मनीषा ने युवा बने रहने के लिये कई नुस्खे बताये हैं। सतयुग होता तो अपनेराम अपना भी लेते इनमें से कुछ, आप देखें कछु काम का मिले तो। हिन्दी ब्लॉगजगत में एक और नये किस्म का चिट्ठा है सेक्स क्या, अच्छा प्रयास है।
विषय से भटकने का आनन्द लेते हुये दीपक फंस गये ग्लोबल माकर्केटिंग नेटवर्क में, न केवल आसामान से गिरे बल्कि खजूर में भी अटके
उन्होंने कम्पनी का रटा हुआ बायो-डाटा टेलीविजन के कुशल समाचार वाचक की तरह सुनाया. मैं अत्यन्त परेशानी की स्थिति में था खडी हुई ट्रेन को मन ही मन मौलिक गालियाँ दिए जा रहा था. आप गालियों की मौलिकता का अन्दाज़ा इससे लगा सकते हैं कि अगर उन्हें सार्वजनिक कर दूँ, तो ओंकारा के निर्देशक मुझे अपना संवाद-लेखक न रखने पर खुद को कोसने लगें.शुएब पूरे फार्म में चल रहे हैं और छ दिसंबर के राजनीतिकरण पर उन्होंने बढ़िया कटाक्ष किया, ख़ुदा की ज़ुबानी
देखो उन बेघर इन्सानों को देखो, उन लोगों को जो ठंडी रातों में सड़कों पर बसेरा करते हैं। और तुम हो कि चले ख़ुदा के लिए घर बनाने? थू है तुम्हारी सोच और विचारों पर, अपने पड़ोसी के घर लाईट नही और चले हो मन्दिर और मस्जिद को रौशनी से जगमगाने? तुम्हारी करतूतों और अंधविश्वास पर ना हंसने को जी करता है और ना रोने को। ख़ुदा को तुम इन्सानों की इबादत और पूजा की कोनो ज़रूरत नहीं है। तुम इन्सान एक दूजे के लिए हो, एक दूसरे के दुःख सुख में साथ रहो - मगर प्लीज़ हमारे लिए ये मन्दिर मस्जिद ना बनवाओ क्योंकि हम तुम्हारे घर जमाई नहीं हैं।नीरज ने बेहतरीन टिप्पणी की
सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या वीर,अंत में शिवाजी दास का शानदार (अंग्रेज़ी) लेख विरोध प्रदर्शनों में पुतला जलाने की प्रथा पर, ये हैं उनके कुछ काबिलेगौर सुझावों में से एक
जिस दिन सोये देर तक भूखा रहे फकीर।
ख़ुद में ही जब है ख़ुदा, यहाँ-वहाँ क्यों जाऊँ
अपनी पत्तल छोड़ कर, मैं जूठन क्यों खाउँ।
पाप न धोने जाऊँगा, मैं गंगा के तीर
मजहब अगर लकीर है, मैं क्यों बनूँ फ़क़ीर।
ज़्यादातर पुतले बड़े ही फूहड़ ढंग से बने होते हैं, जिस व्यक्ति का विरोध हो रहा है उससे ज़रा भी मेल नहीं खाते। अक्सर ये बस कपड़े और अखबारों जोड़जाड़ कर बना लिये जाते हैं इससे तमाशबीनों को यह पता नहीं चल पाता कि विरोध किस का हो रहा है जिससे विरोध का शर कम होता हैं। मेरा सुझाव है कि सरकार आईआईटी में ल्दन के मैडम टूसाड म्यूज़ीयम के साथ मिलकर पुतलों को बेहतर तरीके से डिज़ाईन करने के पाठ्यक्रम चलायें।
दादा बहाना काहे बना रहे हैं, कल चिट्ठाचर्चा हुई नहीं, आज मध्यान्हचर्चा भी नहीं की गई फिर आपके लिए कुछ बचा ही नहीं यह कैसे मान लें.
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शिवानी दास जी के लेख जैसा ही एक यह लेख भी है, लेकिन हिन्दी में - बेहतरीन बिज़नेस।
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