अनिल पुसदकर ने अपनी पोस्ट में इस पर सवाल उठाये:
2 लड़के और 2 लड़कियां कार्यक्रम में हिस्सा ले रही थी और 2 होस्ट उनसे बात कर रहे थे। अचानक एक होस्ट लड़की पर फट पड़ा और उसे बुरा-भला कहने लगा। लड़की ने जब कहा बाहर निकलोगे तो मैं मारूंगी तो उसने लड़की को वहीं मारने की चुनौती दी और लड़की के खामोश रहने पर कहा क्यों फट रही है क्या ? क्या वो बदतमीज अपनी जवान बहन से ये सवाल कर सकता है ?
रियलिटी शो की इस थीम का नाम था दादागिरी। जब इस भाषा में होस्ट ने सवाल किया तो अनिल पुसदकर ने लिखा
गंदगी में सूअर को भी मात दे देने वाले लोग जिस भाषा में भौंकते हैं वो बर्दाश्त से बाहर होती है। जी में आया कि टीवी में घुसकर उसका मुंह तोड़ दूं। फिर इच्छा हुई की टीवी ही फोड़ दूं। पर दोनों ही काम से अच्छा मुझे लगा कि टीवी बंद ही कर दूं।
इस पर जितने भी कमेंट आये लगभग सभी ने होस्ट के संस्कारो को इसके लिये जिम्मेदार ठहराया। टी.वी. वालों की प्रचार कामना, टीआरपी, कन्ज्यूमरिज्म, गैर-जिम्मेदाराना हरकत, लोग देख रहे हैं इसलिये वे दिखा रहे हैं।
अब देखा जाये तो बावजूद बेहूदी भाषा के टीवी वाला अपने काम के साथ न्याय करने का प्रयास कर रहा है। उसकी थीम है दादागीरी सो वह भरसक इसका जीवन्त उदाहरण पेश करने का प्रयास कर रहा है। चाहे प्रायोजित हो या स्वाभाविक लड़की उत्ती बदतमीज नहीं दिखी जित्ता बदतमीज लड़का दिखा। शायद टीवी वालों ने सोचा हो कि लड़की का उत्ता बदतमीज दिखाना सही न हो। कर वे यह भी सकते थे कि लड़की से एक दर्जा और ऊंची गाली दिलवाते और इसके उससे एक कंटाप मरवाते होस्ट के गाल पर। लड़का गाल सहलाते हुये चुप हो जाता। तब शायद और हिट हो जाता सीरियल कि लड़कियां आजकल कित्ती बोल्ड हैं।
मुझे यह लगता है कि यह रियलिटी शो वगैरह फ़ालतू दिमागों की कसरत होती है। एक खास तबके की स्थितियां देखकर उसके हिसाब से अपने कार्यक्रम बनाते होंगे। लड़के-लड़कियां जो देख रहे होंगे उनके लिये -क्यो फ़ट रही है? एक नया डायलाग मिल गया। जब टी.वी. में आ गया तो बुरा क्या? अभिव्यक्ति के नये आयाम खुल रहे हैं।
लड़की से इस तरह बातचीत करके शायद होस्ट लड़का उसको बराबरी का मौका दे रहा है। उसको उकसा सा रहा है- आ जा बोल्ड हो ले!
अनिल का पूछना- क्या वो बदतमीज अपनी जवान बहन से ये सवाल कर सकता है ? बेमानी है। क्या इस तरह की भाषा केवल बहन अपनी जवान से अनुचित है? अगर यह अनुचित है तो किसी से भी बोलना अनुचित है। समाज वर्जित है।
यह पोस्ट पढ़ते समय ही लगा कि क्या इसका शीर्षक इत्ता भड़काऊ रखने के बजाय और कुछ रखा जा सकता था? लड़कियों से पूछता है, फट रही है क्या ? ये स्तर है टी.वी. शो का। क्या केवल टी.वी. स्तर का शो, मीडिया की भाषा, मीडिया का गिरता स्तर टाइप शीर्षक नहीं रखे जा सकते थे? यह शीर्षक भी किसी न किसी स्तर पर प्रचार कामना न भी कहें तब भी इस दोष का शिकार है जिसको आप संपादन नजर कहते हैं। जो वह बोल रहा है वही आप शीर्षक रख रहे हैं तो उसी का तो प्रचार हो रहा है?
