शनिवार, अक्तूबर 04, 2008

हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नही

आज चिट्ठाचर्चा में पहले चिट्ठाचर्चा की ही चर्चा करते हैं, अगर आप सोच रहे हैं किस बात की चर्चा तो वो ही बात जो पिछले शनिवार अधूरी छोड़ दी थी। कुछ कहने से पहले क्लियर कर दूँ कि अनुपजी की एक लाईना से मेरी कोइ दुश्मनी नही। जहाँ तक मुझे लगता है चिट्ठाचर्चा का मकसद था हिन्दी चिट्ठों में से हर दिन की चुनींदा पोस्ट को एक जगह परोसना। इन पोस्टों का चुना जाना उनकी गुणवत्ता पर निर्भर करता था या पोस्ट के विषय पर या उन मुद्दों पर जो पोस्ट के द्वारा उठाये जाते थे। लेकिन हम आजकल की चिट्ठाचर्चा में उसका वो मकसद भूलते जा रहे हैं। एक लाईना के बहाने अनुपजी सारे चिट्ठों को समेटना चाहते हैं, तो हम एक दूजे के लिये के मार्फत कुछ ऐसा ही करने की कोशिश करते हैं, कुछ भाई पीछे पीछे सवाल जवाब के बहाने ऐसा ही कुछ करते हैं। इस विषय में बकिया बातें अंत में पहले थोड़ी चर्चा कर लेते हैं।
शुक्रवार को भी ज्यादातर गीत और कविताओं का बोलबाला रहा लेकिन इनके बीच में कुछ अन्य तरह की पोस्टें भी पढ़ी टिप्पणी के कभी उप-कप्तान रहे बालकिशन ने भी एक धारधार कविता के माध्यम से वापसी की और साथ ही अपने ब्लोग के १ साल होने की बात बताई, उनको हमारी तरफ से बधाई।

सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है ये अगर देखा जाये तो सरकार को उतना समझाने के जरूरत नही है जितना खुद ये समझने की है। सरकार ने कुछ इसी तरह का कानून पेश किया लेकिन कुछ ब्लोगरस को संशय था कि ये कितना कारगर होगा क्योंकि समस्या कानून बनाने की नही है उसके पालन की है क्योंकि लोग खुलेआम सड़कों में इसे पीते हैं। ये संशय दूर कर रहे हैं दिनेश राय द्विवेदीजी तीसरे खंबे में और हम भी उन से इत्तेफाक रखते हैं क्योंकि ये कानून यहाँ भी है और उसका दायरा भी वही है।

वहीं दूसरी ओर प्रशांत कुछ बातें बांच रहे हैं उस पल की जब उनका सिगरेट पीने वालों से सामना हुआ। हमें भी एक घटना याद आ गयी जब हम कॉलेज में थे और बस से श्रीनगर गढ़वाल से अल्मोड़ा जा रहे थे सर्दियों में। बगल में बैठे सहयात्री ने जैसे ही बीड़ी जलायी हमने बंद करने को कहा, साहेब माने नही तो हमने बस की विंडो पूरी खोल दी। हम तो पूरे बंधे थे लेकिन उनके समेत बाकि सबको जो ठंडी हवा चुभने लगी तो उन साहेब को बीड़ी बंद करनी ही पड़ी। अगले १० घंटे के सफर में अपनी तलब उन साहेब ने बस के रूकने पर बाहर जा कर बूझायी। कुछ इसी तरह के अनुभव पर पीडी इक जगह पर कहते हैं -
कहने लगा कि बहुत दिनों बाद मार्लबोरो सिगरेट देख रहा है.. बहुत देर तक मेरा दिमाग चाटता रहा.. मुझे लग रहा था कि यह मुझसे फाईन ले लेता वही अच्छा होता.. :)
अनुभव जैसा भी हो निष्कर्ष ये है कि सिगरेट पीने वालों में आपस में दोस्ती बहुत जल्दी होती है।

अभी अभी २ अक्टूबर गया है और इस दिन छपने वाले पोस्ट और खबरों को देखकर हम तो यही कहेंगे कि गाँधीजी को तो उनके जिंदा रहने में मार दिया था लेकिन शास्त्रीजी को हर साल बिसरा के लोग बार बार मारते हैं। इसी बात को सुजीत उठाते हैं -
कल गाँधी जयंती मनाई गयी टीवी चैनल में भी खूब दिखाया गया लेकिन लोग शास्त्री जी की लोग भूल गए यह गांधीजी का प्रभाव कहे या कुछ और लेकिन उन्हें याद किया जाना चाहिए वे हमारे देश के दूसरे प्रधानमंत्री थे पाक के खिलाफ युद्ध में हम उन्ही के नेतृत्व में जीते थे। इस साल तो ईद भी २ अक्टूबर को ही था इसलिए भी लोगों को और कम याद आया।
लेकिन उन्होंने इसके लिये बहुत कम शब्दों का उपयोग किया, पोस्ट महज शिकायत भर लगी जबकि वो जब बैठे ही थे तो एक लंबी पोस्ट शास्त्रीजी को समर्पित कर सकते थे। इस भारत देश के दो मजबूत कंधों को आपस में एक सूत्र में पिरोने का नारा इन्होंने ही दिया था - जय जवान जय किसान।

