शुक्रवार, दिसंबर 15, 2006

चिठ्ठा चर्चा ताजी और बासी

बासी इसलिये कि १३ तारीख को बयाना ले लिया था कि हम ही करेंगे , पर घर के इंटरनेट से पंगा ले लिया , नेट तो गया दिन भर को साथ ही फोन भी धरने पर बैठ गया। गाँधी युग याद आ रहा था। खैर आज कल जिस को देखो गाँधी गुजरात पर पिला पड़ा है।

बंदर कथा के बहाने पंकज इस टीस को पूरी शालीनता से दिखा रहे है। इस लेख पर टिप्पणियाँ देख कर अपने मुहल्ले का पंद्रह अगस्त समारोह याद आ गया। जब अकर्मण्य सभासद को कुछ जागरूक नागरिक लानत मनालत कर रहे थे कि सभासद पहुँच गये। वह भी जब जवाबी भाषण करने लगे तो जूतालात बचाने को सारे बुजुर्गो ने भारत माता की जय के नारे के बहाने से शांति स्थापित करायी।

हम तो यार बैठे थे…

थोड़ी देर किया हमने छत पर इंतजार
फिर सो गये यार हम तो उनको भूलाकर
मगर नींद भी कहाँ नसीब में थी आज
जगा दिया उन्होंने फिर सपने में आकर

हम तो यार बैठे थे

हाले दिल सुनने को हाले दिल सुनाने को
पर अगले दिन उसके साथ दिखा एक छठूला
जिससे वह कह रही थी हौले से मुस्कुरा कर
चलो कवि मामा को नमस्ते करो!


क्या यार कविराज, ऐसे बैठे रहोगे तो भांजो को लालीपाप ही खरीद कर देनी पड़ेगी न?


प्रतीक भाई के लेख से अब सावरकर फिल्म देखने का मन है। यह सावरकर थे जो दलितो को समाज मे मिलाने को उद्यत थे पर गाँधीजी से उनकी घँटो लंबी बहस मे दिखाया गया है कि गाँधीजी मानते थे कि जातिगत रूढ़ियो का स्वतः क्षरण होगा।

व्यंजलकार रवि जी अब कार्टूनिस्ट हो गये है। गजब कार्टून बनाते हैं भाई। आप भी देखो
बिहारी बाबू का हाजमा टेढ़े जमाने की सीधी चाल देख बिगड़ गया।
पंगत मे बैठ कर खाना, वह भी जब आग्रह से खिलाया जाये और अब खड़े होकर गिद्ध भोज। समय की जरूरत के चलते हम तो भूल गये अपने संस्कार पर यही बात जब हमें विदेशी याद दिलाये तो बगले ही झांकनी पड़ती हैं।

देवरिया का जिक्र हो और देवरहा बाबा छूट जायें ? प्रभाकर जी ऐसा होने नही देंगे। देवरिया के बारे लगातार ज्ञानपरक लेख देखकर और लोगो को अपनी जन्मभूमि के बारे मे लिखने का शौक चढ़े तो कृपया ऐसे लेखो को हिंदी विकिपीडिया पर जरूर डालें।
जयप्रकाश जी जानकारी तो आपने रेडियो पर अच्छी दी, पर शीर्षक तो कुछ और ही बयां कर रहा है और लेख कुछ और। आपने रेडियो सुनने के साधन बताये हैं, और शीर्षक रेडियो स्टेशन बनाने के बारे मे लगाया है। आपके घर से आकाशवाणी को "आपके घर में आकाशवाणी !" होना चाहिये था।

चलते चलते तरूण के लेख पर अपने विचार। कल रेडिफ पर एक लेख पढ़ा, जिक्र यह था कि अब मुस्लिम नेताओ को सच्चर समिति की रिपोर्ट से लग रहा है कि पहली बार मुस्लिमो की स्थिति पर अलग से किसी से कुछ खोजबीन की। रिपोर्ट चाहे जैसी हो पर बसपा के इलियास ओवैसी जैसे नेताओ तक का मानना था कि चुनावो में सिर्फ भाजपा को हराने का ऐजेडा अंततः मुस्लिमो को ही नुकसान कर रहा है। जहाँ एकओर मुस्लिमो मे धीरे धीरे समाज और लोकतंत्र से सही मायनो में जुड़ाव से जुड़ी सोच हिलोरे मार रही है वही सठियाये आडवाणी अलगाववाद को हवा देते बोल बोलकर फिर प्रधामंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। तरून भाई, यह देखना रोचक होगा कि मनमोहन सिंह की दूरदर्शिता कहाँ तक सही साबित होगी और वह भारतीय मुस्लिम युवा को अजीम प्रेमजी, इरफान और अब्दुल कलाम जैसे बनने के रास्ते मे कितना मोड़ पायेगी?


अरे हाँ, वाशिंगटन से उठती स्वर लहरियाँ सुनना न भूलियेगा!

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2 टिप्‍पणियां:

  1. बढि़या है. हमने भी अपना उधार चुका दिया और आज की चर्चा कर दी। अब लोग बांचे मजे से!

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  2. सही है, मौके से आ गये, नहीं तो हमारी पोस्ट का जिक्र तो गया ही था, समझो!!! धन्यवाद, अतुल भाई, अब आपका ही आसरा है, शुक्र शुक्र लिखा करेंगे. :)

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