मैं यह नहीं कह रहा कि लड़की ऐसा बोलेगी तो लड़का ऐसा कहेगा ही। लेकिन लड़की की भाषा भी भाषाई दरिद्रता का शिकार है। उकसाऊ है। लड़की ने कहा- बाहर निकलोगे तो मैं मारूंगी! एक रियलिटी शो में इस तरह का व्यवहार क्या उचित है?
प्रख्यात कथाकार/उपन्यासकार गिरिराज किशोर ने एक लेख में लिखा है- कड़ी से कड़ी बात सभ्य भाषा में कही जा सकती है। होस्ट लड़की के ऊपर फ़ट पड़ा तो लड़की को इस पर कड़ाई से एतराज करना चाहिये। जिस भाषा में उसको महारत नहीं हासिल है उसमें लड़के के उकसाने पर घुसना लड़के की मंशा पूरी करना है।
अर्चना वर्मा ने राजेन्द्र यादव के बारे एक लेख लिखते हुये लिखा- उन्होंने 'Fools rush in where angles fear to tread' का सटीक अनुवाद किया है- चूतिये धंस पड़ते हैं वहां/फ़रिश्तों की घुसने में फ़टती है जहां। यह लेख तद्भव में छपा। अब इसको क्या माना जाये? एक प्रख्यात साहित्यकार/ संपादक के अनुवाद पर मुग्ध होकर एक स्त्री एक प्रसिद्ध पत्रिका में इसे पेश करती है तो समाज तो इसे स्वीकृत मानेगा ही न!
बहरहाल, मुझे लगता है कि मीडिया हड़बड़ाया हुआ है। उसके ऊपर बाजार का दबाब है। उसके पास यह फ़ुरसत ही नहीं है कि वह यह सब सोच सके कि उसकी भाषा का कितना असर पड़ेगा समाज पर। एक तो वैसे ही भाषाई दरिद्रता है उस पर कार्यक्रम का दबाब कि दादागिरी दिखानी है। जैसी बन पड़ी उन्होंने दिखा दी।
जितेन्द्र भगत ने अपने एक लेख इश्क-विश्क, प्यार- व्यार, मैं क्या जानूँ रे !! मजेदार मुक्तक लिखे इस लाइलाज मर्ज के बारे में:
ऑखें सपनो में जो खोई
कब जागी व कब-कब सोई
लाईलाज है मान भी लो जी
इस मर्ज की दवा न कोई।
इस पर अरविन्द मिश्र जी ने अर्ज किया:
बिरादर ,ये तो आप ने सड़क छाप मजनुओं को डिस्क्रायिब किया किसी प्लेटोनिक लव वाले का भी तो वर्णन करें !
अब बताओ भला मजनू जो कि प्रेम का ब्रांड एम्बेसडर है उसकी छाप वाले प्रेम को भी नकार दिया अरविन्द मिश्र जी ने। ये ऊंचे लोग-उंची पसन्द वाले भाई जो न करायें। जीतेन्द्र उनके बहकावे में आ गये और प्लेटोनिक प्रेम पुराण लिख बैठे। हालांकि उनका स्वर वही रहा मजनू वाला ही-स्वाभाविक!
तब मुझे लगता है कि ज्यादातर लोग अपने दिल की बात को, अपने अतीत के सत्य को स्वीकार करने में संकोच करते हैं, अपनी उम्र के एक पड़ाव पर उसे स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं अथवा अपने सामाजिक हैसियत के माकूल नहीं समझते हैं। वे कई बार दिल से तो स्वीकार तो करते हैं मगर दिमाग से अस्वीकार। क्या यह सच से कतराना नही है अथवा उससे दूर भागना?