गांधीजी की अहिंसा के सिद्धांत के ऊपर दो अच्छी सी पोस्ट देखने को मिली। बालेन्दु मानते हैं, अहिंसा का अर्थ कमजोर होना नही है, वही विश्व नाम से चिट्ठा करने वाले सज्जन सवाल उठाते हैं कि अहिंसा नामक हथियार से मुहम्मद गौरी को कैसे मारेंगे। बालेन्दु अपनी बात को रखते हुए कहते हैं -
श्वेतों और अश्वेतों को समाज में समान दर्जा दिलवाने के लिए मार्टिन लूथर किंग का अथक और सफल संघर्ष महात्मा गांधी के सिद्धांतों की वैश्विक स्तर पर हुई एक और महान विजय का प्रतीक था। किंग ने कहा था कि ईसा मसीह ने हमें लक्ष्य दिखाए हैं लेकिन उन लक्ष्यों तक पहुंचने का मार्ग गांधीजी ने सुझाया है।
लेकिन अहिंसा के सिद्धांत को पूरा ना मानते हुए विश्व नामक ब्लोगर का मानना है कि कही अहिंसक रहने का अर्थ वाकई में कमजोर होना ना लगने लगे। वो लिखते हैं -
अहिंसा का असर उन्हीं पर होता है जिनके नैतिक मूल्य बहुत मजबूत हों. जहां नैतिक मूल्य का अभाव हो, वहां इस अहिंसा का फायदा बहुत आसानी से उठा लिया जाता है। शेर का शिकार करने में डर लगता है. कबूतर अगर हाथ चढ़ जाये तो बच्चा भी मार लेता है। लेकिन हिंसा का जवाब हिंसा बिल्कुल नहीं है, क्योंकि उससे सिर्फ और हिंसा का जन्म होगा. सही जवाब क्या है यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह पता है कि गलत जवाब क्या होगा। गलत जवाब होगा एक कमजोर समाज जो कायर आतंकवादियों से सहम कर घर में छुप जाये, या उकसकर सड़कों पर निकल आये।

हिंसा अहिंसा की कश्मकश में एक आम आदमी के दिल का हाल बयाँ करती है पूजा की पोस्ट आतंक में सुबहें। पूजा जानना चाहती हैं -
मैं सोच रही थी कि मेरी तरह कितने लोग इस डर में सुबह उठते होंगे कि कहीं कोई बम न फटा हो, पर उनके डर की वजह कहीं और गहरे होती हैं। मैं एक खास धर्म को मानने वालों कि बात कर रही हूँ, जिनको हर ब्लास्ट के बाद लगता है की कुछ निगाहें बदल गई हैं, अचानक लोगों की बातें थोडी सर्द हो गई हैं। कितना मुश्किल होता होगा न ऐसे जीना, सब कुछ हमारे जैसा होते हुए भी सिर्फ़ इसलिए की कुछ आतंकवादी इस धर्म के हैं उन्हें कितना कुछ झेलना पड़ता है।

अमेरिकी मंदी के ऊपर अनिल रघुराज जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ का एक आलेख प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं -
ताश के महल ढह रहे हैं। आर्थिक संकट ऐसा कि इसकी तुलना 1929 की महामंदी से की जा रही है। लेकिन असल में यह संकट वित्तीय संस्थाओं की परले दर्जे की बेईमानी और नीतियां बनानेवालों की अक्षमता का नतीजा है। हुआ यह है कि हम अजीब तरह के पाखंड के आदी हो गए हैं। किसी तरह के सरकारी नियंत्रण की बात होती है तो बैंक हल्ला मचाने लगते हैं, एकाधिकार बढ़ाने के खिलाफ उठाए गए कदमों का विरोध करते हैं, लेकिन हड़ताल होने पर फौरन सरकारी दखल की मांग करने लगते हैं। आज भी वो पुकार लगा रहे हैं कि उन्हें संकट से उबारा जाए क्योंकि वे इतने बड़े और महत्वपूर्ण हैं कि उन्हें डूबने नहीं दिया जा सकता।
अगर जमाने का दस्तूर देखें तो यही कहेंगे, जी हाँ वो महत्वपूर्ण हैं और शायद रहेंगे क्योंकि पैसा बोलता है और ये कहानी सिर्फ अमेरिका की नही है भारत में भी यही कहानी है बस किरदार बदल गये हैं।

