इन (संक्रमित) लोगों ने बताया कि गाँव में किस तरह लोग इनका बहिष्कार करते हैं, और किस तरह से इन के परिवारों ने भी इन का साथ छोड़ दिया है...एक साहब बोले, "मैं ऐसे लोगों से नहीं मिला हूँ, शायद निचली जाति वालों में होता हो यह तो कर्मों का फल है...जैसे कर्म किए होंगे वैसा फल मिलेगा।" ऐसे लोगों के रवैये के कारण ही हमारे यहाँ दुर्दशा है। कार्यक्रम में बताया गया कि कुछ डॉक्टर भी रोगियों से अछूतों वाला व्यवहार करते हैं।साक्षी लिखती हैं कि हालात अब भी यों हैं कि सरकारी अस्पताल एड्स पीड़ितों को भर्ती करने के लिये राज़ी नहीं। ज़ाहिर है, दुनिया बदल रही है पर नज़रिया बदलने में वक्त तो लगता ही है।
अमित ने मांगलिक ऐश की अभिनय कांगलिक अभिषेक से विवाह की खबर पर लिखा है। खबर थी कि ऐश को बला टालने के लिये पहले एक पीपल के पेड़ से कुँभ विवाह करना होगा। इस पर अमित ने कुछ संभावित परिस्थितयों की कल्पना कीः
हिन्दी ब्लॉगजगत मे बहस चली है गाँधी पर और सागर कहते हैं,पीपल का पेड़ और ऐश्वर्या की जोड़ी किसी फिल्म में साथ आते हैं। पेड़ बेहतर अभिनय करता है। 2014 में ऐश्वर्या अपने दूसरे बेटे को एक पौधा खाते देखकर चीख पड़ती हैं, "रुको शैतान! वो तुम्हारा बड़ा भाई है!"
"भारत की आजादी में अप्रत्यक्ष रूप से द्वितीय विश्व के खलनायक हिटलर का योगदान भी कम नहीं था जिसने विश्व युद्द के दौरान ब्रिटेन की हालत इतनी खोखली कर दी कि मजबूरन अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा...क्रान्तियाँ कभी बिना खडग और बिना ढ़ाल के नहीं मिलती, अगर सिर्फ़ गांधीजी के तरीकों से आजादी की कामना करते तो शायद आज भी हम गुलाम ही होते!"इस बीच मैं यह अंदाज़ा लगाने में व्यस्त हूं की बीजेपी स्वामी रामदेव को किस क्षेत्र से अगला चुनाव लड़वायेगी। वैसे भी धर्मगुरुओं को सोचसमझकर ही बोलना चाहिये, आध्यात्म और राजनीति के बीच का दायरा कम हो चला है। उधर गांधीगिरी की एक नायाब मिसाल दे रहे हैं इंदौर के अतुल शर्मा।
शुऐब पहली बार गये डिस्को में और जान लिया दुनिया के समीकरण को हल करने का, सही तरीका,
"मसजिद में हिन्दू नही आ सकते और मंदिर में मुसलमानों का दाखिला नहीं, मगर ये डिस्को हर एक को खुशामदीद करता है, किसी के साथ भेदभाव नहीं, यहां सब एक हैं।"इस प्रविष्टि पर ढेर सारे पाठकों ने मधुशाला की "सेम टू सेम" पंक्तियाँ उद्धत कर दीं, क्या बात है साब विचारों का अकाल पड़ गया या अपनी हांकने के चक्कर में लोगबाग दूसरों की टिप्पणी पढ़ते तक नहीं? ईस्वामी ने भी लेख की प्रशंसा की और, बकौल समीर, अपने ई-प्रवचन में लिखा,
"खुदा को नाच पसंद है - कभी किसी गुलाब की डाली को हवा में झूमते देखो"।जगदीश ने आर्थिक विकास के आंकड़ों का उल्लेख करते लिखा है,
"हमारी अर्थव्यवस्था में कृषि का सहयोग अब मात्र 17.2% ही रह गया है जो कि 1990-91 के मुकाबले आधे से भी कम है। अब कोई यह नहीं कह सकता कि हम एक कृषि प्रधान देश हैं।"अनुनाद ने हामी भरी, "अर्थव्यवस्था का कृषि आधारित न रहना एक शुभ लक्षण है, शायद विकसित होने के लिये आवश्यक शर्त भी यही है।" पर अनुराग चिंतित नज़र आये,"कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या घटी है ये अच्छा शगुन हो सकता है मगर कृषि की सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी एक चिंता का विषय है। कृषि अगर पीछे छूटेगी तो वो समाज की प्रगति को एक साथ कई साल पीछे खींच लेगी। हम लोग कितनी भी प्रगति कर लें खाना रोटी ही है।" अरे फिकर की बात क्या है, अपना भाई चीन हैं न!
शनिवार को जल्दी देबू की चर्चा देख कर अच्छा लगा. लेकिन क्या बात है कि नारदजी न चिट्ठाचर्चा दिखा रहे हैं न ही कुछ और दूसरे ब्लाग!
जवाब देंहटाएंक्या उनकी तबियत कुछ नासाज है या कुछ ब्लाग उनको दिख नहीं रहे हैं!
अंग्रेजी चिट्ठों के लिंक अच्छे रहे दादा, पता चला कि वहां क्या हो रहा है।
जवाब देंहटाएंमेरा चिट्ठा काफ़ी समय से चिट्ठाचर्चा में शामिल नहीं हो पा रहा है।
जवाब देंहटाएंकौनू गल्ती हुई गवा का???????????
आप सबके चिट्ठों की प्रविष्टियां हिन्दी चिट्ठे एवं पॉडकास्ट पर देख सकते हैं। इसकी RSS फिड भी है। इसमें कोई खर्च नहीं है।
जवाब देंहटाएंअनूप, जगदीश शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंभुवनेश, चिट्ठा चर्चा "उल्लेखनीय" चिट्ठों की चर्चा होती है, यह ब्लॉग एग्रीगेटर की तरह हर चिट्ठे की चर्चा करने जैसा कतई नहीं हैं। "उल्लेखनीय" क्या हो, यह तो व्यक्तिगत नज़रिये पर निर्भर होता है, और जब सप्ताह के हर दिन अलग अलग लोग चर्चा लिखते हैं तो विविधतता बनी रहती है। सभी चिट्ठाकारों से निवेदन है कि कृपया अपने "छूट गये चिट्ठे" की बात कह कह कर हमें और अपने आप को असमंजस की स्थिति में न डालें।
"संपादक जी" अच्छा हो आप अपना छद्मनाम कुछ उपयुक्त रखें। वरना आप जहाँ भी टिप्पणी करेंगे "वहीं के" संपादक माने जाने लगेंगे ;)