जीतेन्द्र भगत की बात की ही पुष्टि करती हुई सी बात प्रख्यात कथाकार/संपादक अखिलेश ने अपने लेख में कही है:
यकीन मानिये, दुनिया के महान से महान प्रेम के नायक या नायिका के भीतर प्यार के स्फुरण की वजह अति साधारण, तुच्छ और हंसोड़ रही होगी।
इसी क्रम में रवीश कुमार की बात पढ़िये वे भी मन की बात कर रहे हैं:
जीने के लिए मन की उड़ान ज़रूरी है। पर मन बताता क्यों नहीं। साथ वाले को, सामने वाले को। हम देखने में चाहे जैसे दिखें, बोलने में चाहे जैसा बोलें, लिखने में चाहे जैसा लिखें लेकिन मन में वैसे नहीं होते। ज़रा अपने मन के भीतर झांकना तो। और गाने लगना। कई बार यूं ही देखा है। ये जो मन की सीमा रेखा है। मन उसे तोड़ने लगता है।
आज स्त्री स्वतंत्रता/समानता की जब बात होती है तो सीमो द बुआ की लिखी किताब द सेकेंड सेक्स ( जिसका हिन्दी अनुवाद स्व.प्रभा खेतान ने स्त्री: उपेक्षिता के नाम से किया) का जिक्र जरूर होता है। पता चला कि यह किताब फ़्रेंच में लिखी गयी। उसका अंग्रेजी में अनुवाद करते समय गड़बड़झाला हुआ। उसी अंग्रेजी को हम अनुवाद करके बांच रहे हैं। सालों से। बताओ अगर कबाड़ी न बताते तो हम अभी तक उसी को सच मानते।
प्रख्यात कथाकारा नासिरा शर्मा से बातचीत पढ़िये। उनको भी वैसी ही बेचैनी होती है जैसी आपको ब्लाग लिखते समय होती होगी। वे कहती हैं:
लिखने से पहले एक बेचैनी, कभी-कभी उदासी, अक्सर खामोशी की कैफियत बनती है। लिखते समय जज्बात और ख्यालात का हुजूम उत्तेजना भरता है। तब कोई शोर या आवाज किसी तरह का खलल कभी मूड खराब करता है तो कभी तेज गुस्सा दिलाता है। उसका कारण भी है कि आपके हाथ से दरअसल भाषा का तारतम्य फिसल जाता है।
समीरलाल का काम बढ़ता जा रहा है। पिछले २४ घंटे में 117 चिट्ठे जुड़े। लेकिन वो टिपियाना छोड़कर गजलगिरी में जुटे हैं:
नाम जिसका है खुदा, भगवान भी तो है वही
भेद करते हो भला क्यूँ, इस जरा से नाम से.
द्विवेदीजी आन लाइन सलाह भी देने लगे।
शिवकुमार मिश्र अपनी २०० वीं पोस्ट लिखने के लिये करवटें बदलते रहे और पोस्ट लिखते रहे।
योगेन्द्रजी पानी की पोलपट्टी खोलते हैं:
ये जो इतराये काट दे बलवा,
बाढ़ का अट्टाहास है पानी.
वक्त पर आ घिरें जो बादल तो,
गांव भर का हुलास है पानी.
ज्ञानजी ने टालस्टाय के कहे को ब्लागजगत के वर्तमान परिदृश्य में देखा। इस पर संजीत कहते हैं:
लेकिन जो मैं महसूस कर रहा हूं वो यह कि आप का पर्सोना इस ब्लॉग ने बदला तो बदला ही। लेकिन आप की आज की यह पोस्ट तो इस बात को एकदम ही सत्य साबित कर रही है कि आप एकदम ही खांटी ब्लॉगर हो गए हो। वो ऐसे कि जो आदमी टॉलस्टॉय के लिखे को वर्तमान ब्लॉगजगत से रिलेट कर ले अर्थात उसके दिमाग में 24 से 18 घंटे ब्लॉगजगत ही चलायमान रहता है, मतलब यह कि वह एक खांटी ब्लॉगर हो गया है।
क्या ख्याल है दद्दा ;)
एक लाइना:
- चलो, एक बार फिर हम तुम!!!: जुट जायें टिपियाने में
- इज्ज़त बचाने के लिए सिर क़लम :कर अपने को पुलिस के हवाले कर दिया.