अगर आप भूल गये हैं तो अपनी यादाश्त पर जरा जोर डालें और पहुँच जाये पिछले चुनाव के समय में तो याद आयेगा विदर्भ के किसानों का एक-एक करके आत्महत्या करना। सरकार बदली चुनाव खत्म, मीडिया को दूसरे मुद्दे मिले और भारत के रीढ़ माने जाने वाले किसान खबरों में कहीं पीछे चले गये। इसी बात को एक बार फिर सामने ला रहे हैं उमेश चतुर्वेदी, उनका कहना है कि अभी तक नहीं बदली विदर्भ की तसवीर -
इस ऐतिहासिक दौर के बीते पांच साल होने को आ रहे हैं। वर्धा नदी में इन पांच साल में काफी पानी बह चुका है। लेकिन विदर्भ की हालत वैसी की वैसी ही है। बल्कि इन पांच सालों में आत्महत्याओं का आंकड़ा आशंका से भी कहीं ज्यादा बढ़ा है।....2006 में ये आंकड़ा तीन गुना से भी ज्यादा 1500 हो गया....2007 में 1243 लोगों ने आत्महत्याएं की।
क्या वाकई में इतने किसानों ने आत्महत्या की? टी आर पी की चकाचौंध में शायद मीडिया ने भी इन किसानों के मुद्दे को दरकिनार कर दिया है।

आपमें से कितने लोग जानते हैं कि सूचना का अधिकार क्या है? मुझे नही मालूम लेकिन जब विवेक बताते हैं कि कैसे सूचना के अधिकार ने दिलाया पानी तो लगता है वाकई में ये तो कमाल है।
सूचना के अधिकार कानून ने इस बार अपनी सफलता की कहानी उड़ीसा में लिखी है। वहां की सुदूर ग्रामीण अंचलों की निरक्षर महिलाओं ने इस अधिकार का इस्तेमाल कर अपने लिए पीने के पानी का जुगाड़ कर लिया। अब उनकी जिंदगी में जल का अभाव नहीं होगा।
करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान को मानने वाली महिलाओं को सरकार के कान में आवाज फूँकने के लिये १०० बार हवा फूँकनी पड़ी लेकिन उन्होंने वो कर दिखाया जो गाँव के पुरूष या नेता ना कर सके।

तिअत्र, क्या आपने कभी ये शब्द सुना है? मैने तो पहली बार सुना और जानने के बाद लगा ये कुछ कुछ शायद नुक्कड़ नाटकों जैसा है। और ऐसा मानने का कारण ममता का ये लिखना है -
गोवा मे tiatr १०० साल से होता चला आ रहा है। tiatr के लिए कहा जाता है कि इसे बहुत अधिक loud होना चाहिए । इसकी सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसमे जो भी कहानी होती है वो गोवा के लोगों की जिंदगी पर आधारित होती है वो चाहे राजनीति हो या फ़िर कोई सोशल मुद्दा हो , पुलिस हो या चाहे आम आदमी की जिंदगी।हर दर्शक कहानी से अपने आप को identify कर सकता है । इसमे सटायर भी खूब होता है। और इसमे संदेश भी होता है । यहाँ के लोगों का कहना है कि ये आम नाटकों (ड्रामा और थिएटर) से थोड़ा अलग है।
अगर आपने अभी तक नही देखा पढ़ा तो एक नजर वहाँ जाकर समझ सकते हैं।

और अंत में
हो सकता है चिट्ठाचर्चा के मकसद पर सवाल उठाकर हमारी चर्चा की टी आर पी खतरे पर ना पड़ जाय लेकिन अब हम कोई न्यूज चैनल तो हैं नही जो इसकी इतनी चिंता करें। इसलिये हमने तो इसकी शुरूआत कर दी है, कम से कम प्रयोग के तौर पर ही सही। यही वजह है आज ना कोई झरोखा है और ना ही 'एक दूजे के लिये' और कोशिश करेंगे कि आगे भी इसे बंद रखें और शनिवार के दिन चिट्ठाचर्चा का ये मूड बरकरार रख सकें। आज बस इतना ही, अगले शनिवार फिर मिलेंगे तब तक इजाजत, आपका ये सप्ताह खुशी खुशी बीते।

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16 टिप्‍पणियां:

  1. चिटठा चर्चा बहुत अच्छी शुरूआत है

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  2. सच तो है कि सारे चिट्ठों को न निपटा कर कुछ चिट्ठों को उनकी गुणवत्ता के आधार पर चिट्ठा चर्चा में स्थान दिया जाये, पर गुणवत्ता का निर्णायक कौन है? ये तो पसंद अपनी अपनी वाली बात होगी, अगर मुझे संगीत से लगाव नहीं तो मुझे वैसे चिट्ठों में क्या गुण मिलेगा?

