धृतराष्ट्र : आज तो काफी घमासान मचा हुआ है!
संजय : हाँ, महाराज आज तो जम कर चिट्ठे लिखे गए हैं, मैदान भरा पड़ा है. मैं नजरे दौड़ाता हूँ.
अरे यह क्या? इतनी भीड़में एक अकेला संतरा क्या कर रहा है? शायद मिश्राजी से बिछड़ गया है.
इधर तरूण भी भटक गए हैं, चारों और लगी आग को देख कर वे भी कुछ न कुछ जलाने की फिराक में घूम रहे हैं.
इन सब के बीच पंकजभाई निश्चिंत लग रहे है, उन्हे लगता है की वे मोदी की छत्रछाया में सुरक्षित, पर संजयभाई को समझ में नहीं आ रहा की किस राह जाएं.
संजय सिन्हाजी की गाड़ी को किसीने ठोक दिया तो, अब वे सबसे पुछते घूम रहे हैं कि क्या आपके साथ भी कभी ऐसा हुआ है?
धृतराष्ट्र : इन भटकते लोगो के बीच यह जगह-जगह भीड़ क्यों जमा है? नोकरी के आवेदन स्वीकृत हो रहे हैं क्या?
संजय : नहीं महाराज यहाँ तो मामला ही उलटा है. इस तरफ राजेशजी के अनुसार फॉर्ड कम्पनी अपने कर्मचारीयों को नोकरी से निकालने का काउंटर लगा कर बैठी है.
और दुसरी तरफ श्रीशजी अपनी ई-पाठशाला खोल कर सबको नए-नए शब्द पढ़ा रहे हैं इसलिए भीड़ तो होनी ही थी.
सुखसागर में हिन्दू धर्म-ग्रंथो के बारे में बताया जा रहा हैं, अतः कुछ लोग अपना समान्यज्ञान बढ़ाने के लिए यहाँ पर जमा हुए हैं.
धृतराष्ट्र : कहीं कवियों की गोष्टी भी जमी है, या नहीं?
संजय : खुब जमी है महाराज. यहाँ भी लोग जमा हो कर वाह..वाह.. कर रहें हैं. उडनतश्तरी में बैठ समीरलालजी जब नीचे किसी को तलाशते हुए देखते हैं तब कोहरे के कारण उन्हे लगता है कि धुआँ-धुआँ सा इक चहरा है.
वहीं राजीव रंजनजी को अकेलेपन से अस्तित्त्व ही टूटता-सा लग रहा है.
इधर शैलेशजी श्रृंगाररस में डूबे अपने हृदय की रागेश्वरी के शांत प्रहरी बने हुए हैं तो बेजीजी निन्द्राभाव में कविता कर रहीं हैं. वहीं दीपाजी के नयन भर आये हैं.
धृतराष्ट्र : ये कवि बड़े सवेंदनशील होते हैं, संजय.
संजय : संवेदनाओं के स्वर ही तो कविता है महाराज.
धृतराष्ट्र कोफी के अंतिम घूँट ले रहे थे.
संजय : महाराज देसी टूंज़ में आदम-हव्वा को इस बात की प्रसन्नता है की वे क्रिकेट टीम में नहीं हैं.
धृतराष्ट्र : नहीं तो?
संजय : नहीं तो उन्हे शहर छोड़ना पड़ जाता.
और महाराज काम की जुगाड़े लाएं हैं जितुभाई. आप इनका आनन्द लें और मैं होता हूँ लोग-आउट.
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