गुरुवार, दिसंबर 21, 2006

हम कहा बड़ा ध्वाखा हुइगा

कल समीर लाल जी की लिखी पोस्ट उड़ गयी वो इतने में ही रोने लगे। हमने कहा, ब्लाग से पोस्ट उड़ने पर इतना रोना! जिनके हाथ के तोते उड़ते होंगे उनका क्या हाल होता होगा! पहली बार उड़ने पर ऐसा ही होता है। हमारे साथ तो ये अक्सर होता है। पता नहीं समीरलाल जी के साथ ऐसा पहली बार कैसे हुआ? जरूर कुछ गड़बड़ है। इसकी जांच करानी पड़ेगा!
एक तरफ़ इंडीब्लागीस का सरगर्मी शुरू हो गयी है। इनाम देने के लिये स्पांसर्स की खोज होने लगी है। आपका भी मन करे तो एकाध इनाम की घोषणा कर दीजिये। दूसरी तरफ़ तरकश टीम भी कह रही है कि वो ब्लागर को इनाम दे के ही मानेगी! इनाम वो भी नये ब्लागर को। हम अपने को कोस रहे हैं क्या जरूरत थी हड़बड़ी करने की! साल-डेढ़ साल रुक जाते तो आज कम से कम नामीनेशन की हालत में तो होते! लेकिन अब बीता हुआ समय वापस आ नहीं सकता! रोने से क्या फायदा यह सोच कर चर्चा शुरू करते हैं।

चर्चा की शुरुआत आदि चिट्ठाकार कबीरदास से। समीरलाल जी ने तमाम शोध के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि कबीरदास जी ने तमाम दोहे लिखे वे चिट्ठाकारों के लिये थे:-
अब जब उस जमाने में कबीर दास ने अपने सारे दोहे हिन्दी चिट्ठाकारों के लिये लिखे, तो हिन्दी चिट्ठाकार तो रहे ही होंगे नहीं तो क्या उन्हें उस समय सपना आया था? इसका अर्थ यह हुआ कि भक्तिकाल में ही चिट्ठाकाल की भी शुरुवात हुई या उससे भी पहले.
वो तो कतिपय चिट्ठा विरोधी ताकतों ने उन्हें सामाजिक कवि का दर्जा दे दिया कि सब समाज के लिये लिखा गया. सही कहा मगर चिट्ठा समाज के लिये कहते तो बिल्कुल सही होता.


अपनी बात के सबूत में समीरलाल जी के कबीरदासजी के सात दोहों का चिट्ठार्थ बताया है। एक अर्थ यहां पर दिया जा रहा है:-
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर


भावार्थ: चिट्ठालेखन में कोई उम्र से छोटा बड़ा नही होता. उम्र भले ही ८० साल हो मगर यदि आप अच्छा नहीं लिखेंगे तो न तो कोई पढ़ेगा और न ही टिप्पणी मिलेंगी. तो आपका लिखना भी बेकार, आपका समय जो खराब हुआ सो तो हुआ ही (खैर जब ऐसा लिखोगे तो वो तो कौडी का नहीं होगा) और अगर किसी ने गल्ती से पढ़ लिया तो उसका समय और आपकी छ्बी भी खराब. अतः भले ही उम्र से कम और छोटे हो, मगर अगर अच्छा लिखोगे तो पूछे जाओगे. सिर्फ उम्र में बड़ा होने से कुछ नहीं होता है.
बाकी के दोहों के अर्थ आप समीरलाल जी के चिट्ठे पर पढ़ें। हम तो इंतजार कर रहे हैं कि आगे महिला दिवस के अवसर पर हरि मेरे पीव मैं राम की बहुरिया या दुलहिनि गावहु मंगलचार का सहारा लेकर उनको पहली महिला चिट्ठाकार घोषित करें और इंडीब्लागीस अवार्ड में लाइफ टाईम अचीवमेंट का इनाम दिला दें और जिसे उसके बनारसी वंसज अफलातून परिवार का एकमात्र सद्स्य होने का झांसा देकर झफट ले जायें।