    चिट्ठा चर्चा करना भी आसान नहीं, मानते हैं।

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  3. अच्छी बात कही। चिट्ठाचर्चा में अच्छे और पढ़े जाने लायक चिट्ठों का जिक्र तो होना ही चाहिये। इससे लोग उन चिट्ठों को पढ़ सकते हैं जो उनसे शायद छूट जायें। समय पर भी निर्भर है। अगर समय हो तो बाकी कलाकारी भी होती रहे तो अच्छा ही है। बाकी कलाकारी मतलब एक-दूजे के लिये मौसम का हाल और एक लाइना। मुझे तो यह भी लगता है और कस के लगता है कि किसी एकाध चिट्ठे की विस्तार से पड़ताल भी की जाने चाहिये। उसकी भाषा कहने का अंदाज और भी। लेकिन समय और सामर्थ्य का गठबंधन मुश्किल है। आज भी चर्चा अच्छी की। सूचना के अधिकार ने दिलाया पानी ऐसी पोस्ट है जिसे शायद सबको पढ़ना चाहिये लेकिन उस पर किसी की प्रतिक्रिया नहीं है। इससे यही समझा जा सकता है कि या तो लेखक उस बात को आकर्षक ढंग से पेश नहीं कर सका या फ़िर लोगों को इस तरह की सूचनात्मक खबरों में रुचि नहीं है। बहरहाल, अच्छा लगा चर्चा बांचकर।

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  4. यह स्वरूप भी आकर्षक है। आप यह प्रयोग जारी रखें।

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  5. चर्चा की चर्चा पर हम क्या और चर्चा करें। बस पढ़ते जा रहे हैं। हमारी भी जय-जय, तुम्हारी भी जय-जय...।

    यह नीति बना डालिए कि इस चिठ्ठा चर्चा का उद्देश्य कया है--
    १.अच्छे चिठ्ठों से परिचित कराना
    २.नये चिथ्ठों को जोड़ना
    ३.एक दिन में प्रकाशित अधिकांश पोस्टों का लिंक एक स्थान पर देना
    ४.चिठ्ठाकारी में गुणवत्ता की पहचान करना और उसका सम्मान करना

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  6. अनूप जी और सिद्धार्थ जी की बातों पर गौर फरमाया जाए। पानी वाली पोस्‍ट मैं भी नहीं पढ़ सका था। छूट गई थी लेकिन चिट्ठा चर्चा का आभार।

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  7. "चिट्ठाचर्चा का मकसद था हिन्दी चिट्ठों में से हर दिन की चुनींदा पोस्ट को एक जगह परोसना। "

    सही बात यही होनी चाहिये . हर समय हर विषय पर हा हा ही ही ठा ठा था था नहीं सही हैं . एक दिन कभी हल्के मोद्द मे बात हो कोई एक करे तो ठीक हैं ये उसकी पसंद पर निर्भर हैं . पर हर समय हर विषय को एक लाइन मे हास्य का पुट देने से कोई बात सही तरीके से आगे नहीं आती . उम्र के जिस पढाव पर हम सब हैं श्याद इस समय एक सीरियस तरीके से चर्चा कर के हम बहुत अच्छे मुद्दों पर बात कर सकते हैं . चाहे ४ ही ब्लॉग की चर्चा हो पर जो भी करे ब्लॉग को पढ़ कर करे और केवल एक ही पोस्ट नहीं उस ब्लॉग की पिछली दो तीन पोस्ट को पढ़ कर करे ताकि उस ब्लॉग का व्यू पॉइंट उभर कर सामने आए और फिर चर्चा के पाठक उसको पढ़ सके . केवल हेडिंग पढ़ कर चर्चा करना कोई मतलब नहीं रखता हैं .
    ये मेरे विचार हैं . मै भी इस चर्चा का हिस्सा बनना चाहूंगी और महीने मे किसी एक दिन नारी आधारित विषयों पर जो ब्लॉग लेखन हो रहा हैं उन पर बात करना चाहूंगी .

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  8. सिद्धांत रूप से चर्चा का स्वरूप तो यही होना चाहिये,
    ताकि चिट्ठाकार को अपना चिट्ठा इस चर्चा में शामिल करवाने के लिये
    गुणवत्तापरक पोस्ट पर जोर देने की उपादेयता प्रासंगिक लगे ।
    दूसरी ओर हिन्दी को आगे लाने के मुहिम की भावनात्मक बाध्यता में बहुतेरे चिट्ठों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती ।
    यदि आमराय से चलें, तो आमराय एक बिन्दु पर कभी टिकी भी है ?
    व्यक्तिगत रूप से तो, मुझे इसका आलोचनात्मक स्वरूप अधिक भायेगा !
    अभी हाल फिलहाल का रचना-अनूप संवाद क्या इंगित करता है ?
    शायद तुष्टिकरण की बाध्यता चर्चा को एकांगी बनाती जा रही है !
    कुछ भी ठेला, पहुँच गये चर्चा पर..
    यहाँ न होने पर शिकायत भी ठोक दी,
    पूर्वाग्रह भी पाल लिये इत्यादि इत्यादि ! यह क्या है ?
    यह निश्चय ही अच्छे लेखन के विकास में घातक है,
    व दूरगामी परिणामस्वरूप चिट्ठाकारी की जड़ता पर जा टिकेगी ।

