्लेष भाषिक चमत्कार की सृष्टि भले करते हों, लेकिन उनका कृत्रिम प्रयोग सृजनात्मक अभिव्यक्ति के सहज प्रवाह को भंग भी करता है।

श्लेष से अधिक सेनापति अपने कवित्तों की बंदिश में कमाल करते हैं और उसके सहारे ही वह पूरे वातावरण की सृष्टि कर डालते हैं। जैसे कि ग्रीष्म ऋतु वर्णन का यह छंद देखिए-

वृष कौं तरनि सहसौ किरन करि,
ज्वालन के जाल बिकराल बरसत है।
तचत धरनि, जग जरत झरनि, सीरी
छाँह कौं पकरि पंथी-पंछी बिरमत है।

उक्त छंद में लघु और दीर्घ ध्वनियों का ऐसा क्रम बन पड़ा है कि ग्रीष्म ऋतु का वातावरण साक्षात व्यक्त होने लगता है। लघु स्वरों में दुपहरी का सन्नाटा सुनाई देता है है तो दीर्घ ध्वनियों में उसकी विकरालता दिखाई देती है।

आज का चित्र:
अदिति से : इलाहाबाद से प्रतापगढ तक.

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4 टिप्‍पणियां:

  1. "चिट्ठा चर्चा अच्छी से बेहतर होती जा रही है,
    जब ये कभी लेख ,कुंडली या कविता मे लिखी जा रही है!!"

    बधाई समीर जी.

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  2. आप कुंडली से बढ़े, चर्चा तक श्रीमान
    कितनी और विधायें है, अभी नहीं अनुमान
    अभी नहीं अनुमान, कहानी सुन्दर लिखते
    और व्यंग्य से देखें आखिर कितने बचते
    सुर के संग ज्यों तबले की आवश्यक थाप
    आवश्यक हैं चिट्ठे की दुनिया में आप

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  3. कृप्या पूंजीबाजार पर मेरी नई प्रविष्टी http://poonji.wordpress.com/2006/10/11/results/ को चिट्ठा चर्चा में शामिल करे। नारद पर निचली श्रेणी में होने के कारण पता नहीं कब आयेगा।

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