इधर जब समीरलाल की पोस्ट उड़ रही थी तब श्रीष के होश उड़ रहे थे काहे से कि वे नेट से दूर रहे तीन दिन! अपना दुखड़ा रोते हुये ई-पंडितजी फरमाते हैं:-
तीन दिन ऑफलाइन जिंदगी कैसे गुजरी मैं ही जानता हूँ। कुछ तो पहले से ही इंटरनेट किए बिना खाना हजम नहीं होता था ऊपर से आजकल सुबह शाम चिट्ठे पढ़े बिना नींद भी नहीं आती। नारद जी की याद सताती थी। सोचता था परिचर्चा, चिट्ठा-चर्चा में क्या चल रहा होगा आदि-आदि।

जब पंडितजी डायल अप कनेंक्शन को कोश रहे थे तब हम अपने एकमात्र कनेक्शन डायल अप को अपने पहले प्यार की तरह सहलाते हुये अपनी ही कविता दोहरा रहे थे:-

ये दुनिया बड़ी तेज चलती है
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी!
वहां पहुंच कर क्या कर लेगी?


लगे हाथों पंडितजी जो बता रहे हैं की बोर्ड के बारे में वह भी समझ लें तो कोई 'नुसखान' नहीं होगा!

अब पंडितापे से बात का रुख मोड़ते हैं कुछ घरेलू बातों की तरफ़ जिसमें आपको मुरब्बा बनाने की तरकीब बतायी जायेगी। मुरब्बा बनाया जा रहा है पति का और बताने वाली हैं गीता शा पुष्प! जगह है रचनाकार जो कि रविरतलामी की चौपाल है। कुछ बानगी देखी जाये तरकीब की:-
यदि आपके पास पति है, तो कोई बात नहीं. न हो तो अच्छे, उत्तम कोटि के, तेज-तर्रार पति का चुनाव करें. क्योंकि जितना बढ़िया पति होगा, मुरब्बा भी उतना ही बढ़िया बनेगा. दागी पति कभी भी प्रयोग में न लाएँ. आवश्यकता से अधिक पके का चुनाव करने से भी मुरब्बा जल्दी खराब हो सकता है. नए ताजे पति का मुरब्बा डाल देने ठीक होता है. नहीं तो मौसम बदलते ही, अन्य सुन्दरियों के सम्पर्क में आने से उसके खराब होने की सम्भावना है.


इसमें सावधानियां भी बतायी गयीं हैं:-
बीच-बीच में नाराजगी की धूप गर्मी दिखाना जरूरी है, नहीं तो फफूंदी लग सकती है. पड़ोसिनों और सहेलियों की नज़रों से दूर रखें. यदा-कदा चल कर देखती रहें. अधिक चीनी हो गयी हो तो झिड़कियों के पानी का छिड़काव करें. कभी-कभी ज्यादा मिठास से भी मुरब्बा खराब हो जाता है. चीटिंयाँ लग सकती ह


अब इसके बाद बंदा आपसे कविता-कानन में विचरण करने के लिये आपकी अनुमति चाहता है। आप भी मेरे साथ चलें तो अच्छा लगेगा। अगर कोई परेशानी हो तो अपना मन बनाने के लिये आप कुछ चुटकुले पढ़ लें, बिगबास की अगली कहानी देख लें इसके बाद भी न मूड ठीक हो तो जीतू के जुगाड़ देख लें और देख लें कि कैसे ब्लागर प्लेटफार्म बीटा से बाहर आ गया है। और अब भी कुछ असहज हों तो आइये आपको ले चलते हैं आपके विद्यार्थी जीवन में। दीपक मोदी की यह पोस्ट पढ़कर आप बिना टिकट, बिना खर्चे के बचपन में लौट जायेंगे जब आप बिंदास थे और तमाम हरकतें कमोबेश ऐसी ही करते थे कैसे दीपक ने बतायीं। आप देखिये परीक्षा के बाद का नजारा:-
"ये भी सिलेबस में था क्या?""अच्छा!! ये ऐसे होता है क्या....?"" पहले में ३ मार्क्स , दूसरे में ज़ीरो, तीसरे में २, ...गया.....पक्का फेल इस बार.....""यार नोटिस लगते ही फाड देना...........वो क्या सोचेगी मेरा मार्क्स देखकर......"
कविता में सबसे पहले हैं पंकज तिवारी। वे और तमाम बातें लिखने के अलावा लिखते हैं:-
हमने की एक शरारत, चेहरे को भाँपकर।
पर हाय, अंदाज़ा गलत निकला, हम बदनाम हो गये।।