    एक लाइना व सवाल ज़वाब बड़े लोकप्रिय हैं, अतएव स्तंभ के रूप में जारी रखे जायें तो बेहतर रहेगा ।
    इससे किसी एक व्यक्ति पर बोझ भी न रहेगा, व चर्चा के आयाम भी व्यापक होंगे ।
    कविता को कोई एक अनुरागी जन थाम लें ,
    कुश के सवाल ज़वाब उनका ज़ायज़ पोर्टफ़ोलियो हैं, विविध विषयों को रतलामी जी पकड़ लें,
    नवा ब्लागर एवं प्रोत्साहन शास्त्री जी के समर्पण को ही जाये तो उत्तम,
    मैं व रामपुरिया टिप्पणियों की व्हिप संभाले रहें,
    अपने परम टुंगीबाज सैंया अनूप शुक्ल से एक लाइना तो कोई छीन ही नहीं सकता..
    व अंत में 'राम झरोखा बैठ के सबका मुजरा ले ' के लिये समीर लाल तो हैं ही..
    उड़नतश्तरी से भी ज़्यादा ऊँचाई पर भला क्या उड़ता होगा ?

    इस तरह साथी हाथ बढ़ाना...
    एक अकेला थक जायेगा.. मिल के चप्पल खाना...
    साथी हाथ बढ़ाना ...
    हेत्थ.. दुर बुरबक , चप्पलें केवल चोखेरवालियाँ ही पहना करती हैं क्या ?
    एहिका आपन गाँधी महतमा भी पहिरत रहें...

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  9. कृपया हमारे हँसी ठट्ठे को कोई दिल से न ले......ओर जो ले वो कानूनी नोटिस भिजवा दे , वैसे हमारे ओफिसियल अधिवक्ता आदरणीय द्रिवेदी जी है.....



    क्या गुजरात का एक भी शहर महिलायों के लिए सुरक्षित नही =यही है बापू को नमन!
    मै =हाँ ,ये मै ही हूँ
    बड़ी मुश्किल है , यहाँ तो सब अंग्रेजी बोलते है =भूत असोसिअशन का ज्ञापन
    रात आधी खींचकर मेरी हथेली =गनीमत है नैनो थी
    तुम बहुत दुबले हो ,इस दिस इस राइट फॉर यू =अरे तुम तो मुझसे बड़े पागल लगते हो
    मै आप सबको छोड़ कर जा रही हूँ =मेरी याद करना ओर सोचना वह चाहती थी तूफ़ान आये
    कम अपना छोड़ के टिपियाने की क्या जरुरत थी =मेरी मर्जी
    मै मन्दिर क्यों नही जाता =अरे दगाबाज थारी बतिया कह दूँगी
    एक दिन का मौन व्रत = ओर अधिक मौन न रहा जाये
    इस देश के हालात से बापू उदास है =अब हर फ़िक्र को धुंए में कैसे उडायेगे
    क्या तुम्हे इस धरती पर अब भी खोजा जा सकता है -मिला वो भी नही करते
    तुम बहुत मोटे हो गए हो ..व्हाट ईस वरोंग विद यू =क्यूंकि मै अकेला था

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  10. सही कह रहे है जनाब !!टी आर पी से बढकर है क्वालीटी!!

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  11. "पर हर समय हर विषय को एक लाइन मे हास्य का पुट देने से कोई बात सही तरीके से आगे नहीं आती ."
    इस तरह के विचार थोडा ऊपर से निकल जाते हैं|

    हम तो यही कहेंगे कि 'एक लाइना ' चलता रहे| सहज हास्य जब दुर्लभ होता जा रहा है, ऐसे समय में कोई यह प्रयत्न करे, तो उसे 'हाहा ठीठी' कहके हलके से उड़ा नहीं देना चाहिए| बाकी पढ़ना न पढ़ना पाठक की मर्जी|

    सीरियस पोस्ट भी लिखी जायें, उन पर भी चर्चा की जाए, कौन मना करता है|

    इस चक्कर में हमने कल के पोस्ट पर भी नज़रें डाली और उस पर मचा बवाल भी देखा|

    एक कथा सुनें इस पर:
    एक बार एक बकरी का मेमना झरने से पानी पी रहा था। उससे कुछ ऊँचाई पर आकर एक भेड़िये ने भी पानी पीना शुरू कर दिया। तभी उसकी नजर मेमने पर पड़ी। उसे देखते ही वह चिल्लाया- क्यों बे गुंडे , तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरा पानी गंदा करने की। मेमना बोला- आप ऊँचाई पर हैं और मैं नीचे। मैं आपका पानी कैसे गंदा कर सकता हूँ।

    'तो कल किया होगा तूने पानी गंदा।' 'नहीं, कल तो मैं इधर आया ही नहीं।' 'तो हो सकता है तेरी माँ आई होगी और यह उसकी करतूत हो।'
    और फिर वही हुआ | कारण ढूंढ लिया गया, मेमना खा लिया गया|

    तो ब्लागरों, एक घिसे पिटे उदाहरण के अनुसार हम गिलास को तीन चौथाई भी भर दें, तो भी आपसे गुर्राने का अधिकार कोई नहीं छीन सकता कि कस बे, एक चौथाई गिलासवा खाली, हमार ई इन्सल्ट, अउर ई न समझना कि हमका लड़ना नहीं आता है, अउर हम साफ़ बात कहिते हैं , अउर जो है कि हम बहुतै ऊंची चीज़ हैं , हम समझ रहे हैं कि काहे तुम ई राग रचाए हो , हम कांस्पीरेसी थ्योरी ऐसा घोट के पिलायेंगे कि बचवा पानी नहीं मांगोगे.

