बुधवार, अक्तूबर 18, 2006

म्हारी भासा, म्हारी प्रीत (राजस्थानी चिट्ठे)

राजस्थानी चिट्ठो की शुरूआत नई हैं तथा इसे लिखने वाले भी वर्तमान में तीन ही लोग हैं वैसे ये सभी नियमीत हिन्दी में लिखने वाले लोग ही हैं.
राजस्थानी को भाषा का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ हैं तथा मानकी करण का अभाव भी खलता हैं.
राजस्थानी भाषा में लिखी गई पहली ज्ञात प्रविष्टी हैं “म्हारी बोली-म्हारी प्रित”, जो संजय बेंगाणी के घणी खम्मा नामक चिट्ठे पर लिखी गई है. इस चिट्ठे को शुरू करने का कारण देते हुए लिखा है,
खुद री बोली खुदरी ही हुवे, इकी होड दूजी कोई भाषा कोनी कर सके
यानी अपनी भाषा आखिर अपनी ही होती हैं, कोई और भाषा इसकी बराबरी नहीं कर सकेती.
इसी चिट्ठे के साथ जाने माने चिट्ठाकार सागरचन्दजी नाहर का चिट्ठा भी आया राजस्थली और पहली प्रविष्टी ‘पधारो सा’ के माध्यम से राजस्थान का तथा अपना परिचय दिया. साथ ही अपने पिताजी के राजस्थानी प्रेम के बारे में भी लिखा हैं,
“टाबर था जर घर मां माणक आवती थी,पापाजी ने माणक रो घणों शोख। मारी मोटी बहेन रा जर लग्न हुया तो पापाजी कूँकुम पत्रिका पण मारवाड़ी मा बणावी"
अब तक मैदान में दो ही महारथी थे, पर हिम्मत न हार घणी खम्मा पर दुसरी प्रविष्टी लिखी, “राजस्थानी ने कोई गांधी मिलज्यातो तो... “. यहाँ गुजराती के साथ राजस्थानी की तुलना करते हुए अफसोस व्यक्त किया गया हैं की गुजराती भाषा को गाँधीजी का आशिर्वाद प्राप्त हुआ वैसा राजस्थानी को भी किसी का मिलता तो वो आज भाषा का दर्जा पा जाती.
यहीं तीसरी प्रविष्टी लिखी गई जसवंतसिंह की किताब पर हुए विवाद पर.
जसवंतसिंहजी ओ थे कांई कर्यो?
तब तक पोट्यो बोल्यो के साथ तीसरा ब्लोगर भी मैदान में आ गया. यह थे गिरिराज जोशीजी. पहली प्रविष्टी में इन्होने बदलते जमाने पर रोशनी डालते हुए लिखा हैं,
” पैलां कोई हरख री बात हुती तो गलै मिलता, सग्ला ने जीमाता पण अब पोट्ला पर होले
सेक "बधाई" लिख देंवा अर् बठै ही "धन्यवाद" ले लेंवा, मुंडो मीठो करण री मण म आवे
तो होठा माथे जीभ फेर लैंवा ॰॰॰ “
बात तो दुःख की हैं कि बदलते जमाने के साथ टिप्पणीयों मे ही बधाई तथा धन्यवाद का आदान-प्रदान हो जाता हैं और मुहँ मिठा करने के लिए मिठाई को तरशते रहते हैं. इस गम को भुलाने के लिए वे दुसरी प्रविष्टी में पप्पूड़ो अर् पप्पूड़े रा दादाजी के साथ हास्य विनोद करते नजर आते है. जब पप्पु दादाजी से सवाल करता हैं
पप्पूड़ो :- क्यूँ जद् मिनखपणां रा कोई लखण हूईयां बिना भी मिनख हू सकै, पाणी
रो
लोटो ही अठी-उठी नी करण आला मन्दिर-मस्जिद फूंक सकै, समुदर रो पाणी मीठो हू
सकै अर् भाटो दूध पी सके तो मै क्यूँ कोनी लिख सकूँ???
तब दादाजी के साथ साथ हम भी लाजवाब हो जाते हैं.

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5 टिप्‍पणियां:

  1. हमारा यही कहना है कि यह बहुत अच्छा लगा कि राजस्थानी चिट्ठॊं की चर्चा शुरू हुई. मेरा यह सुझाव और अनुरोध है कि आप अपने को राज्स्थानी चिट्ठों तक ही न सीमित रखें. हिंदी चिट्ठों पर भी राय देते रहें, जब-तब. शायंकालीन संस्करण की बात आप कर ही चुके हैं.बधाई इस नई भूमिका की शानदार शुरुआत के लिये.

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  2. हम तो यही कहेंगे, सागर भाई के चिट्ठे से कि 'पधारो सा'.
    आपका यह अनुपम प्रयास बेहतरीन रहा.
    अनूप भाई की बात पर गौर की जाय, सायंकालीन संस्करण की.

    बधाई और जारी रखें.

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  3. अरे भाई ओ म्हे कठै आयग्यो!!!

    संजय भाई मारो हीवड़ों चैतक रै ज्यान ऊँची-ऊँची छलांगा लगा रियो है,

    लागै पप्पूड़े री काणियाँ थानै रोज पोट्ला म्हे बाँध र भेजनी पड़ैला ॰॰॰

    खम्मा धणी!!!

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  4. इण भाषा में रळ्यो
    सुरंगा सुपना रो संगीत ।
    तुच्छ लखावै इण रै आगै
    सुख री सगळी रीत ॥
    (किशोर कल्पनाकान्त)
    मनड़ो बिरखा का दिनां मैं जियां मोरियो करबा लाग जाय बयां करबा लाग ग्यो . मायड़ भाषा रा साहित्य नै भी चिट्ठा पर ल्याणो पड़सी.

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  5. संजय भाई यों तो मई भी कहने को हूँ राजस्थानी
    पर भाषा से रहा अपरिचित, होती मुझको खुद हैरानी
    ब्रज भाषा से परिचय ज्यादा, फिर भी तुमने चिट्ठा लिख कर
    फिर सुधियों को बना दिया है म्हारी भासा री दीवानी

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