ढेर सारे कवियों की भीड़ का जुगाड़ था
ताल कोई ठोक रहा, ताव कोई मूँछ् पे दे
कोई वहां अपने को कहे कविराज था
कोई तो प्रवासी रहा, लोई देशवासी रहा
हर कोई भ्रम में था डूबा हुआ, कवि है
दोहे को गज़ल कहे, सवौये को कहे नज़्म
और हमें पढ़ते हुए चढ़ रहा बुखार था
एक अनुभूतियों का, एक था विभूतियों का
एक चिट्ठाकार कहे, मेरे कवि मित्र हैं
कोई रचनाकार का था, कोई गीतकार का था
और कोई कोई कहे इसमें सिर्फ़ चित्र हैं
यूएफ़ओ भी यहां मिले और खुदा की भी गली
और एक लिखा गया फ़ुरसत के पल में
एक चिट्ठा नामी मिला, एक रतलामी मिला
बाकी सारे बोतल के उड़े हुए इत्र हैं
कवियों के पितामह कहें जिन्हें जीतू भाई
खो गये हैं आजकल कुंडली के फेर में
उड़नतश्तरी दिखी नहीं एक हफ़्ते से
सांझ में न दोपहर में और न सवेर में
प्रत्यक्षा की प्रतीक्षा में जाल, जाल डाल रहा
रस खोजें देवाशीष चुस चुकी गंड़ेर में
रवि लिखें जीतू लिखें, संजय लिखें दनादन
बाकी सब खो गये हैं लगता अंधेर में
फ़ुरसतियाजी ढूँढ़ें मिलें फ़ुरसत के चार पल
छिट्ठे लिखने का नहीं वक्त मिल पाता है
और उधर जिसे देखें वही चर्चा करने को
सुबह भी, दुपहरी और शाम नजर आता है
चिट्ठे तो दिखें ही नहीं,चर्चा करें जो हम
लिखने का मूड बार बार बिदक जाता है
चिट्ठे न भी हों तो भी हम लिखेंगे बदस्तूर
जिम्मेदारी को निभाना हमे खूब आता है
बात अब चिट्ठे की एक शाम मेरे नाम
दिल के चिराग को जलाईये अंधेरा है
अपना नजरिया क्या है बतलाते हैं हमें क्षितिज
वैसे ये नजरिया न तेरा है न मेरा है
शेर शायरी में लाये राही जी की गज़ल राज
प्रेयसी की आत्मा को ढूँढ़े लोकतेज हैं
चिट्ठा चर्चा पूरी हुई,अब दिन बीत चला
थोड़ी देर बाद होने वाला अब सवेरा है
और अब
लगता है जीतू भाई से टाईपो हो गई है जो कविता के पितामह की मौजूदगी में हमको पितामह कह गये. आप न होते तो हम तो यह टाईटिल चुपचाप धर ही लेते. :)
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