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  12. सबसे पहले तरुण भई को चिट्ठा चर्चा के समर्पण के लिए बधाई...

    आगे.. मैं सिर्फ़ अपनी बात कहूँगा.. मुझे जीवन में हास्य पसंद है.. इसलिए मुझे एक लाइना अच्छी लगती है.. सच काहु तो चर्चा का सबसे दिलचस्प भाग वही है.. किसी का भी ये कहना की चर्चा गंभीर नही होती.. बहुत ही हास्यपद लगता है.. और मुझे अच्छा भी क्योंकि मैने कहा हास्य मुझे पसंद है..

    एक और महाशय, मैं नाम भूल रहा हू उपर लिख के गये है की आपको गाना नही पसंद तो नही डालेंगे.. जैसा की तरुण भाई ने स्पष्ट किया है की पोस्ट को उसकी गुणवत्ता के आधार पर यहा सम्मिलित किया जाता है.. क्या किसी और का संगीतबद्ध गीत आप अपनी ब्लॉग पर डालते हो तो उसकी गुणवत्ता क्या रहेगी.. फिर भी यदि वो गीत दुर्लभ है या आसानी से नही मिल सकता है तो उसे चर्चा में सम्मिलित किया जाता रहा है.. यदि आप नियमित चर्चा पढ़ते हो तो आप अवश्य देख पाएँगे की कुछ दिन पूर्व अनूप जी ने "कबाड़खाना'' ब्लॉग के एक गीत का ज़िक्र किया है..

    चर्चा को नियमित पढ़ने वालो को कोई शिकायत नही है.. जो नियमित नही आते उन्हे तकलीफ़ हो रही है.. शिकायत करने तो सब आ गये इतने समय से चर्चा चल रही है.. किसी भी शिकायत करने वाले ने कोई सुझाव दिया?

    आपको यहा लिखने वाले की मेहनत नही दिखती?
    अगर अच्छी गुणवत्ता वाली पोस्ट ही नही लिखी जाए तो कोई क्या करे.. मैने दो सप्ताह पूर्व चर्चा नही की और लिखा भी था की मुझे चर्चा करने लायक पोस्ट नही दिखी.. ग़लती किसकी? कोई अच्छी पोस्ट लिखता भी नही है.. और कहते है अच्छी पोस्ट शामिल करो..

    अजी ये तो चर्चा है.. इसमे सब चलेगा.. कहना तो बहुत है पर अगली चर्चा में कहूँगा... अभी टाइम कम है..

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  13. भाई हमतो हर हाल में सकारात्मक हैं ! आज पहली बार इतनी जोरदार बहस देखी है चिठ्ठा चर्चा पर की मजा आ रहा है और बार बार यहाँ आना पड़ रहा है ! ये क्या इसकी सफलता नही है ? जहाँ तक अन्य दीगर बातें है तो
    मेरी समझ से रचना तो रचना ही होती है ! हर चिठ्ठाकार अपने प्राण से लिखता है ! अब ये अलग बात है की पढ़ने वाला कैसे लेता है ? एक ही रचना पर सबके अलग २ विचार हो सकते हैं !

    अगर गंभीर लेखन ही यहाँ शामिल होने की गारंटी है तो फ़िर हास्य को जीवन से भी बाहर कर दिया जाए ! फ़िर
    देखिये कितने दिन आप जिंदा रह सकते हैं ? भाई मेरी बात पूछो तो "एक लाइना" इस की जान है ! जैसे जीवन में हास्य जरुरी है वैसे ही इस चिठ्ठा चर्चा में "एक लाइना" जरुरी है ! अगर किसी को ऐतराज हो तो इस मंच से हास्य गायब करके गंभीर चिंतन शुरू करके देख ले , फ़िर कितने दिन और कितने पाठक मिलते हैं ? देख लीजिये ! भाई गंभीर मंचो के लिए कहीं जाने की जरुरत क्या है ? घर और आस-पास का माहौल ही काफी है ?
    काहे को समय खाली-पीली खोटी करना ? जैसे हास्य एक सीमा तक ठीक है वैसे ही गंभीरता की भी सीमा है ! और जो ये समझ रहे हैं की हास्य फोकट में पैदा हो रहा है ! तो उनको क्या कहे ? एक लाइना की एक दिन की पोस्ट कोई तैयार करके बता दे इस नफासत से तो मैं मान जाऊं उसको ! एक अच्छे भले विचार का दम घोंटू सुझाव अपनी तरफ़ से खारिज है !