- क्या मैं पत्नी की धमकियों के बीच, उस के तलवे तले जीता रहूँ?: या शास्त्रीजी के पास तलाक की सलाह के लिये जाऊं?
- विश्वामित्र की तपस्या फिर से भंग हो गई.....: ब्लागिंग के चक्कर में
- कैसे पता लगायें की आपके दोस्त मे सही मे offline है या नही? : का कल्लोगे पता करके जब वो बात नहीं करना चाहता?
- टॉल्सटॉय और हिन्दी ब्लॉगरी का वातावरण :जूतमपैजारीय है ?
और अंत में
कल कविता वाचक्नवी जी ने चिट्ठाचर्चा की शुरुआत की। उनकी चर्चा से डा.अमर कुमार का एक भ्रम टूट गया एक विश्वास पुख्ता हुआ:
और यह भी मेरा भ्रम था कि आप बहुत ही एरोगैन्ट किसिम की विद्वान हैं क्योंकि... खैर छोड़िये
आज जाकर दोनों को अलग कर पाया हूँ
आपके विद्वान होने का विश्वास तो पुख़्ता हुआ है, पर..
आपके एरोगैन्ट का भ्रम टूट गया
सहज संवाद स्थापित करती हुई सी है यह चिट्ठाचर्चा
कविता जी के जुड़ने से चिट्ठाचर्चा समृद्ध हुयी। उनका जुड़ना एक उपलब्धि है। उनकी चर्चा के द्वारा हमें अन्य भाषाओं के चिट्ठों की भी झलक मिलती रहेगी।
विवेक सिंह समय-समय पर काव्य चर्चा करते रहेंगे। कब ? यह उनको शायद खुद नहीं पता लेकिन वे जब भी करेंगे अच्छा लगेगा।
फ़िलहाल इत्ता ही। आपका सप्ताह शानदार शुरू हो, आप जानदार काम करें। ठाठ से रहें।
हमारी एक लाइना..
जवाब देंहटाएंआपका क्या कहना है? - कहने को तो बहुत कुछ है.. कभी साथ बैठे तो सुनाये किस्सा-ए-दास्तान.. :)
वैसे यह चर्चा भी खूब रही.. :)
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा संक्षिप्त मगर अच्छी रही। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंएक दम सधी हुई चर्चा।
जवाब देंहटाएंअब आप इतनी गहन विश्लेषण वाली चर्चा करेंगे तो उसे उसी रूप में निभाने की मेरी चिन्ता बढ़ जाएगी।
इतने समर्पण से इतना समय व श्रम लगा कर आपने लिखते हैं कि बड़ों बड़ों को पसीना आ जाए।
आज सुबह एकदम पठनीय एक और चर्चा प्रस्तुत करने के लिये आभार !!!
जवाब देंहटाएंसनेह -- शास्त्री
शुक्ल जी , सप्ताह की और आज की शुरुआत आपकी चर्चा बहुत मस्त लग रही है ! इब काम पे जा रे सै , सांझ को फ़िर आके पढेंगे ! शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंFools rush in where angles fear to treat -not treat but tread ...please correct it !
जवाब देंहटाएंचर्चा पढ़कर ऑफिस चला...।
जवाब देंहटाएंलौटकर पूछुंगा- मेरा क्या हुआ जी...? :)
बाकी चिठ्ठे तभी निपटाऊंगा। नमस्कार।
अनूप जी बिल्कुल सही लिखा आपने। वाकई शीर्षक गलत रखा है मैने।मुझे इस बात का एह्सास आपकी चर्चा पढ कर हो रहा है। आभार आपका इस ओर ध्यान दिलाने का।वैसे एक बात और पूरी ईमानदारी से बता दूं उसमे प्रचारप्रियता जैसी कोइ बात नहि थी। हां संभवतः लिखते समय गुस्सा दिमाग पर हावी रहा हो इसलिये ऐसा हो गया होगा।भविष्य मे इस बात का खयाल रखूंगा की गुस्से की जगह विषय महत्वपुर्ण है। भविष्य मे भी इसी प्यार और मार्गदर्शन की आशा है। एक बार आपका सार्थक चर्चा के लिये और इतना समय चिट्ठाजगत को मज़बूत करने के लिये देने के लिये।साथ ही हम जैसे भटकों को सही राह दिखाने के लिये।
जवाब देंहटाएं'ye bhee khub rhee...'