यह खेल तो शुरू था एक अर्से से जानेमन।
यह बात और है कि ख़बर देर से हुई।।


जानेमन, शरारत और बदनामी से अलग रजनी भार्गव जी नये वर्ष का स्वागत करते हुये लिखती हैं:-
जब फ़सल कटने के दिन आयें,
धान के ढेर लगे हों घर द्वार ,
लोढ़ी, संक्राति और पोंगल
लाये पके धान की बयार,
बसंत झाँके नुक्कड़ से बार-बार,
तुम सुस्ताने पीपल के नीचे आ जाना,
मेरी गोद में अपनी साँसों को भर जाना ।
नव वर्ष के कोरे पन्नों पर भेज रही हूँ गुहार,
आगे वे और भी चोरी-चोरी, चुपके-चुपके वाली कामनायें करती हैं नये साल के उपलक्ष में:-

जब भी भीड़ में चलते-चलते कोई पुकारे मुझे
और मैं पीछे मुड़ कर देखूँ ,
तुम मेरे कंधे पर हाथ रख कर,
कानों में चुपके से कुछ कह कर,
थोड़ी देर के लिये अपना साथ दे जाना,
भीड़ के एकाकीपन में अपना परिचय दे जाना ।

नव वर्ष के कोरे पन्नों पर भेज रही हूँ गुहार.


मानसी अक्सर कहती रहती हैं कि उनके अनूपदा रजनी भाभी की रचनायें अपने नाम से छपवाते हैं। पहले तो हम इसे गलत मानते थे लेकिन देख रहे हैं कि जब से रजनी जी ने लिखा है तब से अनूप जी अपनी पसन्द की कवितायें पोस्ट करने लगे हैं। अपनी खुद की बंद/कम कर दी हैं। आज भी उन्होंने यू ट्यूब में कुछ दिखाया है देखिये। हम तो देख न पाये डायल अप कनेक्शन के धामे पन के कारण!

लक्ष्मी नारायण गुप्ता जी अपने बचपन की यादों से रमई काका की कवितायें सुना रहे हैं। रमई काका का परिचय देते हुये वे लिखते हैं:-
हिन्दी जगत में हास्यकवि काका हाथरसी के नाम से सभी परिचित हैं किन्तु एक और काका थे जिनसे बहुत से लोग परिचित नहीं हैं। ये थे रमई काका जिनका असली नाम था चन्द्रभूषण त्रिवेदी। आप बैसवाड़ी अवधी के उत्तम हास्य कवि (किन्तु केवल हास्य नहीं) थे। इनका जन्म सन् १९१५ में उत्तरप्रदेश के उन्नाव ज़िले के रावतपुर नामक गाँव में हुआ था। आपने आकाशवाणी लखनऊ-इलाहाबाद में सन् १९४० से १९७५ तक काम किया था। मेरे बचपन में इनका देहाती प्रोग्राम आता था जिसको गाँव के लोग बड़े चाव से रेडियो को घेर कर सुना करते थे। इस प्रोग्राम में कभी कभी एक प्रहसन आटा था जिसमें रमई काका 'बहिरे बाबा' का रोल अदा करते थे।
इनकी प्रकाशित पुस्तकों के नाम हैं:
बौछार, भिनसार, नेताजी, फुहार, हरपति तरवार, गुलछर्रे और हास्य के छींटे।

आगे रमई काका की तमाम प्रसिद्ध कवितायें उद्धत करते हुये वे उनके बारे में बताते हैं। एक बानगी है:-
तहमत पहिने अंडी ओढ़े
बाबू जी याकैं रहैं खड़े
हम कहा मेम साहेब सलाम
उइ झिझकि भखुरि खौख्याय उठे
मैं मेम नहीं हूँ, साहब हूँ
हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा।

इसमें आखिरी की दो पंक्तियां शायद ऐसे हैं:-

उइ बोले-चुप बे डैमफूल
मैं मेम नहीं हूं साहब हूं
हम कहा,फिरिउ ध्वाखा हुइगा!