    हास्य का हमारे जीवन में क्या स्थान है वो अभी २ यहीं देख लीजिये ! डा. अनुराग जी जिनको हम हमेशा एक
    संवेदनशील व्यक्तित्व मानते आए हैं , आज यहाँ पर वो भी क्या बेहतरीन व्यंग में टिपणी करके गए हैं ? उनको भी एक किसी दिन की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए ! भाई व्यंग आस-पास ही होता है ! यहाँ डा. अनुराग व्यंग में लिख गए हैं मतलब वो इस चिठ्ठा चर्चा को अपना घर समझ रहे हैं ! क्योंकि आदमी अपनो के बीच ही हंस सकता है !
    रोने के लिए तो सारा जहाँ पड़ा है ! @ डा. साहब बधाई आपको ! आपसे निवेदन है की एक व्यंगात्मक पोस्ट आपकी दिल की बात पर सप्ताह में नही तो १५ दिन में जरुर आप लिखिए ! मुझे तो आपकी टिपणी में ही मजा आगया ! @अनूप जी, आप ये वाला विभाग डाक्टर साहब के सुपुर्द भी कर सकते हैं ! आपकी टिपणी में बहुत मजा आया ! बहुत धन्यवाद !

    और भाई अगर इस पर वोटिंग की जरुरत हो तो हम तो हमारे गुरुजी डा. अमर कुमार जी के फार्मूले पर सहमत हो सकते हैं ! पर एक लाइना तो होनी ही चाहिए ! इब राम राम !

    हमारा यहाँ किसी को दुःख पहुंचाने का इरादा नही है ! इसको अपना घर और खुला मंच समझ कर टिपणी कर रहे हैं ! धन्यवाद ! जय हो आज की चिठ्ठा चर्चा की !

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  14. भारत और अमरीका की तरह ही चिट्ठाचर्चा और चिट्ठाचर्चा का स्वरुप एक मुश्किल दौर से गुजर रहा है. यह दीगर बात है कि दोनों की मुश्किलें अलग अलग प्रकार की हैं-मगर फिर भी मुश्किलें तो मुश्किलें ही हैं.

    इतने चर्चाकार हैं-भले ही नियमित दो-तीन ही हैं और घोर नियमित एक ही है, उसे इतनी छूट तो होना ही चाहिये कि वह चर्चा जिस भी तरह से चाहे, करे -जबतक इस जन मंच पर किसी का वो सीधा अनादर नहीं करता और अमर्यादित भाषा का प्रयोग नहीं करता.

    उम्र के किसी भी पड़ाव पर हास्य व्यंग्य एवं वस्तु स्थिति को सहजता से लेने का महत्व कम नहीं हो जाता. फिर यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर है. किसी पर कोई रोक नहीं.

    मुद्दा बस इतना सा है कि चर्चा रोचक हो. लोग पढ़ें. लोगों को मजा आये और यह क्रम बना रहे.

    डॉ अमर हमेशा की तरह सार्थकता से बातों का जायजा ले अपना मार्गदर्शन देते रहे ताऊ के साथ बिना किसी पूर्वाग्रह के और बिना किसी एक ओर झुके.

    एक लाईना, कुश के सवाल जबाब, मौसमा का हाल, रतलामी जी का व्यंज्ल -सब अपनी अपनी जगह पूरे हैं. अनेकों मय मैं उनका आनन्द लेते हैं-उन चर्चाकारों का यह स्टाईल है, उसमें वो जमते हैं-अतः वो निश्चिंत हो इस दिशा में कदम बढ़ाये रहें.

    आज तो डॉ अनुराग भी इन्जेक्शन में अलग डोज़ लिए घूम रहे हैं. :) मजेदार. खैर वो तो अभी उम्र की उस दहलीज़ पर नहीं हैं, जिसके गंभीरता की सलाह है. अतः जायज है.

    सब मस्ती मे लिखो यार..बस इतना मानकर:

    हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे।
    कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और।।

    और

    मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
    उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले....

    हाय हाय!! काफिर कह दिया...हाय हाय!! की चिन्ता मत करो...जीने,मरने---लिखने पढ़ने का फरक तो चलता ही रहेगा.


    मेरी शुभकामनाऐ‍-तरुण को इस सार्थक चर्चा के लिए बधाई और बाकी चर्चाकारों को शुभकामनाऐं.

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  15. बहुत कम पोस्ट में ऐसी टिप्पणियाँ देखी हैं, कुल मिलाकर अच्छा लगा लोगों के विचार जानकर।

    मानसीजी को शिकायत थी संगीत की पोस्ट रह जायेंगी। इसका जवाब कुश ने तो दे ही दिया है। संगीत के ऊपर कोई सार्थक पोस्ट हो तो वो शामिल की ही जायेगी। हमने भी दो पोस्ट लिखी थीं, चाहते तो आसानी से चर्चा में शामिल कर सकते थे लेकिन लगा कि वो दी गयी पोस्ट के मुकाबले नही ठहरती तो नही लगायी।

    दूसरा ऐसा लगता है सभी हास्य भी चाहते हैं उन्हें डर है कि कहीं हास्य भी गायब ना हो जाये। तो भाई लोगों सार्थक पोस्ट का मतलब सिर्फ गंभीर पोस्ट ही नही होती, उसमें हास्य भी आता है। दादा कोंडके की फिल्मों में द्विअर्थी संवादों से काफी हास्य उत्पन्न होता था लेकिन उन्हें कभी मेन लीड में जगह नही मिल पायी।