जवाब देंहटाएंRegards
आपके यहाँ आकर जो न पढ़े चिट्ठे होते है उनके बारे मे भी पता चल जाता है ।
जवाब देंहटाएंबहुत उत्कृष्ट। बोले तो प्लेटॉनिक!
जवाब देंहटाएंमैंने पूछा चाँद से कि देखा है कहीं, देखा है कहीं
जवाब देंहटाएंऎसी घणी चर्चा सा कहीं, चर्चा सा कहीं
चाँद ने कहा तेरी ब्लागिंग की कसम,
नहीं है.. यही है, यही है वो चर्चा, तेरी ब्लागिंग की कसम
सो, यही है बंधुओं व बाँधवियों मेरे तस्सवुर की चर्चा
एक सही मायने में विश्लेष्णात्मक चिट्ठा चर्चा
जो सार्थक ब्लागगिरी का संदेश परोक्ष रूप से प्रतिपादित कर रही है
जिन भी भाई व बहनों को शिक्षा दीक्षा से परहेज न हो
वह इसको गुन कर सुजान चिट्ठाकार बनने का ज़ोखिम उठा सकते हैं
ज़ोखिम इसलिये कि, आपको टिप्पणियों कि परवाह व गिनती करने का मोह त्यागना होगा
अनूप जी अधिकाधिक चिट्ठे बटोर कर तुष्टिकरण करने का मोह त्याग
आज एक सार्थक व सही विश्लेष्णात्मक चर्चा प्रस्तुत करने में सफ़ल रहे हैं
मेरी बधाईयाँ, ! इसी प्रकार ’लगे रहें.. जमायें रहें.. व सुधीपाठकों का आभार ग्रहण करते रहें
चिट्ठाचर्चाकार महज़ सूत्रधार के रूप में नहीं सोहता है, जी !
किसी भी चिट्ठे का इसमें शामिल किया जाना
हमसब के गर्व का विषय हो तो कुछ बात बनें
इस रेलमपेल टिप्पणी का अन्यथा न लिया जाय
क्योंकि 'यह दिल तो पागल है ' और मैं दिमाग से टिप्पणी करता कोणी
चर्चा, समीक्षा, विश्लेषण सब हो गया है आज तो... !
जवाब देंहटाएंएक चीज होती थी जिसे कहते थे संपादन ,जो भाषा ओर क्या समाचारों में जाये ओर किस तरह से जाये दोनों में संतुलन रखती थी .अब वो नदारद है मीडिया में ...खास तौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ......
जवाब देंहटाएंकही कोई सीमा रेखा तय करनी होगी ....कही कोई जवाबदेही तय करनी होगी .वरना ऐसा होगा की एक आदमी सड़क पर खड़े होकर गाली देगा .आप उसे समाचार की तरह दिखायोगी ....लाइव कवरेज के बहाने .....ब्रेकिंग न्यूज़ ...
अनिल जी का बड़प्पन है जो उन्होंने स्वीकार किया है
अच्छी संतुलित और सार्थक चर्चा...अनिल जी के लेख और शीर्षक दोनों ने ध्यान आकृष्ट किया है.. मैंने अनिल जी को कल ही लिखा था...... "क्योंकि TRP और ट्रैफिक का लोभ न टीवी वाले न ही हम ब्लोगर्स संवरण कर पा रहे हैं." आपने भी संयमित भाषा में जो कहा है, वह हम सब ब्लागर्स को अप्रत्यक्ष रूप से संबोधन है. धन्यवाद. अनिल जी ने इस सार्थक चर्चा को खुले मन से स्वीकारा, उन्हें भी साधुवाद.
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