जिन साथियों के पास रमई काका की किताबें हों उनसे अनुरोध कि वे उनको नेट पर उपलब्ध कराने कष्ट करें।
मनीष का आज का दिन चांद के नाम रहा। वे चांद, चादनी के पीछे चकोर बने रहे। वेलिखते हैं:-
शायद उन लोरियों से....जो बचपन में माँ हमें निद्रा देवी की गोद में जाने के पहले सुनाया करती थी ।चंदा मामा दूर केपूए पकायें बूर केआप खायें थाली मेंमुन्ने को दे प्याली में

चांद आया तो चांदनी कितने दिन दूर रह सकती है:-
चाँदनी रात के हाथों पे सवार उतरी है
कोई खुशबू मेरी दहलीज के पार उतरी है
इस में कुछ रंग भी हैं,
ख्वाब भी, खुशबुएँ भी
झिलमिलाती हुई ख्वाहिश भी,
आरजू भी इसी खुशबू में कई दर्द भी,
अफसाने भीइ सी खुशबू ने बनाए कई दीवाने भी
मेरे आँचल पे उम्मीदों की कतार उतरी है
कोई खुशबू मेरी दहलीज के पार उतरी है

इस ललित लेख नुमा प्रविष्टि को पढ़कर हमें भी बचपन में रटी हुयी पंक्तियां याद आ गयीं:-

हठ कर बैठा चांद एक दिन
माता से यह बोला
सिलवा दे मां मुझे ऊन का
मोटा एक झिंगोला।

सन-सन चलती हवा रात भर
जाड़े से मैं मरता हूं
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह से
यात्रा पूरी करता हूं।

आसमान का सफर और यह
मौसम है जाड़े का
न हो तो मंगवा दो
कोई कुर्ता ही भाड़े का।

फिलहाल हमारी चर्चा यहीं तक। कल आगे इसको जारी रखेंगे अतुल । परसों मिलेंगे देबाशीष और फिर जीतेंद्र पहलवान!

आज की टिप्पणी

१.“नारद जी की याद सताती थी। ”
-अब जब तक कनेक्शन चालू है, नारद की एक फोटो तो कम्प्यूटर पर उतार ही लो, ताकि बुरे वक्त में काम आये. इस मुए कनेक्शन का क्या भरोसा. :)समीरलाल
२.Lakshmi narayan ji,Ramayi kaakaa jan kavi aur jan kavitaa ke sachche prateek hain. Unnao jile ke baisavaara kshetra ka hone ke karan unkaa bahut naam sunaa, bahut kavitayein suni, ghar valon se, bade buudhon se.Pustakon me bas Bauchaar hi padhi hai, jan kavi ko itna to bhugatana hee paegaa ki uski kavita padhi kam suni jaydaa jaati hai.Unki hasya kavitaon ka to ye alam tha ki ham apne school me sunaate the, desh bhakti geeton ki tarah yaad rakhe jaate the. "ham kaha bada dhvaakha hoegaa", to blockbuster tha aur haan vo bhee "jab pachpan ke ghar ghaat bhaye, tab dekhuaa aaye bade bade...".Aur fir padhi Bauchaar(halanki puraa arth samajhne ke liye maa se kafi kuch puchana pada tha), par ekaaek hasya kavi ki kshavee tuut gayi. "deen ke pahun" aur dhartee "tumkaa teeri rahi" padh kar to lagaa ki shabd bhi mahak sakte hain, dharti ki gandh... geeli mitti ki sondhi mahak, pahli baar vahin se mahsuus ki...Apne baisvaare ki mahak.Apkaa bahut bahut dhanyavaad Ramayi kaka ko web par laaye. Is baar unnao jaungaa to unki aur pustakein dundunga....
उपस्थित

आज की फोटो


आज की फोटो जीतेंद्र के ब्लाग से दुबई का सबेरा दुबई का सबेरा

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3 टिप्‍पणियां:

  1. देबाशीष को ग़लत सूचना न मिले इसलिए यह बता देना जरूरी है कि फिलहाल बनारस के तीन चिट्ठेबाजों को मैं तजबीज रहा हूं .

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  2. शुक्रिया अनूप जी चाँद पर एक प्यारी सी कविता हमारे साथ बाँटने के लिए !

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  3. फुरसतिया महाराज अपना महाचिट्ठा डायल‍अप कनेक्शन से लिखते हैं, यकीन नहीं होता। धन्य हैं आप आधुनिक व्यास जी। :)

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