    एक लाईना से हमारा कोई बैर नही और आपको गलतफहमी ना हो तो हम कोई सीरियस टाईप के खड़ूस इंसान नही, हास्य हमें भी पसंद है। हमारा तो चिट्ठा ही खिलंदड़ी बातों की खाता है। अब सभी टिप्पणियाँ पढ़कर ये निष्कर्ष निकाला है -
    १. एक लाईना, सवाल जवाब, एक दूजे के लिये टाईए सेक्शन हों लेकिन लिमीट में, जिससे सार्थक चर्चा को अधिक टाईम और जगह मिल पाये। क्योंकि इस तरह की एंट्री के लिये उन पोस्ट को पढ़ने की जरूरत ही नही पढ़ती।
    २. चर्चाकारों को चिट्ठों को पढकर उन्हें जगह उसके कंटेंट के बेस पर देनी चाहिये ना लिखने वाले के नाम को देखकर
    ३. ऐसा भी कर सकते हैं कि प्वाइंट नंबर १ के लिये अलग से चिट्ठाचर्चा जैसा मंच बनायें और वहाँ करें
    ४. चिट्ठाचर्चा के चर्चाकार कम से कम कभी कभी अपना योगदान भी दे दें नियमित चर्चा के बीच कुछ चर्चा करके, हमें सिर्फ शुक्रवार की रात में ही इतना समय मिलता है कि हम २-४ घंटे ब्लोग को एक साथ दे पायें और वो सारा चर्चा में ही चला जाता है। यही कारण भी है कि कभी दूसरों की पीठ खुजा नही पाते।
    ५. जैसा अनुप जी ने कहा एक चिट्ठे की विस्तार से चर्चा, तो उसकी लिखी पिछली ३-४ पोस्टों पर नजर डाल सकते हैं, "सप्ताह के चिट्ठाकार नाम से" चिट्ठाचर्चा में अलग पोस्ट लिखकर।
    ६. नये चिट्ठों में सिर्फ उनका जिक्र किया जाये जिन्होंने कम से कम २-३ पोस्ट लिखी हों और जो टेस्ट पोस्ट टाईप की ना हो। कई बार नये चिट्ठों के लिंक पर जाओ तो वो चिट्ठा ही नदारद हो जाता है।
    ७. अमरजी के शब्दों में, कोई कुछ भी ठेले और पहुँज जाये चर्चा पर जैसा नही होना चाहिये

    इस तरह की चर्चा करने का मकसद सिर्फ इतना है कि चिट्ठाचर्चा को थोड़ा मैच्योर किया जाय जिससे कम से कम हिंदी चिट्ठों को भी थोड़ा गंभीरता से लिया जाय। बकिया तो जाहिर है किसी भी दिन की चर्चा उसके चर्चाकार की पसंद पर ही रहेगी। अनुपजी और अन्य इस चर्चा को आगे बढ़ाकर कुछ निष्कर्ष निकाल के समाप्त कर सकते हैं क्योंकि ज्यादा बात बढ़ाकर कोई हल नही निकलेगा।

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  16. मैं डॉ अमर जी की इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि कोई कुछ भी ठेले और पहुँच जाये चर्चा पर, ऐसा भी नहीं होना चाहिए। एक राय मेरी ये है कि जैसी चर्चा आज तरुण जी ने कि है वैसी ही चर्चा होनी चाहिए। साथ ही कविता, गजल, हास्य इस सब के लिए भी ऐसी ही विस्तृत चर्चा होनी चाहिए। मतलब कहने का ये है कि गद्य और पद्य दोनों की चर्चा इसी ढंग से हो तो किसी को कोईं भी शिकायत नहीं होगी। जो थोड़ा मुश्किल तो है लेकिन यदि चाहें तो रास्ता निकाला जा सकता है(दिन में दो चिट्ठाचर्चा हों, अलग –अलग व्यक्ति चर्चा करें और पूरी चर्चा की एक ही स्टाइल बुक हो)। साथ ही नए चर्चाकारों के बारे में जो तरुण जी ने लिखा है वो सही ही है। जहां तक सवाल है कि वन लाइनर का तो वन लाइनर का मतलब ये होना चाहिए कि पोस्ट अच्छी है पर विस्तृत चर्चा का हिस्सा नहीं बन सकती। तो इस से ये होगा कि हम सही राह पर चलेंगे। माना कुछ दिन शिकायत हो सकती है पर जब सब को जानकारी हो जाएगी हमारे पैटर्न की तो सतर भी सुधरेगा और वैसे भी अनूप जी बेहतर जानते हैं कि ५० वन लाइनर लिखने के बाद भी कई लोग ये शिकायत करने से नहीं चूकते कि आपने हमारा तो शामिल.......। भई, ये मेरी राय है और आपलोग बेहतर जानते हैं।

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